Tuesday, 23 January 2024

 हिंदी पत्रकारिता की भाषा और उसकी यात्रा


हिंदी पत्रकारिता के लगभग दो सौ के इतिहास में हिंदी ने कई तरह के परिवर्तन और सुधार देखे। इसमें उत्‍तर भारत के हिंदी अखबारों का काफी योगदान है। शुरुआती दौर की अखबारी हिंदी और आज की हिंदी में बड़ा बदलाव आ गया है। जब भारत स्‍वतंत्र हुआ तो साक्षरता की दर बहुत कम थी। अखबार तो बहुत क्षपते थे लेकिन उनकी प्रसार संख्‍या आज की तरह लाखों में नहीं थी। उत्‍तर  भारत का अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय अखबार आज की प्रसार संख्‍या पचास हजार से अधिक नहीं थी। यही हाल दैनिक जागरण और स्‍वतंत्र भारत का था। इन सबके केवल एक ही प्रकाशन केंद्र थे। अब तो अधिकतर अखबार कई केंद्रो से छपते हैं और एक प्रकाशन केंद्र से कई संस्‍करण छपते हैं। एक-एक संस्‍करण की प्रसार संख्‍या इससे अधिक है और हर केंद्र की कुल प्रसार संख्‍या लाखों में है। जाहिर है,पाठकों की संख्‍या बढ़ी है और डिजिटल युग आ जाने के बाद भी इन पर बहुत असर नहीं पड़ा है।इससे हिंदी का प्रचार प्रसार भी बढ़ा है। 

शुरू में हिंदी अखबारों की भाषा को बहुत सरल लिखने की परंपरा थी जिससे कम पढ़े लिखे लोग भी इसे पढ़ और समझ सकें। अब तो नहीं लेकिन कुछ दशक पहले तक नए पत्रकारों को यह बताया जाता था कि ऐसी भाषा लिखो जिससे रिक्‍शा चलाने वाला भी पढ़ और समझ सके। इसके पीछे अखबारों को जन-जन तक पहुंचाने और पढ़ने की आदत डालने की मंशा थी। हिंदी अखबारों ने निश्चित ही इसमें काफी सफलता पाई। 

यदि आज से दो या तीन दशक पहले के ही अखबार पढ़ने को मिल जांए तो आप देखेंगे कि उनकी तब और आज की भाषा में काफी अंतर आ गया है। कुछ शब्‍द खत्‍म हो गए हैं तो काफी नए आ गए हैं। भाषा की यात्रा और उसके विकास की यह अनिवार्य प्रक्रिया है। अब साक्षरता बढ़ी है तो लोग अल्‍पप्रचलित शब्‍दों को भी समझने का प्रयास करने लगे हैं। धीरे-धीरे हिंदी अखबारों की भाषा परिष्‍कृत हो रही है लेकिन इसके साथ एक संकट भी आया है। कुछ अखबारों ने आज के युवा वर्ग में बोली जाने वाली हिंगलिश को अपने अखबार का मानक बना लिया है। वे हिंदी में अंग्रेजी के शब्‍दों को प्रचुर प्रयोग करते हैं लेकिन अच्‍छी बात यह है कि वे अंग्रेजी के शब्‍दों का सही उच्‍चारण लिखने की आदत विकसित कर रहे हैं। एक तरह से वे हिंदी पाठकों को अंग्रेजी भी पढ़ा रहे होते हैं।  


सबसे अधिक समस्‍या हिंदी की वर्तनी और ग्रामर को लेकर है। अधिकतर अखबार इसके प्रति लापरवाह हैं। सभी अखबारों की अपनी वर्तनी है और एक ही शब्‍द अलग अलग अखबारों में अलग अलग तरीके से लिखा जा रहा है। यह इसलिए कि शब्‍दों का मानक रूप अभी तक तय नहीं हो पाया है। शुद्धतावादी संस्‍कृत के आधार पर हिंदी शब्‍दों की वर्तनी तय करते हैं तो सरलतावादी आम लोगों की समझ में आने वाली हिंदी लिखने-बोलने पर जोर देते हैं। दोनों वर्गों के अपने-अपने तर्क हैं। लेकिन ऐसा सिर्फ हिंदी के साथ ही है। दूसरी भाषाओं में ऐसा नहीं है। अंग्रेजी में तो स्‍पेलिंग तय हो गई,वह पूरी दुनिया में चलती है। साइलेंट वर्णो का उच्‍चारण न होने के बाद भी वे लिखे जाते हैं और पढ़ाये जाते हैं। हिंदी में कोई दारोगा तो कोई दरोगा, कोई दूकान तो कोई दुकान, कोई मूसलाधार तो कोइ मूसलधार लिखता है। चंद्र बिंदी इस्‍तेमाल की जाय कि सिर्फ बिंदी, अभी तक यही तय नहीं हो पाया है। पंचमाक्षर का प्रयोग कैसे किया जाय। क्‍या म वर्ग में भी बिंदी लगाई जाए कि आधा म इस्‍तेमाल किया जाए,इन सभी बातों पर सहमति नहीं बन पाई है। सबसे बड़ा संकट यह है कि किसी भी अखबार में इनको लेकर बात नहीं होती। न कोइ बताता है और न ही कोई जानने और समझने के लिए तैयार है। 


जब मैं 1973 में इस पेशे में आया तो मेरे पहले अखबार जनवार्ता में दो-चार दिनों बाद मुझे चार छह पन्‍ने की एक बुकलेट दी गई जो वर्तनी से संबंधित थी । उसमें बताया गया था कि गया,गयी,गये आदि कैसे लिखे जाएंगे और क्‍यों। इसके अतिरिक्‍त लगभग 50-60शब्‍दों का रूप बताया गया था कि इसे कैसे लिखा जाना चाहिए। जैसे अंतरराष्‍ट्रीय, धूमपान,परराष्‍ट्रमंत्री (विदेशमंत्री) स्‍वराष्‍ट्रमंत्री (गृहमंत्री) संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ,राष्‍ट्रकुल (कॉमनवेल्‍थ) दीक्षा समारोह और दीक्षांत भाषण,संख्‍या के लिए भारी न लिखकर बड़ी संख्‍या लिखने,काररवाई ( अब यह शब्‍द न लिखकर कार्रवाई लिखा जाता है) और कार्यवाही में अंतर,खुदाई और खोदाई कहां लिखा जाए आदि कारण सहित स्‍पष्‍ट किया गया था। यह वर्तनी और नियम आज ने बनाए थे जिसे बनारस के सभी अखबार पालन करते। आज की वर्तनी की यह नियमावली जनवार्ता ने भी छाप ली थी जो अपने पत्रकारों को उपलब्‍ध कराता था। आज शब्‍दों के मानकीकरण के प्रति पत्रकारों का आग्रह नहीं है और अलग अलग अखबारों में एक ही शब्‍द के अलग अलग रूप व्‍यवहार में लाए जाते हैं। जिन अखबारों ने अपनी वर्तनी तय की है,वे भी इसका कड़ाई से पालन नहीं करते हैं। 

एन दिनों अखबार में कोई नया शब्‍द लिखा गया  तो पाठक उसका अर्थ पूछता और वह शब्‍द धीरे-धीरे प्रचलन में आ जाता। यदि कोई गलत शब्‍द प्रयोग हो जाता तो तत्‍काल उसपर आपत्ति आ जाती। एक बार कुछ औरतें चोरी करते पकड़ी गयीं। अखबारों मे खबर छपी- तीन महिलाएं पर्स उड़ाते पकड़ी गयीं । दूसरे दिन से अखबारों में महिला शब्‍द के प्रयोग पर आपत्ति करते हुए सम्‍पादक के नाम पत्र आने लगे। उनमें यह कहा गया कि चोर औरतों को महिला क्‍यों लिखा गया। महिला शब्‍द की व्‍युत्‍पत्ति बताते हुए कहा गया कि महिला स़भ्रांत परिवार की स्त्रियों के लिए लिखा जाना चाहिए पर्स उड़ाने वाली चोरनियोंके लिए नहीं। उनके लिए औरतें, स्त्रियां कुछ भी लिखें महिला तो कतई नहीं। किस तरह की औरतों के लिए क्‍या लिखा जाय इसपर कई दिनों तक रोचक बौद्धिक बहस चली। भाषा के प्रति इस तरह का आग्रह अब कहां ?  अब तो हिंदी की सौत हिंगलिश पैदा हो गयी है। एक बार सन 74 में विधान सभा भंग कर अचानक चुनाव की घोषणा कर दी गयी। बहुगुणा जी तब कार्यवाहक मुख्‍यमंत्री थें। अंग्रेजी अखबारों ने इस चुनाव के लिए स्‍नैप इलेक्‍शन शब्‍द का इस्‍तेमाल किया। जनवार्ता में विचार कर इसके लिए चट चुनाव शब्‍द का पहली बार इस्‍तेमाल किया, बाद में सभी अखबार यही लिखने लगे। प्रसंगत: यहां बहुगुणा जी के बारे दो शब्‍द जरूर कहना चाहूंगा। मैने उन दिनों उनकी कई चुनाव सभाएं कवर की थीं। मुस्‍लिम समुदाय में उनका जो प्रभाव था वैसा कम लोगों का था। वह मुस्लिम क्षेत्र की चुनाव सभाओं में जिस हिंदी (उर्दू मिश्रित) में बोलते वही सचमुच में हिंदुस्‍तान की जुबान कही जा सकती है। किसी भी अन्‍य पार्टी में ऐसी भाषा बोलने वाले नेता कम थे। लेकिन उनका भाषण उनकी ही भाषा में नहीं छपता था। उसे हिंदी अखबार अपनी तरह से हिंदी में लिखते थे। 

जब हिंदी में अखबारों के योगदान की आत चलेगी तो बनारस के अखबारों को भुलाया नहीं जा  सकता। बनारस स्‍कूल में जहां नये शब्‍दों का सृजन किया जा रहा था, वहीं देशज शब्‍दों या अंग्रेजी के शब्‍दों के देशज उच्‍चारण को भी अंगीकार किया जा रहा था और इनका धड़ल्‍ले से अखबारों में इस्‍तेमाल भी किया जा रहा था। बैंक के लिए बंक,पैसेंजर के लिए पसिंजर,स्‍टेशन के लिए टेशन,कर्फ्यू के लिए करफू  आदि ऐसे ही शब्‍द थे जो अखबारों में नि:संकोच लिखे जाते थे। यह सिर्फ इसलिए पाठक वही शब्‍द पढ़े जो वह बोलता है। अब ये शब्‍द अखबारों से खत्‍म हो गये हैं। इन शब्‍दों के इस्‍तेमाल के पीछे सम्‍पादकाचार्य बाबूराव विष्‍णु पराड़कर जी का यह तर्क था कि पाठक को यदि वही शब्‍द पढ़ने को मिलेगा जो वह रोजमर्रा के व्‍यवहार में बोलता है तो वह उस अखबार से अधिक जुड़ाव महसूस करेगा, जब वह अखबार का अभ्‍यस्‍त हो जाएगा तो हम शब्‍दों के तत्‍सम रूप का इस्‍तेमाल कर सकते हैं। पराड़कर जी के इस तर्क से आज सहमत, असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन जब उन्‍होने यह प्रयोग किया तो इसे तब की जरूरत कहा जा सकता है जब प्रदेश और अन्‍य हिंदी भाषी क्षेत्रों में शिक्षा का प्रतिशत बहुत कम था और अखबार पढ़ने की आदत कम लोगों मे थी। हालांकि वह यह भी मानते थे कि अखबार समाचार देने के साथ ही भाषा का संस्‍कार और शिक्षा भी देते हैं।जब मैंने पत्रकारिता शुरू की तब तक आज इन शब्‍दों का प्रयोग करता था लेकिन जब वह अप्रैल 75 से कानपुर से निकलने लगा तो इन शब्‍दों को पूरी तरह त्‍याग कर उनके मानक रूप का प्रयोग किया जाने लगा।  

अब तो अखबारेां में शब्‍दों पर चर्चा ही नहीं होती। लेकिन मैं सौभाग्‍यशाली रहा कि ऐसी बहसों में भाग लेने का खूब अवसर मिला। जनवार्ता में अपने लगभग ढाई साल के कार्यकाल में मुझे आदरणीय त्रिलोचन शास्‍त्री जी का भी सानिघ्‍य मिला। उनकी मुझपर विशेष कृपा रहती रहती थी। छह घंटों के समय में अधिकतर साहित्‍य चर्चा में ही बीतता। त्रिलोचन जी को सुनना अपने में अलग अनुभव था,इसका स्‍वाद वही जान सकता है जिसने उन्‍हें सुना हो। चर्चा चाहे जहां से शुरू हो किसी न किसी शब्‍द की व्‍युत्‍पति,उसकी व्‍याख्‍या,पर्याय,विलोम,समानार्थी शब्‍द सबकी बात हो जाती। शास्‍त्री जी चलते -फिरते विश्‍वकोष थे। वह गप्‍प भी इतनी गंभीरता से मारते कि सुनने वाला यकीन न करे तो क्‍या करे। वह शब्‍दों के सही उच्‍चारण पर विशेष जोर देते। पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के लोग श,स और ष के उच्‍चारण में प्राय: सतर्क नहीं होते। ष को ख कहना तो आम बात थी। शास्‍त्री जी इसकी शुद्धतापर विशेष जोर देते। यज्ञ को यज्‍य,संस्‍कार को सम्‍स्कार,ज्ञान को ज्‍नान कहते। आर्यसमाजी और श़ुद्धतावादी आज भी ऐसा ही उच्‍चारण करते हैं । (ज्ञान मंडल प्रकाशन को ज्‍नान मंडल कहते। ज्ञान मंडल के बाहर आज भी अंग्रेजी में यही स्‍पेलिंग लिखी है। कभी- कभी लोग मजाक में इसे ज्‍नान मंडल न कहकर जनाना मंडल कह देते।) शब्‍द और भाषा के प्रति वैसा आग्रह और प्‍यास अब कहां। 


अभी कुछ दिन पहले मैं नोएडा से निकलने वाले अखबार को पढ़ रहा था। उसमें अभयारण्‍य को अभ्‍यारण्‍य लिखा गया था। शीर्षक और मैटर दोनों में यही लिखा गया था। इसे लिखने वाले यही नहीं जानते कि यह शब्‍द बना कैसे है। जब तक आप शब्‍दों की व्‍युत्‍पत्ति नहीं जानेंगे,उसकी निर्मिति नहीं जानेंगे,उसका शुद्ध रूप कैसे जानेंगे। जब मैं दैनिक जागरण में वर्तनी पर काम कर रहा था तो कुछ शब्‍दों को प्रचलन में लाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी और समझाना पड़ा कि क्‍या सही है और क्‍यों। धूम्रपान गलत है और धूमपान सही,यह समझाना मेरे लिए कठिन हो गया था क्‍यों कि लोगों ने देशभर में धूम्रपान निषेघ लिखा हुआ इतना देखा और पढ़ा है कि वह गलत शब्‍द ही उनके दिमाग में घुसा है और निकल नहीं पा रहा। यही आइआइटी और आईआईटी के साथ है। हम लोग खुदकुशी और खुदकशी में क्‍या सही है,यह नहीं जानते। गोकशी लिखा जाए कि गोकुशी। इनकार को कोई इंकार, कोई इन्‍कार तो कोई इनकार लिख रहा है। दूसरी भाषा के शब्‍दों को लेकर यह समस्‍या सबसे अधिक है। अब समय आ गया है,शब्‍दों के सही रूप को तय किया जाना चाहिए

Sunday, 25 November 2018

वीराने का बादशाह




वीराने का बादशाह  

उस दिन बहुत तेज आंधी आई थी। हम लोग गांव में ऐसी आंधी को लंगड़ी आंधी कहते। पश्चिमी आकाश में अंधेरा सा उठता और हाहाकार करता आंधी-तूफान आता।उसके गुजर जाने के बाद विनाश के अवशेष दिखते, किसी का छप्‍पर उड़ गया होता तो किसी का पेड़ गिर गया होता। अब पता चला कि उस तरह की आंधी राजस्‍थान के रेगिस्‍तान से उठती है और अपने साथ बालू-धूल सहित विनाश भी लाती। प्राय: ऐसी आंधियां शाम के समय आतीं। उस दिन भी शाम को ही आंधी आई थी और उसने हमारे सबसे चहेते आम के पेड़ का जीवन समाप्‍त कर दिया था। गांवों में हर आम के पेड़ का नाम होता था जो प्राय: उसके फल के रंग-आकार या स्‍वाद पर आ‍धारित होता लेकिन हमारे उस पेड़ का नाम का इनमें से किसी से संबंध नहीं था। हम लोग उस आम के पेड़ को सत्‍ती कह कर पुकारते। कहते हैं कि जहां वह अकेले खड़ा था, वहीं गांव की कोई महिला कभी बहुत पहले सती हो गई थी। उसी के नाम पर उसका नाम भी सत्‍ती पड़ा था। यह पता नहीं कि जब वह महिला सती हुई थी यह उसके पहले से था या बाद में इसे लगाया गया। वह गांव के बाहर उत्‍तरी हिस्‍से में था और सैकड़ों बीघे के बीच अकेला था। जैसे घर के इकलौते बेटे की देख भाल होती है,उसी तरह उसकी भी हुई थी और जब हम लोगों ने उसे देखा तो वह अपने चौथेपन में था। गांव में कोई यह बताने वाला नहीं था कि उसकी उम्र कितनी थी।उसके फल मेरे दादा जी ने खाए, मेरे पिता जी ने खाए और अब हम लोग खा रहे थे। उसने हमारी तीन पीढि़यों को तृप्‍त किया था।  उसके पास ही में,लगभग 15-20 फुट की दूरी पर सत्‍ती माई का थान भी था, जहां गांव की महिलाएं बेटे की शादी होने के बाद मौर छुड़ाने या कोई मनौती पूरी होने के बाद पूजा करने आतीं। सत्‍ती माई के थान का कोई स्‍थायी आकार नहीं था, बस कुछ जंगली झाडि़यों के नीचे अनगढ़ पत्‍थर और कुछ ईंटें रखी रहतीं जिन पर सिंदूर लगा होता। ये पत्‍थर ध्‍यान से देखने में किसी मानवाकृति की तरह लगते। सत्‍ती माई किसी का अहित नहीं करतीं,सबका भला ही करतीं, इसलिए हम लोग उनके आसपास तक खेलते रहते।
हां तो मैं उस दिन आई लंगड़ी आंधी की बात कह रहा था। जब आंधी चली गई तो जहां सत्‍ती आम था, वहां का आकाश कुछ खुला सा दिखा और पता चला कि इस बार आंधी का कोप उसी पर हुआ।वह जड़ से उखड़ने के साथ ही आधे पर से फट सा गया था और पूरब की तरफ गिरा पड़ा था। उसके गिरते ही गांव के लोग उसकी ओर दौड़े। चूंकि उस साल आम के फल खूब आए थे,इसलिए अधिकतर लोग जमीन पर गिरे और डालों में लगे आम ही लूटने में लगे। कुछ लोग उसकी डालियां लेकर जाने लगे। कुछ ने अपनी बकरियों के लिए उसके पत्‍ते ही बटोर लिए। गांवों की यह परंपरा है कि आंधी में यदि कोई पेड़ गिर जाए तो वह सामूहिक संपत्ति हो जाता है और सब लोग उसके ले जाए जा सकने वाले भाग पर अपना हक जताने लगते हैं। थोड़ी ही देर में उसका मुख्‍य तना और मोटी डालें ही बचीं। कुछ दिन तक इसी तरह पड़े  रहने के बाद बढ़ई और लकड़ी का धंधा करने वाले बचे हिस्‍से का दाम भी लगाने लगे। जब समझा गया कि इसका दाम अब इससे अधिक नहीं मिलेगा तब उसे पांच सौ में बेच दिया गया। मैं यह 60 के दशक के आखीर की बात कर रहा हूं तब का पांच सौ आज के 50 हजार के आसपास तो होगा ही।
जब लंगड़ी आंधी में सत्‍ती आम गिर गया तो सत्‍ती माई के अस्तित्‍व पर भी संकट आ गया। सत्‍ती आम के आसपास कई लोगों के खेत थे लेकिन चकबंदी होने पर वह हमारे चक में ही आ गया था। उसकी अलग से मालीयत लगी थी। लेकिन जब वह गिर गया तो सत्‍ती माई किसके सहारे रहतीं। दोनों एक दूसरे से ही अस्तित्‍व में थे। सत्‍ती माई ने आम को अपना नाम दिया और आम ने उन्‍हें अपनी छाया और संरक्षण। उसके गिरने और बिक जाने के बाद जब खेत में फसल बोने का मौक आया तो सत्‍ती आम के नीचे की जमीन भी खेत में आ गई और हल चलाते समय सत्‍ती माई को बाधा डालते देख मेरे बड़े पिता ने उनके अनगढ़ आकार वाले पत्‍थरों को एक झौआ में भर कर खेत के डांड़ पर रखते हुए कहा- ल सत्‍ती माई अब इहां बइठा। उनके आसपास के जंगली पौधों को उखाड़ कर फेंक दिया गया। बाद में गांव के ही एक गुप्‍ता ने वहां इंटों का चौरा सा बना दिया। सत्‍ती माई जंगली पौधोंके बीच से निकल कर पक्‍के चौरे में आ गईं और अब भी वहीं स्‍थापित हैं बिना सत्‍ती आम के ।
मुझे तो सत्‍ती आम की कहानी बतानी थी लेकिन बिना सत्‍ती माई की कथा के वह अधूरी ही रहती, इसलिए उनके बारे में यह बताना पड़ा।
जब से मैने होश संभाला और गर्मी की छुट्टियों में गांव जाता तो सत्‍ती आम के आसपास ही हमारी अधिक से अधिक गतिविधियां होतीं। सुबह भैंस चराने अपने पड़ोस के अन्‍य लोगों के साथ जाता तो वही उन्‍हें चरने के लिए छोड़ हम लोग पेड़ के आसपास छुपा छुपाई भी खेलते। सत्‍ती कोई सामान्‍य पेड़ नहीं था। उसके तने को अकवार में लेने के लिए चार लोगों की जरूरत पड़ती।उसकी खुरदुरी छाल हमारे लिए आकर्षण का कारण बनती।हम उसके पीछे ही छिप कर,उसके आसपास चक्‍कर लगाते हुए खेल पूरा कर लेते और फिर पोखरे में भैंसों को नहाने ले जाते। लौटते समय वहां रुकना नहीं होता क्‍येां कि पोखरे से निकलने के बाद भैंसों को दौड़ाते जुए हम लोग घर ले जाते।
सबसे आनंद दायक समय वह होता जिस साल सत्‍ती फलता।वह एक साल छोड़कर फल देता। देशी आमों के साथ ऐसा ही होता है। एक साल फलने के बाद दूसरे साल उसमें या तो फल आते ही नहीं या एक आध डाल में ही आते। लेकिन अगले साल वह सिर से पैर तक फलों से लदता। वह किस प्रजाति का आम था,यह हम लोग नहीं जानते लेकिन आज समझ में आता है वह बनारसी लंगड़े की प्रजाति का था। पता नहीं प्रकृति का हमसे संवाद करने का यह क्‍या तरीका है, मैने यह देखा है कि हर आम के पेड़ का आकार उसके फल के अनुसार ही होता है। जिसका फल लंबी आकृति का होगा,उसका पेड़ भी उसी तरह लंबा होगा,गोल फल वाले आम का पेड़ भी गोल आकृति का होगा। इसी को देखते हुए हमें आज लगता है कि वह लंगड़ा आम था। जब हम लोग अपने घर से देखते तो वह लंगड़े आम जैसी गोल आकृति का ही लगता।आज भी उसका स्‍वाद याद है जो लंगड़े आम की तरह ही लगता। लेकिन आज तो लंगड़ा आम चाकू से काट कर खाया जाता है, हम लोगों ने कभी उसे चाकू से काट कर  नहीं खाया,छिलका पकड़ कर गूदे सहित निकाला और रसदार मीठे गूदे का स्‍वाद लेते। चाकू से आम काट कर खाने की सलीका हम लोग तब तक नहीं सीख पाए थे और न ही उसकी कभी जरूरत पड़ी।    
सत्‍ती आम हमारे दो परिवारों के बीच साझे में था, लेकिन जिस साल वह फलता गांव क्‍या आसपास के गांव जवार के लोग भी उसका स्‍वाद लेने का सौभाग्‍य पाते। घर में काम करने वाले हलवाहे, मां को चूड़ी पहनाने वाली चुडिहारिन चाची ,सब्‍जी लाने वाली कोइरिन चाची जो भी हमारे परिवार से जुड़ा होता वह उसको खाने का लाभ जरूर पाता। कभी-कभी तो चुडि़हारिन चाची कोई सामान देने के बदले पैसा न लेकर मेरी मां या बड़की मां से सत्‍ती आम ही मांगती- बहिन लड़कौ लोग खा लीहैं। उन्‍हें बिना गिने आम दिए जाते। दस-पंद्रह तो होते ही। कोई घर मिलने आता तो उसे बाल्‍टी में भीगे आम खाने को दिए जाते। गरज यह कि सत्‍ती अपने स्‍वाद को दूर-दूर तक बिखेरता। सत्‍ती आम को कभी हमने कच्‍चा नहीं खाया क्‍यों कि उस पर कोई चढ़ नहीं पाया कि उसे कच्‍चा तोड़ा जा सके। कहते हैं कि कच्‍चे का स्‍वाद बहुत खट्टा होता। यह खट्टापन पक कर चूने के बाद भी बना रहता। हम लोग पके आम को कई रूप में खाते। जिस दिन उसे बीन कर घर लाया जाता,उस दिन न खा कर दूसरे या तीसरे दिन खाने से वह और मीठा होता। लेकिन अधिक दिन रखने से उसकी मिठास इतनी बढ़ जाती कि सड़ने लगता। घर के जिस कमरे  में उसे रखा जाता जाता, उसका नाम ही सत्‍ती वाला कमरा पड़ जाता।पूरा कमरा उसकी मिठास से महमह करता रहता।
सबसे अधिक मजा आता उसकी रखवाली करने और बीन कर घर लाने में। जब वह पक कर चूने लगता तो उसकी रात दिन रखवाली करनी होती। मैने उसकी दोनो रखवाली की है। चूंकि वह हमारे दो परिवारों के बीच का था तो दोनों  परिवार के लोग उसकी रखवाली करते।दिन का जिम्‍मा बच्‍चों-बूढ़ों को दिया जाता और रात का बड़ों को। दिन में वह कम गिरता लेने रात मे तो जैसे बाढ़ आ जाती। पता नहीं वह कौन सी वानस्‍पतिक क्रिया होती कि वह रात में अधिक गिरता। गिरते समय वह अधिक पका नहीं होता दो दिन बात पूरा पकता। मैने रात की रखवाली खूब की है। उसके लिए अलग से तैयारी भी करनी होती। एक टार्च दो या तीन सेल वाली, एक लाठी अच्‍छी मजबूत और खाट तथा विस्‍तर तो होता ही। शाम को ही जब दिन की रखवाली करने वाले लौटते तो हम दोनों परिवारों के एक एक लोग सिर पर खाट और बिस्‍तर तथा हाथ में लाठी और टार्च लेकर रखवाली करने निकलते। गांव में रात का खाना जल्‍द ही खानेकी परंपरा है अमेरिका की तरह जो शाम होते ही खाना खाकर हम लोग निकल जाते।
तो तैयार हो कर हम लोग सत्‍ती के पास पहुंचते, खाट उससे दूर खेत मे साफ जगह बिछाई जाती और रात दस बजे तक पूरी तरह सोने के पहले कम से कम दो बार गिरे आम बीन कर दोनों खाटों के बीच में रखा जाता। ऐसा इसलिए कि सत्‍ती का फैलाव इतना अधिक था कि दूसरी ओर यदि कोई आम बीन ले जाए तो हम लोगों को पता ही नहीं चलता और ऐसा रोज होता। रात को चुपके से दूसरे के पेड़से आम बीन लाना भी एक तरह की कला और दुस्‍साहस भी था और इसमें गांव के कई लोग माहिर भी थे। रोज ही किसी न किसी हिस्‍से से आम चुरा लिए जाते।हम लोग रात में कई बार उठकर आम बीनते, टार्च की रौशनी फेंकते, जोर से खांसते जिससे आमचोर जान जाए कि हम जग रहे हैं लेकिन वे फिर भी सफल हो ही जाते। हम लोग इसे बहुत बुरा भी नहीं मानते। आमों पर सबका हक मानते हुए। सुबह होने पर आखीरी बार दिन की रौशनी में आम बीने जाते और उनका बंटवारा आध-आधा होता। आम तौल कर नहीं गिन कर बांटे जाते। पांच आम को एक गाही कहा जाता और इसी तरह पांच पांच आम का कूरा लगता और दोनों लोग अपना हिस्‍सा ले जाते। सत्‍ती 15 दिन तक लगातार पक कर गिरता। इसके बाद उसका गिरना कम हो जाता। जब लगातार दो दिन कम आम मिलते तो रात की रखवाली बंद कर दी जाती लेकिन सुबह तड़के ही पहुंच कर गिरे आम बीने जाते। यह एक हफ्ते चलता और सत्‍ती सबको तृप्‍त कर दो साल की तैयारी करने लगता।
सत्‍ती आम के पास कुछ लिसोढ़े की झाडि़यां भी थीं। रात को उनमें से बिलों से सांप भी निकलते। एक बार तो ऐसा हुआ कि हम लोगों ने तीन दिन लगातार सांप मारे। रात को आम बीनने उठने की हिम्‍मत नहीं हुई। सिर्फ टार्च जलाकर और खांस कर ही रखवाली की गई। हमारी आजी और गांव की बढ़ी बूढि़यों ने कहा कि सत्‍ती माई नाराज हो गईं हैं। आजी मुझे बहुत मानती थीं इसलिए उन्होंने मेरे जाने पर रोक लगा दी। दो दिन बड़े पिता जी गए लेकिन फिर हमने जाना शुरु कर दिया। अब तो जब से सत्‍ती माई खेत के डांड़े पर आ गईं हैं, कभी ऐसा नहीं हुआ कि सांप निकलने की खबर मिली हो। सत्‍ती आम के साथ ही वे सब भी न  जाने कहां बिला गए।
इस बार गर्मी में लंगड़ा आम बाजार में कम आया। दो-तीन किलो खरीदने के बाद भी किसी के हिस्‍से एक से अधिक नहीं आया। यह ऊंट के मुं‍ह में जीरे जैसा था। जिसने सत्‍ती का आम खाया है, उसको कहीं और तृप्‍ति मिल ही नहीं सकती।

Friday, 12 October 2018

पुस्तक चर्चा


अकबर पर खोजी दृष्टि

शाज़ी ज़माँ के उपन्‍यास को पढ़ने के पहले मैं अकबर के बारे में उतना ही जानता था जितना जितना जूनियर हाईस्‍कून की इतिहास की किताबों में लिखे पाठ में पढ़ा था। इसके बाद अकबर के बारे में कुछ अधिक नहीं पढ़ सका। शाज़ी ज़माँ की यह किताब जिसे वह उपन्‍यास कहते हैं लेकिन मैं इतिहास या उसके बहुत निकट मानता हूं,अकबर के बारे में मुझे काफी जानकारी देती है, बहुत कुछ नई जानकारी। शाज़ी चूंकि पत्रकार रहे हैं,इसलिए इस उपन्‍यास में भी उन्‍होंने अपनी पत्रकारिता की खेाजी प्रवृत्ति  कायम रखा और मेरा मानना है कि इसी से यह उपन्‍यास इतिहास के बहुत करीब पहुंच गया। उपन्‍यास में चूंकि कल्‍पना करने की छूट होती है,इसलिए उसे सत्‍य नहीं माना जाता। शाज़ी  ने इसमें कल्‍पना सिर्फ अकबर के समय और उनसे जुड़ी घटनाओं को नए सिलसिले से रखने में किया और उसी के सहारे पूरी किस्‍सागोई की। वह इसे इतिहास मानते भी नहीं लेकिन समकालीन साहित्‍य से जो प्रमाण उन्‍होंने इसमें दिए हैं, वह इतिहास ही तो है। उन्‍होंने इसे लिखने के पहले जितना शोध किया, उतना कोई शोधार्थी भी शायद ही करता हो।
एक कार्यक्रम में कभी शायर जावेद अख्‍तर ने कह दिया था कि अकबर उर्दू नहीं बल्‍कि कुछ फारसी, अवधी,देशी भाषांए और पंजाबी बोलता था तो एक महिला ने इस पर आपत्ति की। जावेद अख्‍तर ने एक दर्जी की किताब के उदाहरण से बताया कि जब अकबर आम लोगों से मिलते तो उन्‍हीं की भाषा में बात करते। उस दर्जी ने(जावेद अख्‍तर ने उसकी किताब का नाम नहीं बताया) ने पहली बार अकबर को एक दूकानदार से बात करते देखा था। अकबर ने थोड़े दिनों लाहौर में भी राजधानी बनाया था। वह समाज के हर वर्गसे मिलते थे और लोगों की तकलीफें सुना करते थे, जाहिर है उनसे बात करते समय उनकी ही भाषा में बात करते होंगे। शाज़ी ज़माँ ने भी लिखा है कि अकबर हर दीन के लोगोंसे मिलते,उनकी बात सुनते,हर दीन की अच्‍छी बातों को जानने की कोशिश करते क्‍यों कि वह ऐसा दीन चाहते थे जिसमें हर धर्म की अच्‍छी बातें हों।दीने इलाही इसी का परिणाम है। शाज़ी  यह भी बताते हैं कि अकबर अधिक पढे लिखे नहीं थे और संभवत: डिस्‍लेक्सिया के शिकार थे, लेकिन वह रोज किसी न किसी किताब से खासतौर से अपने पूर्वजों के बारे में लिखी गई किताबों को सुना करते थे। इसके लिए खास लोग नौकरी पर रखे गए थे। यह उनकी ज्ञान पिपासा का प्रमाण है और इससे वह अपनी समझ को बढ़ाया करते थे।
अकबर के बारे में इसमें लिखा गया है कि वह हवन करते थे और सूर्य की पूजा करते थे। सूर्य की पूजा करते एक चित्र भी किताब के अंत में है। वह ईसाई पादरियों से भी उनके धर्म के बारे में जानना चा‍हते थे और उनकी कुछ बातेां को पसंद भी करते थे। उन्‍होंने मांसाहार भी छोड़ दिया था जो उनके मन में दूसरे धर्म के सम्‍मान और जीवों के प्रति दया को दर्शाते हैं। उनकी दूसरे धर्म के प्रति बढ़ती रुझान और उन्‍हें महत्‍व देने से  कुछ मौलाना उनसे नाराज भी हो गए थे और  मुल्‍ला अब्‍दुल कादिर बदायूंनी ने गुप्‍त रूप से उनकी इस सब बातों के बारे में लिखा। उनकी किताब के अंश भी शाज़ी ने उद्धृत किए हैं। ईसाई पादरियों ने अकबर की इसी रुझान को देखते हुए उन्‍हें अंतिम समय तक ईसाई बनाने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए। अकबर के देहांत के समय उनका साम्राज्‍य हिंदूकुश से गोदावरी और बंगाल तक फैला था।लेकिन समुद्र  पर पुर्तगालियों का राज था और वे अकबर के लोगों से भी कर वसूल लेते थे और जहाजों को रोक लेते थे। यह बात अकबर को खलती थी, लेकिन मजबूर थे।
अकबर के दरबार के रत्‍नों के बारे में भी इसमें काफी जानकारी है। अबुल फजल के अकबरनामा को तो इसका आधार ही बनाया गया है, इसलिए उनकी चर्चा काफी है। इसी तरह बीरबल, तानसेन और फैजी आदि के बारे में भी काफी कुछ बताया गया है। कहीं कहीं तो ये लोग ही उपन्‍यास के मुख्‍य पात्र बन गए हैं।अकबर इन्‍हें कितना चाहते थे, यह इससे पता चलता है कि दरबार के कई लोग इनके खिलाफ भड़काते भी रहते थे लेकिन अकबर ऐसी बातों को महत्‍व नहीं देते। कुंभनदास और बीरबल के बारे में सुनी और पढ़ी गई कुछ घटनाएं भी इसमें दी गई हैं।
उपन्‍यास में उस समय के वस्‍त्रों,उनके रंग और सजावट,पहनने के तरीके आदि के साथ अकबर के डीलडौल के बारे में भी बताया गया है।वह सिर के बाल मुंड़ा देते थे, दाढ़ी नहीं रखते थे लेकिन मूंछें थीं, उनकी आवाज बुलंद थीं। वह कैसा पायजामा और जामा पहनते थे। उन्‍होंने हिंदुओं और मुसलमानों के लिए जामा बांधने का तरीका तय कर दिया था और हुमायूं के पायाजामें में फंस कर गिरने और उसी के कारण मौत होने के बाद पायजामे की लंबाई कम कर दी गई थी।अकबर को शिकार का बहुत शौक था और महीनों तक वह शिकार के लिए घेरा डाले रहते थे।उपन्‍यास की शुरुआत ही शिकार के लिए डाले गए कमरगह (घेरा) से होती है और इसी के सहारे कहानी काफी आधा रास्‍ता तय करती है।  एक बात इससे यह भी पता चलती थी कि उस समय भी आगरा दिल्‍ली का पानी अच्‍छा नहीं था। अकबर को कई बार पेचिश पड़ी और उनका देहांतभी इसी कारण से हुआ। आखिरी पेचिश किसी भी दवा से ठीक नहीं हुई।
उपन्‍यास में अकबर द्वारा लड़ी गई लड़ाइयों,राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, उनके साहस की घटनाएं आदि विस्‍तार से लिखी गई हैं। यहां भी अकबर का एक अलग रूप देखने को मिलता है। उनकी अन्‍य शासकों से टकराव,युद्ध और उसके  नतीजों के साथ उनके पिता हुमायूं के साथ जुड़ी घटनाएं भी हैं। उपन्‍यास में कहीं कहीं वर्णन में अति विस्‍तार दिखता है जो इसे थोड़ा बोझिल भी बनाता है। ऐसा वहां है जहां कि किसी किताब के अंश या किसी शासक के लिखे पत्र या निर्देश को उद्धृत किया गया है। ऐसे वर्णन में कथा के प्रवाह में बाधक बनते लगते हैं।
अकबर को जानने समझने के लिए इससे बेहतर किताब और कोई नहीं हो सकती। एक ही साल के अंदर इसका दूसरा संस्‍करण आना भी इसकी तस्‍दीक करता है। एक बात समझ में नहीं आई कवर पेज पर अकबर या उनसे जुड़ा कोई चित्र देने की जगह बारह राशियों का चित्र देने के पीछे क्‍या सोच हो सकती है। अकबर ज्‍योतिष में यकीन रखते थे और समय-समय पर शगुन और मुहूर्त भी दिखाते थे। कुंडली दिखाने की चर्चा इसमें कई जगह आई है। इससे यह भी प्रतीत होता है उनके काल में भी ज्‍योतिष का प्रचार प्रसार व्‍यापक था।

रामधनी ि‍द्विवेदी 

Sunday, 22 January 2017

जीवन मे जो मिले

एक मालिक ऐसे भी

(स्‍नेह के सागर बाबू भूलन सिंह)  

मैंने पांच अखबारों में काम किया। सबसे लंबा कार्यकाल इलाहाबाद अमृत प्रभात में और सबसे कम अमर उजाला,लखनऊ में रहा। अमृत प्रभात में लगभग 22 साल, अमर उजाला में एक साल। इसके बाद दैनिक जागरण में आज यह लिखते हुए 17 साल से अधिक हुए। जनवार्ता और आज दोनों में लगभग ढाई- पौने तीन साल- कुल साढ़े पांच- छह साल। इन सबमें मालिकों से सीधे संपर्क का अवसर मिला, सिर्फ आज को छोड़ कर। सबके साथ के अलग- अलग अनुभव हैं। सबमें अलग अलग तरह के गुण- दोष थे।चू‍ंंकि चर्चा जनवार्ता की चल रही तो आज उनके मालिक बाबू भूलन सिंह की बात होगी।
मेरी उनसे पहली मुलकात पराड़कर भवन में इंटरव्‍यू के समय हुई थी लेकिन तब मैं समझ नहीं सका था कि वह मालिक हैं। धीरे- धीरे उनसे मेरा परिचय हुआ। लंबा,कसा हुआ शरीर,गौर वर्ण, सिंह की तरह चाल थी उनकी, लेकिन चलते समय प्राय: सिर नीचे कर चलते। धोती और खादी सिल्‍क का कुर्ता पहनते। जाड़ों में बंद गले का कुर्ता जिसके बटन प्राय: खुले रहते। वह काशिका में ही बोलते और - जो है सो कि- उनका तकिया कलाम था। उनसे मेरी पहली बातचीत फोन पर हुई और मैं उन्‍हें पहचान नहीं सका था। मैं उन दिनों रिपोर्टिंग में था। शाम का समय था, फोन की घंटी बजी तो मैंने उठाया, दूसरी तरफ से किसी ने पूछा – के बोलत हौ—मैंने पूछा-आप कौन हैं। उन्‍होंने फिर पूछा—के बोलत हौ-। मेरे दोबारा पूछने पर वह समझ गए कि कोई है जो उन्‍हें पहचान नहीं रहा है। फिर उन्‍होंने पूछा—राजू हउवन – मैंने फोन बगल में बैठे वंशीधर राजू को पकड़ा दिया – कोई आपको पूछ रहा है। उन्‍होंने बाबू साहब से बात की और बताया कि नए साथी रामधनी द्विवेदी हैं। फोन रखने के बाद राजू ने मुझे समझाया—बाबू भूलन सिंह थे, वह जनवार्ता के मालिक हैं। जब फोन पर कोई पूछे – के बोलत हौ तो समझ जाओ कि  बाबू साहब हैं। थोड़ी देर में बाबू साहब खुद कहीं से टहलते हुए आए, साथ में कागज के ठोंगे में खूब लाई चना –एकदम गरम, ताजा भुना हुआ। बाबू साहब सीधे रिपार्टिंग में आए, मेज पर लाई चना रखा, एक मुठ्ठी लिया और एक दृष्टि मुझ पर डाली और किंचित स्मिति के साथ कहा- खात जा। जब वह चले गए तो राजू ने कहा- यही बाबू साहब हैं। किसी मालिक से इस तरह परिचय फिर कभी नहीं हुआ।
बाबू साहब की यह दिनचर्या थी कि दिन में एक बार आफिस आते,थोड़ी देर रुकते, ईश्‍वरदेवजी से बात करते, फिर विश्‍वेश्‍वरगंज ( बनारस में बिसेसरगंज) अपने सहकारी समिति के दफ्तर चले जाते।नदेसर स्थित घर से अपनी नई एंबेसडर कार से आते, कार काशीपुर के संसार प्रेस के अहाते में, जिसमें ही जनवार्ता का दफ्तर था, खड़ी़ी करते और वहांसे बिसेसरगंज पैदल जाते।वहांसे पैदल ही आते और तीसरे पहर घर चले जाते। वहां से शाम को दशाश्‍मेध घाट पर टहलने चले जाते और लौटते समय फिर दफ्तर आते और थोड़ी देर रुक कर घर चले जाते । साथ में कभी उनकी पत्‍नी होतीं तो सीधे घर चले जाते।अकेले रहते तो लौौटते समय दफ्तर जरूर आते। शाम को कभी वह खाली हाथ आए हों,ऐसा नहीं देखा। कुछ न कुछ खाने को जरूर लाते नही कुुछ तो एक दर्जन केला या कोई फल ही ले लिया। कहते- खूब खाया कीजिए, तभी तो आप लोग काम कर पाएंगे। सुबह से आते हैं,भूख लग जाती होगी। सचमुच में गार्जियन भूमिका निभाते।
एक बार मुझे बुखार आ गया। जो एक बार उतर कर फिर दोबारा आ गया और मैं दस पंद्रह दिन आफिस नहीं आ पाया।जब तबीयत ठीक हुई तो मैं दफ्तर जाने लगा। मई का महीना था और लू चलने लगी थी। मुझे दफ्तर में न देख बाबू साहब ने पूछा तो पता चला कि मैं बीमार हूं। तब मुझे 125 रुपये वेतन मिलता था और मैं अपनी ससुराल में ही रहता था। पैसे इतने कम मिलते कि अकेले रहने की सोच भी नहीं सकता था। छुट्टी का पैसा भी कट जाता। -- तो मैं बुखार से उठा ही था और दोपहर को आफिस जा रहा था। मैं उन दिनों रिपोर्टिंग में ही था। घासीटोला में मेरी ससुराल थी। वहां से कबीरचौरा शिवप्रसाद गुप्‍त जिला अस्‍पताल जाता।वहां कई तरह की खबरें मिलतीं क्‍यों कि आसपास के जिलों के डाका, दुर्घटना या फौजदारी में घायल लोग इलाज के लिए उसी अस्‍पताल में आते और हमें कई खबरें वहीं से मिल जातीं। आसपास के जिलों का वही एक बड़ा अस्‍पताल था। मैं पैदल ही अस्‍पत्‍ााल जा रहा था। मैदागिनि पर बाबू साहब मिल गए, वह बिसेसरगंज जा रहे थे। मैंने नमस्‍ते की तो रुक गए। पूछे –आफिस जात हउआ। मैंने कहा- हां बाबू साहब। तूं त बीमार रहला। हां, मैने कहा। बाबू साहब ने जरा नाराजगी दिखाते हुए कहा- न चश्‍मा लगउले हउआ, न सिर पर तौलिया हव, फिर त‍बीयत खराब हो जाई तब कइसे काम होई। एतनी गर्मी पड़त हव। मैने कहा- का करीं बाबू साहब, मुंशी जी तनखइहे सब काट लेहन। वह एकदम चुप हो गए और थोड़ा रुक कर लौट पडे,यह कहते हुए- चला हमरे साथे। मैं उनके साथ दफ्तर पहुंचा।वह सीधे मुंशीजी ( अकाउंटेंट)के दफ्तर में गए और गुस्‍से में उनसे पूछे- मुंशी जी, द्विवेदी जी क तनखाह काहे के कटला। मुंशी जी सकपका गए, सोचे द्विवेदी जी ने शिकायत कर दी है। शिकायत तो की थी लेकिन यह दूसरी तरह की शिकायत थी। मुंशी जी बोले- दस दिन ई आफिस नाहीं अइना तो हम तनखाह काट लिहे। बाबू साहब तमतमा गए- बीमार आदमी आफिसे कैसे आई। ई सब अखबार क जान हउवन, तनखाह काट लेब त कइसे रहिअन। हमरे खाते से सौ रूपया द इनके। मुंशी जी ने तुरत सौ रूपये का नोट मुझे थमाया। बाबू साहब बोले – हम यहीं बैठल हई। जा , गोला से एक एक किलो काजू, बादाम, किशमिश और मुनक्‍का लेइ आवा और हमें देखावा। वह सोच रहे थे, कही ये पैसा पा कर उसको अन्‍यत्र न खर्च कर दें। मैंने पैसे लिए,सीधे गोला गया जो बनारस क्‍या आसपास के जिलों की मसाले-मेवे की सबसे बड़ी थोक बाजार थी और आज भी है। ये चारों चीजें लेने के बाद भी कुछ रुपये बच गए। मैंने सब सामान बाबू साहब को दिखाया। वह बोले- एम्‍मे से एक एक मुठ्ठी रोज सबेरे शाम खायल करा और बीमार नाहीं होवे के हौ। बीमार हो जइबा त काम कइसे होई। उनकी उदारता देख मेरी आंखों में आंसू आ गए।
जाड़ों के दिन थे, घोर शीत लहर चल रही थी। मैं रात की शिफ्ट में था। 11 बजे के आसपास  बाबू साहबका फोन आया।द्विवेदी कइसे काम होत हव। हम त रजाई में हई तउन हाथ पैर गलत हव। तूं सभेन कइसे काम करत हउआ। मैने कहा-बाबू साहब अंगुरी अकड़ जात हव, लेकिन का करीं, कइसौ काम करत हई। बोले- देखा- इंद्रबहादुर हउअन।( इंद्र बहादुर उनके भतीजे थे। जो प्रसार का काम देखते थे और रात में दफ्तर आ जाते।मैने चपरासी से उन्‍हें बुलवाया, तब तक बाबू साहब लाइन पर ही थे। उन्‍होने कहा—देखा, जहां भी दूकान, खुलल हो, हर कमरा के लिए एक एक अंगीठी और लकड़ी क कोइला एक बोरा मंगा ल, हर कमरा में वोके सुलगा द, अउर कल खादी आश्रम से चार कंबल खरीद कर संपादकीय में रखवा द। जे रात में घरे न जाय, ऊ वोके ओढ़ के सोई। इतना ख्‍याल रखते थे, हम लोगों का  बाबू भूलन सिंह। जनवार्ता आर्थिक रूप से कमजोर अखबार था, लेकिन उसके मालिक बाबू भूलन सिंह का दिल बहुत बड़ा था। ऐसे बड़े दिल वाला मालिक मुझे दोबारा नहीं मिला। उसके सामने आज जैसा मजबूत प्रतिद्वंद्वी था जिसकी प्रतिष्‍ठा तो थी ही, वह साधन संपन्‍न भी था। उसकी प्रसार संख्‍या भी जनवार्तासे पांच गुनी अधिक थी। लेकिन अपने साधनों से वह भले ही मजबूत था, लोगों के वेतन भी अधिक थे लेकिन जनवार्ता जैसे मालिक और समर्पित कर्मचारी उसके पास नहीं थे। जनवार्ता आज को टक्‍कर दे रहा था।
एक बार वेतन मिलने में देरी हो रही थी। पैसे की कमी हो गई थी। दो दिन देर होने पर बाबू साहब हम लोगों के पास आए- बोले- भाई, यहि महीना में तनखाह मिलै में जरा देरी हो जाई, कइसौ सभेन काम चला ला। हमार धोती फट गइल हव, हम उहौ नाहीं खरीद पावत हई। और उन्होने  धोती का जो सिरा फेंट में था,उसे खोल कर दिखा दिया जो सचमुच में फटी थी। सब लोगों ने उस महीने में दो तीन किश्‍तों में वेतन लिया।हालांकि ऐसी स्थिति जब तक मैं था, एक ही दो बार आई।

बाबू साहब नाराज भी होते। मैं उन दिनों रिपोर्टिंग में अकेला था। जाड़े का दिन था। जाड़े में हम लोग मेज कुर्सी धूप में निकलवा कर काम करते जो शाम होते ही अंदर चली जाती। एक दिन मै आफिस में आया ही था। मेज कुर्सी निकाल कर काम शुरू ही कर रहा था कि छत के दूसरे छोर पर कुर्सी डाल कर बैठे बाबू साहब ने आवाज देकर मुझे बुलाया। बाबू साहब जब आते तो कुर्सी निकलवा कर वह भी घूप में बैठ जाते। उनके साथ ही ईश्‍वरदेवजी, सिन्‍हा जी आदि भी बैठते।उस दिन मनु शर्मा जी( पत्रकार हेमंत शर्माके पिता प्रख्‍यात साहित्‍यकार हनुमान प्रसाद शर्मा मनु जो बाद में मनु शर्मा नाम से साहित्यिक रचनाएं करनें लगे। वह डीएवी इंटर कॉलेज में हिंदी के शिक्षक थे और जनवार्ता में संकटमोचन नाम से रोज एक  छोटी कविता लिखते)  भी आए थे और वह भी बैठे थे। उनका स्‍नेह भी मुझे प्राप्‍त था। बुलाने पर मैं बाबू साहब के पास गया। उन्‍होंने पूछा –कल जो खबर दिए थे, वह छपी नहीं।(बाबू साहब जब गुस्‍से में होते तो खड़ी बोली बोलते।) उन्‍होंने एक दिन पहले सहकारी समिति की एक खबर दी थी। उसपर किनारे उन्‍होंने लिखा था- द्विवेदी जी देख लें और दस्‍तखत कर दी थी। मैंने उसे देखा और उसमें कोई खबर लायक वस्‍तु न पा कर उसे नहीं छापा।संयोग ही था कि उसे फेंका नहीं था, रख लिया था। जब उन्‍होंने उसके बारेमें पूछा तो मैने थोड़ा झूठ बोलते हुए कहा- बाबू साहब, बचती में हौ।जो खबर छपने से रह जाती उसे बचती ( होल्‍ड ओवर) कहा जाता। छपती कैसे, मैने तो उसे बनाया ही  नहीं था। बाबू साहब गुस्‍से में थ। वह मेरी तरफ देख भी नही रहे थे। बायें हाथ की हथेली में रखी खैनी को रगड़े जा रहे थे और गुस्‍से में बोले भी जा रहे थे—आप लोग अपने मन के  हो गए हैं। इतना सब कुछ अपने मन का छापते हैं और एक खबर हमारी नहीं छपी। भला लोग क्‍या सोचेंगे। जो है सो कि, हम मालिक हैं अखबार के और एक खबर छपवा नहीं पाए। जो है सो कि हमारी क्‍या इज्‍जत रह गई भला – और मुंह फुला कर वह दूसरी तरफ देखने लगे। मुझे भी बुरा लग रहा था। सबके सामने डांट पड़ रही थी। सौ रूपये की नौकरी के लिए यह डांट। मनु शर्मा समझ गए। वह बात खत्‍म करने की गरज से मुझसे बोले – जाओ देखो, कहां खबर रुक गई। मेरी जान बची और मैं मुंह गिराए आकर कुर्सी पर बैठ गया।मुझे बात बहुत लगती है। मै सिर नीचा किए कुछ सोच ही रहा था कि ईश्‍वरदेव जी आ गए। बोले- कौन सी खबर थी। वह भी समझ गए कि इसे बुरा लग रहा है, कहीं काम छोड़कर चला न जाए। मैंने अलग रखी खबरों में से उसे निकाल कर ( उन दिनों बनाई गई खबरों और न बनाई गई खबरोंको अलग- अलग खोंसक( स्‍पाइक- लोहे का सूजे जैसा नुकीला उपकरण जिसके नीचे लो‍हे का ही गोल स्‍टैंड बना होता) में खोंस दिया जाता।) उन्हें दिखाया और कहा – देखिए,क्‍या यह छपने लायक है। वह मुस्‍कराते हुए बोले – अरे भाई- मालिक की खबर में यह सब नहीं देखा जाता। वह अखबार के मालिक हैं। उनके पास पैसा है, हम लोगों के पास बुद्धि है। हम अपनी बुद्धि लगा कर ही तो काम करते हैं तो इसमें भी बुद्धि लगानी चाहिए। सब तो हम अपने मन का छापते हैं, उसमें तो वह  नहीं बोलते। तो एक खबर कभी कभार उनके मन छापने में क्‍या हर्ज है। उन्‍होंने खबर को संपादित किया, हेडिंग लगाई, बाबू साहब का निर्देश काट कर लिखा- जरूरी – इसे लोकल में पहले कॉलम में बीच में अनिवार्य रूपसे लगाएं।एक या दो पैरे की बनी थी। मुझसे कहा- जाइए, फोरमैन से कह दीजिए- इसे ध्‍यान से कंपोज करा कर लगवा दे। और कहा- बाबू साहब की बात का बुरा मत मानिएगा। वह आपको बहुत चाहते हैं। मेरा सारा क्रोध और अपमान बोध खत्‍म हो गया। और उस दिन मैने सरकारी खबरों को लगाने का तरीका सीखा। शाम का लौटते समय बाबू साहब फिर मूंगफली लेकर आए और मेज पर रखते हुए बोले –खात जा। 

Monday, 9 January 2017

पत्रकारिता मे आना --4

जब न्‍यूूज रूम में भीड़ दिखी


यह 18मई 1974  का दिन था।मुझे जनवार्ता में काम करते डेढ़ साल हो चुका था। शुरुआत जनरल डेस्‍क से हुई, थोड़े दिन बाद रिपोर्टिंग में कम  करने  के  बाद फिर जनरल डेस्‍क  पर आ गया था। मैं  आमतौर पर  महेंद्र नाथ वर्मा जी की शिफ्टमें  काम करता था।वह जब छुट्टी पर होते तो मुझे ही शिफ्ट दी जाती। साथ में त्रिलाचन शास्‍त्री जी होतेे और कभी कभी वशिष्‍ठ मुनि ओझा भी। कभी कभी ऐसा भी होता कि अकेले ही काम  करना होता। एक शिफ्ट में कुल्‍ाा मिलाकरa  दो या तीन ही लोग होते।तो उस दिन मैं दिन की शिफ्ट में था। सुबहसाढ़े दस बजे से शाम साढ़े चार बजे तक शिफ्ट  होती। इसमें दिन  की देश विदेश की खबरें बनाई जातीं और गोरखपुर संस्‍करण छापने की तैयारी  की जातीे जो छह बजे तक तैयार हो जाता और आठ बजे तक छप जाता।गोरखपुर में जनवार्ता की कापियां जातीं। इन्‍हें आठ बजे के आसपास  ट्रेन से भेजा जाता।
शाम चार बजे के बाद यूएनआई की मशीन जंप करने लगी--तेज खटर-पटर देख कर मैंने उसे देखा तो पोखरण में परमाणुु परीक्षण की खबर फ्लैैश  हो  रही थी। मैंने थोड़ी देर  तक खबर देखा। अति महत्‍वपूर्ण खबरें तब एक एक लाइन आतीं। संचार के आज जैसे तेज साधन नहीं  थे कि दुनिया के किेसी कोने में हुई घटना कुछ ही मिनट में  पूूरी दुनिया में फैल जाती है। मैं शायद उस दिन की लीड तैयार कर प्रेस में भेज चुका था। प्रेस नीचे के तहखाने जैसी जगह में था। मैंने फोरमैन तुलसी बाबा को लीड बदलने की बात कही और तबतक जितनी खबर आ चुकी थी,उसे बनाया, 4पााइका (आज का 48 प्‍वााइंट) चार  कॉॉलम की हेडिंग लगाई और चार पांच पैरे की खबर बना कर लीड बदलने के बाद पेज पर लगाया और गोरखपुुर संस्‍करण छोड़ कर, छपने  के लिए कह कर कमरे पर चला आया।
मैं उन दिनों प्रेस के पास ही,लगभग आधा किलोमीटर दूर बड़ा गणेश मुहल्‍ले में एक कमरे में अकेेले रहता था।वह मकान मिर्जापुर के एक पंडित जी का था जिसमें कई कमरे थेे और हर कमरे में  दो एक पढ़ने वाले लड़के रहते थे जो किसी कालेज में पढ़ते और खाना खुद बनाते।मैं भी अकेला ही रहता,खाना ख्‍ुाद ही बनाता।घर आकर मैंने रोटी सब्‍जी बनाई,भूख लगी थी,खाने बैठ गया। आधा खाना ही खा पाया था कि आफिस का चपरासी मोहन आ गया। दरवाजे पर उसे देख मैं आश्‍चर्य में पड़ गया। मैंनेे पूछा-कैसे,उसने मेरी बात  पूरी होने के पहले ही  कह दिया--संपादक जी बोलावत  हउंंवन । मैने सोचा कुुछ गलती हो गई क्‍या जो तत्‍काल संपादक जी--ईश्‍वरदेव मिश्रजी बुला रहे हैंं।उसने मेरी दुविधा दूर करते हुुए-स्‍पष्‍ट कर दिया--दफ्तर में बहुुत भीड़ लगल हव,प्रदीप जी,संपादक जी और बहुत जने बाहरी जुटल हउंवन।जल्‍दी से खा ल अउर चला।मैंने कहा- तैं चल, हम तुुरंत आवत हई।(यह एक सुखद बात है कि हम लोग दफ्तर  में काशिका ( भोजपुरी की काशी आैैर  आसपास बोली  जाने वाली बोली )में ही बात करते। अवधी में बेालने वालेे प्रदीप जी ही थे जो अपनी मीठी अवधी से रह रह कर रस घोलते रहते।
मैंने जल्‍दी जल्‍दी खाना खत्‍म किया और डरते - डरते आफिस पहुंचा।वहां भीड़ लगी थी। लोग टेलीप्रिंटर वाले कमरे में जमा थे और वह खबर पर खबर उगले जा रहा था। मुझे देखते ही संपादक जी नेे पूूछा-- क्‍या भाई, इतनी बड़ी खबर हो गई और आपने बताया भी नहीं। भारत ने परमाणु परीक्षण कर लिया है।वह भी प्राय: अपनी  बलिया की ही बोली  बोलते लेकिन जब औपचारिक हो जाते तो खड़ी बोली में बोलते। मैने कहा- 4पाइका में चार कॉलम लीड तो बना दिया था। जितनी खबर तब तक आई थी, मैने बना दी थ्‍ाी। वह मेरे जवाब पर झुंझलाए नहीं,वह जान गए कि यह खबर की गंभीरता नहीं  समझ पाया है। वह बोले,अरे भाई,यह बहुुत बड़ी खबर है।भारत परमाणु ताकत हो गया हैै। आपको यह खबर मुझे तो कम से कम बतानी चाहिए थी। यह लीड और 4पाइका से आगे की खबर हैै - उस दिन मैनें पहली बार लकड़ी पाइका में हेडिंग लगती देखी।यह 120प्‍वाइंट से ऊपर का फांट होता है और कभी कभार ही अखबारों  में इस्‍तेमाल होता है।मैंने जनवार्ता के कार्यकाल में दो बार इसको लगते देखा-पहली बार पोखरण विस्‍फोट में और दूसरी बार उसी साल अरब इजरायल के युुद्ध विराम में।
पहली बार में न्‍यूज रूम की वैसी हलचल देखी थी। ख्‍ुाद संपादक जी,प्रदीप जी आदि खबर बना रहे थे। रात की नावड़ जी की शिफ्ट तो लगी ही थी।रात 12 बजे तक सभी लोग जुटे थेे। प्रदीप जी ने संपादकीय भी उसी समय लिखा।  खबरों का आधार एक मात्र यूूएनआई की मशीन ही थी। मैं भी खबर अनुवाद करने में जुटा रहा।वहीं खाना मंगाया गया, सबने एक साथ खाना खाया और जब छपाई शुरू हो गई तो एक- एक अखबार लेकर हम लोग घर गए।संपादकजी भी मेरे कमरे के आगे दारानगर में   रहते थे।  रात मैदागिनी चौराहे पर पान खाने के बाद  लोग अपने अपने घर गए। इस तरह काम करने का यह पहला मौका था। बाद में तो दूसरे अखबारों में ऐसी स्थिति में  काम करने केे कई मौके आए। यह भी समझ में आया कि ऐसी खबरों को  शेयर करने से उसमें वैल्यू्
एड करने को भी मिल जाता है।
दरअसल इतनी बड़ी खबर को मैं सचमुच उस समय नहीं समझ पाया था।मैने बस यही समझा कि बड़ी घटना हो गई हैै। इसे लीड बनना चाहिए और मैने वैसा किया भी। तब खबर को बेहतर बनाने के लिए आज जैैसे इंटरनेट के साधन नही थे।हम अपनी निजी जानकारी या एजेंसी से मिली सूचना और जानकारी को ही दे पाते थे।इससे लगभग सभी अखबारोंमें एक जैसी खबरें ही छपतीं।वैल्‍यू एड या इंफो आदि देने की बात ही नहीं सोची जा सकती थी।
वास्‍तव में मैं पहले जब भी अकेला होता था,खासतौर से रात की शिफ्ट में तो मैं संपादक जी से बात कर ही लीड आदि तय करता।दिन की शिफ्ट में महत्‍वपूर्ण खबरें कम ही आतीं थीं,इसलिए इसकी नौबत कम ही आती थी। रात की शिफ्ट में मैं रात पौने नौ बजे कीी आकाशवाणी की न्‍यूज बुलेटिन सुनने के बाद खबरों पर संपादकजी सेे राय लेता और लीड आदि तय करता।प्राय: एक दिन मैं रोज की तरह फोन पर ईश्‍वरदेव जी से बात कर रहा था कि कहीं से घूमते हुुए प्रदीप जी आ गए। जब मैंनेे फोन रखा तो उन्‍होंने पूछा कि किससे बात कर रहे थेे । मैने कहा-ईश्‍वरदेव जी से। क्‍यों? खबरों पर डिस्कस कर रहा था। प्रदीप जी ने एक गुरुमंत्र दिया--पूछ कर अखबार निकालोगे तो जिंदगी भर पूूछकर ही लीड तय करते रहोगे,खुुद, फैसला करो।गलत ही होगा न। दूसरी बार गलती नहीं करोगे। दूसरी बात पेज पर जो  भी खबरें डबल कॉलम होती हैं,उन्‍हीं में से जब सबसे अच्‍छी हो उसे ही लीड बना सकते हो, दूूसरे दिन मैंने बिना ईश्‍वरदेव जी से बात किए ही अखबार निकाला। वह भी बात करना भूल गए। दूसरे दिन दफ्तर आने पर उन्‍होंने कहा--कल फोन नहीं किया लेकिन अखबार ठीक निकाला। मेरी आत्‍मविश्‍वास बढ़ गया। मैं जब निर्णय न ले पाता,तभी उनसे बात करता। खुद फैसला लेेनेे में कई बार गलतियां भी हईं और दोयम दर्जे की खबरें महत्‍व पा गईं, लेकिन बिना गलती किए कोई सीख भी तो नहीं पाएगा।




Sunday, 18 December 2016

हाइ गायज -- कृष्‍णा कालिंंग (ट्रैैवलॉग अाॅॅफ ए टीनेजर -पृथ्‍वी टू पृथ्‍वी वाया स्‍वर्ग)



दैनिक जागरण  यूपी के स्‍टेट हेेड  मेरे अनुज जैसे आशुतोष शुक्‍ल की एक पुस्‍तक अभी-अभी प्रकाशित हुुई
है। उन्‍होंने एक प्रति मुझे भेजी। मैने, इसेे पढ़ तो उसी दिन लिया था जिस दिन यह मुझेे मिली।लगभग एक महीने बाद आज इसपर कुछ लिखा, जो आपके सामने हैै। मेरी सम्‍मति है कि यह पुस्‍तक हर किशोर को पढ़नी चाहिए।
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हाइ गायज 

कृष्‍णा  कालिंंग 
(ट्रैैवलॉग अाॅॅफ ए टीनेजर -पृथ्‍वी टू पृथ्‍वी वाया स्‍वर्ग) 

बच्‍चों को कहानियां  बहुत अच्‍छी लगती हैं। वे,  उन्‍हें  स्‍वप्‍नलोक  में ले जाती हैं ,उनमें जिज्ञासा और कौतुहल पैदा करती हैं।कहानी सुनते समय वे उनमें खो  जाते हैं  और तरह तरह  के सवाल भी करते हैंं। जो कहानी उन्हें अच्‍छी  और तार्किक लगतीहै,उनकी जिज्ञासा  को शांत करती हैे,वह उन्‍हें  न केवल काफी दिनों तक याद रहती  है बल्कि उनके अचेतन मन को  भी प्रभावित  करती है और जाने -अनजाने वे उसके  संदेश  को भी ग्रहण कर लेते हैं। यह संदेश कभी-कभी उनपर स्‍थायी प्रभाव भी डालता है। कभी जब विष्‍णु शर्मा ने पंचतंंत्र की कहानियां  किसी राजा के शैैतान पुत्रों को सुनाकर उन्‍ह‍ें नीतिज्ञ बनाने का सार्थक प्रयास किया था, तो निश्चित ही उनके मन में कहानियों  की ताकत का अहसास  रहा होगा।पंंचतंत्र और हितोपदेश  की कहानियां आज भी शाश्‍वत हैं और उनका संदेेश  आज भी किशोर  मन पर उतना ही प्रभाव डालता हैं। आशुतोष शुक्‍ल ने जब हाइ गायज-- कृष्‍णा  कॉलिंग--(ट्रैैवलॉग अाॅॅफ ए टीनेजर -पृथ्‍वी टू पृथ्‍वी वाया स्‍वर्ग)  लिखने की सोची होगी  तो निश्‍चय ही उनके मन में कहानी की इसी  सार्वकालिक ताकत का अंदाज रहा होगा। वह इसे लिखते भी हैं अपने  पहले पाठक अपने पुत्र के  लिए -- उसे उन संस्‍कारों से पूर्ण करने  के लिए जिसे वह समाज के हर किशोर में देखना चाहते हैं और इसी से वह अपने युवा मित्र की असमय हुई मौत के सहारे कहानी का शिल्‍प रचते हैं।
राहुल नामक किशोर की दुर्घटना में मृत्‍युु होती है, उसमें भी वही सब कमियां हैं जो आजकल के अनियंत्रित  किशोरों  में होती  हैं। उसकी मुलाकात  स्‍वर्ग में यमराज  के दूूतों से होती है। जब उसे पता चलता है कि उसकी मृत्‍युु हो गई है और वह अपनी मां के पास नहीं  जा पाएगा तो वह यम के दूतों से मां  के पास भेजने का अनुनय विनय करता हैं, अच्‍छा आदमी बनने  का वादा करता है और बहुत आग्रह के बाद कृष्‍ण उसे पृथ्‍वी पर वापस भेजने का निर्णय करते  हैं,लेकिन इसके पहले वे स्‍वर्ग में उसे उन लोगों से मिलाते हैं जो अच्‍छे लोगों की आत्‍माएं हैं लेकिन पृथ्‍वी की सामााजिक विषमताओं  की शिकार होकर यहां पहुंचीी हैं।इन आत्‍माओं के माध्‍यम से राहुुुुल को पृथ्‍वी की समस्‍याओं और विसंगतियों से अवगत कराया  जाता हैै, इनमें क्‍या सही हैै और क्‍या गलत,इसका अंतर बताया जाता हैै  और अच्‍छे मानव और अच्‍छे समाज  में क्‍या होना चाहिए,यह बताया  जाता हैै।यह पाठ पढने के पहले राहुल की कृष्‍ण से काफी रोचक बहस भी होती है। दुर्घटना के बाद राहुल का शव जब तक अस्‍पताल में रहता है,तब तक उसका पाठ चलता है,इधर डाक्‍टर और परिजन उसके बचने की आशा छोड़ चुके हैं, लेकिन कृष्‍ण राहुल की आत्‍मा को पृथ्‍वी पर भेज देते हैं। उसके मृत शरीर में अचानक स्‍पंदन होता हैै और वह जी उठता हैै।
लोग इसे चमत्‍कार मानते हैं। राहुुल जी उठता हैै लेकिन स्‍वर्ग की बातें उसे याद रहती है। वह आगे चलकर एक अच्‍छा,नेक और परोपकारी डाक्‍टर बनता हैै अौर जो सीख उसे स्‍वर्ग से मिलती हैै,उसी के आधार पर अपने जीवन का निर्माण करता हैै।
बस इतनी सी कथावस्‍तुु हैै,इस पुस्‍तक में,लेकिन उसेे जिस रोचक तरीके से प्रस्‍तुत किया गया है,वह  इसे पढ़ने के लिए अंत तक जिज्ञासा बनी रहती है। इसे,  हर अध्‍याय में उसकी सामग्री के अनुसार रेखाचित्रों से सजाया गया हैै।लगभग सौ पेज की यह पुस्‍तक यदि एक बार आप पढ़ना शुरू करेंगे  तो बीच में नहीं छोड़ सकते हैं,यह मेरा दावा है।पुस्‍तक की छपाई अच्‍छी है, कहीं प्रूफ की गलती नहीं है। पहले अध्‍याय केे आखिरी वाक्‍य पर पुन: विचार करना होगा और संभव हो तो अगले संस्‍करण में इसे सुधारा जाना चाहिए।--इसमें कृष्‍ण ही सत्‍यकेतु से कहते हैं-- राहुुुुल  को कृष्‍ण के पास ले जाओ।





Wednesday, 26 October 2016

पत्रकारिता में आना -- भाग 3

जनवार्ता मेंं रिपोर्टिंंग में  मुझे कई तरह के अनुभव हुुए  और काम करने की काफी छूट थी। कभी-कभी अकेले पूरा काम देखना पड़ता। हरिवंश जी मस्तमौला आदमी थे। वह जब गांव जाते चार दिन की छुट्टी लेकर तो एक महीने के पहले नहीं अाते। ऐसे में मुझे अकेले पूरी रिपोर्टिग करनी होती। इसमें थेाड़ी मेहनत तो अधिक करनी होती ,लेकिन काम का मजा अााता। उन दिनों  लोकल का एक पेज ही होता। आज आठ पेज का  और जनवार्ता छह पेज का अखबार था। वह लोकल को डेढ़ पेज देता। इस तरह कभी कभी पूरा आठ कालम खुद ही लिखना पड़ता। वंशीधर राजू सांध्‍यकालीन अखबारों से कुुछ अपराध समाचारों की नकल करने में ही मदद कर पाते।

हरिवंश जी ने मुझे रिपोर्टिंग के कई गुर बताए। खबर में क्‍या- क्‍या पता लगाना चाहिए, इंट्रो  में क्‍या और कैसे लिखा जाना चाहिए। इसकेे पहले मैं जनरल डेेस्‍क पर था, जहां   टेलीप्रिंटर  से अंग्रेजी में आई खबरोंं को हिंदी में  लिखा  जाता। बर्मा जी इसमें निष्‍णात थे। वह लीडर,आज,सन्‍मार्ग आदि कई अखबारों मे काम कर चुके थे। यहां भी कईं साल से काम कर रहे  थे। उन्‍होंने अनुवाद करनेे के तरीके,वाक्‍य  विन्‍यास के नियम आदि बताने के साथ ही यह भी बताया कि अंग्रेजी कापी से क्‍या लिया जाए और क्‍या छोड़ा जाए। वह कोई भी खबर लिखने के पहले दो एक बार उसे पढ़ते और पहले उसकी हेेडिंंग्‍ा लिख लेते और फिर खबर  लिखते। खबर लिखते समय कोई न  कोई तथ्‍य वह नीचे से ऊपर ले आते और प्रााय: हेडिंग उसी पर होती। इससे उनकी खबर दूसरे अखबारों  में छपी खबर से अलग हो जाती। अमूमन दूसरे अखबार के उप संपादक ज्‍यों की त्‍यों खबर लिख देते । अपनी खबर को दूसरे अलग बनाने का यह उनका अपना तरीका था।जो भी पत्रकार अपनी खबर को दूसरे से अलग बनाने की कला जानता है,उसकी खबरें भीड़ में अलग दिखती हैं।खैर--।
रिपोर्टिंग में समय अधिक लगता। दोपहर आते समय अस्‍पताल की खबरें देखना, आफिस आकर उन्‍हें लिखना,थानों  से अपडेट लेना,प्रेस कांफ्रेंस सहित  अन्‍य आयोजनों में जाना,आफिस में आई विज्ञप्तियों की छंटाई, जो संपादन लायक होंती,उन्‍हें  संपादित कर प्रेस में  कंपोज होने के लिए भेजना, जो ऐसी न होतीं उन्‍हें रिराइट करना आदि काम करना पडता। रात में फोन से थानों से रिपोर्ट लेना और अंतिम काम डीएम एसएसपी से बात कर किसी राजकीय आदेश आदि की जानकारी लेना आदि होता था। सांस लेने की फुुर्सत नहीं मिलती। लेकिन अपनी टीम में इतना स्‍नेह था कि काम का पता ही नहीं चलता।
थाने से फोन पर खबर लेने और मौके पर जाने से खबर में क्‍या अंतर आ जाता है,इसकी सीख मुझे एक घटना से मिली। जाड़े के दिन थे। हम लोग अपनी टेबल आफिस की छत पर निकाल लेतेअौर जबतक सूरज रहता, वहीं काम करते। एक दिन मैंअस्‍पताल से  अाकर मेज छत पर निकलवा कर खबरें बनाने के बाद विज्ञप्तियों की छंटाई कर रहा था कि प्रधान संंपादक श्री ईश्‍वरचंद्र सिनहा जी मेरे पास आए और कहा --पता हैै चौक में केनारा बैंक में डकैती पड़ गई है। एक व्‍यापारी को गोली मार कर चार लाख रुपये लूूट लिए गए हैं। -- यह जानकारी मेरे एक सूत्र ने दे दी थी। मैने सोचा इतनी बड़ी खबर है तो पुुलिस तो सब बता ही देगी, इसलिए मैंं अपना रुटीन काम निपटा रहा था। मैनेे कहा- जी मुझे भी सूूचना मिली है। इतना सुनते ही वह नाराज हो गए।बोले तुम पत्रकार नहीं  हो , जो ऐसी घटना की जानकारी  होने पर मौके पर न जाए, वह कैसा पत्रकार। मैने कहा-विज्ञप्तियां बना रहा था, सोचा,इन्‍हें खतम कर लूं तो जाऊ्ंंगा। उन्‍होंनेे कहा--तुम मौके पर जाओं , विज्ञप्तियां मैंं  बना देता हूुं। हां, वहां पहले भीड़ में खड़े होकर लोगोंं की बात सुनना, उससे घटना के कई विवरण ऐसे मिलेंगे जो पुुलिस के पास नहीं होंगे। उन्‍हें अपनी खबर मेंं डालोगे तो तुम्‍हारी खबर सबसे अलग बनेगी। मैं घटनास्‍थल  पर पहुंचा और लोगों की बातें सुनने के बाद बैंक में गया। पुलिस पहुुंच चुकी थी। बैंक पहली मंजिल पर था और उसमें जाने के लिए एक पतली सीढ़ी थी। व्‍यापारी बैंक से पैसा निकालकर नीचे उतर रहा था और उसी समय बाहर खड़े बदमाशों ने उसे गोली मार कर पैसे का थैैला लूट लिया और सामने की गली से होते हुुए पैदल ही अंदर दालमंडी की ओर भाग गए। दिन भर घटना की गहमा गहमी रही। उन दिनों चार लाख रुपये बहत बड़ी रकम होती थी। शाम को एसएसपी में चौक थाने में प्रेस कांफ्रेंस की और तब तक कुुछ संदिग्‍ध लोग पकडे जा चुके थे।मैं पूरे दिन इसी एक ही खबर के पीछे लगा रहा। शाम को सिनहा जी ने मुझसे पूरा विवरण पूछा और खुद इंट्रो और हेडिंग लिखने के बाद कहा आगे पूूरी कहानी तुुम लिख दो। लोगों से जो सुुना हैै, उसे चर्चा के अनुसार, कहा जाता हैै आदि  लिखकर पूरी बाात लिख दो। यदि किसी बात का लिंक नहीं मिल रहा है तो उसे ऐसा भी कहा जाता है कि लिखते हुुए लिखो। रात घर लौटते समय मैं कोतवाली थाने होते हुुए गया, जहां पकड़े गए लोगों से पूूछताछ हो रही थी। वहां के थानेदार मेरे परिचित हो गए थे उन्‍होंने घटना  के बारे में कुछ नई जानकारी दी ।जो दूसरे दिन खबर लिखने में काम आई। निश्चित ही दूसरे दिन मेरी खबर किसी से कमजोर नहीं थी,जबकि मैं नया रिपोर्टर था और आज में मंगल जायसवाल जी और राजेंद्र गुप्‍त जी जैसे अनुभवी और पुुुराने पत्रकार थे जिन्हो्नेे यह खबर कवर किए थे।
सिनहाजी  बनारसके बहुत सम्‍मानित  पत्रकार थे।वह कभी आजके मुख्‍य संवाददाताा हुआ करते थे। उनकी कई रिपोर्ट बहुत चर्चित  हुई थी। मुुझेे बताया गया था कि एक बार मुुगलसराय में हुुई एक रेल दुर्घटना की जांच रिपोर्ट  उनकी खबर  के आधार पर लगाई गई थी। बताया गया था कि एक पैसेंजर ट्रेेन के कई लोग मुगलसराय आउटर पर रहस्‍यमय तरीके से मर गए और  बड़ी संख्‍या में लोग घायल हुुए थे।( सही संख्‍या मुझे याद नहीं आ रही है।) ये लोग एक खास  जगह पर ट्रेन से  घायल हुए थे। आसपास दुर्घटना का कोई  काारण नहीं दिख रहा था। सिन्‍हा जी ने खबर  लिखी  कि जहां दुघर्टना हुुई थी उससे जुुड़ी दूसरी लाइन पर एक मालगाड़ी खड़ी थी जिससे सटकर पैसेेजर ट्रेन निकली और जो लोग डब्‍बे  के  गेट से  बाहर लटके या झुुके हुए चल रहे थे, वे इसी  मालगाड़ी से टकराए। दुर्घटना के बाद मालगाड़ी के चालक ने उसे कुछ फुुट अागे  कर  दिया जिससे लोग यह कारण समझ नहीं पाए। सिन्‍हा जी ने लिखा  कि दुुर्घटना का कोई  दूसरा कारण हो  ही नहीं सकता। जब जांच दल ने मालगाड़ी के ड्राइवर से कड़ाई  सेे पूूछताछ की तो उसने अपनी गलती स्‍वीकार कर ली।  एक बार मैं  अकेला रिपोर्टिंग में था और लोकल की कोई  लीड नहीं  मिल पा रही थी। वह मेरे पास  आए और पूछे की आज की मुख्‍य खबर क्‍या है।मैने कहा कि कोई अच्‍छी खबर नहीं हैै जिसे लोकल की लीड बनाया  जा सके। वह वहां से चले गए अौर थोड़ी देर में एक खबर के साथ लौटे जो उस दिन विश्‍वेश्‍वरगंज मंडी में अनाज के  दामों  पर थी। बोले हर रिपोर्टर यदि आंख-कान खुला रखे  तो उसे ऐसी खबरें दिख जाएंगी। उसे ऐसी खबरें अपने रिजर्व स्‍टाक में हमेशा रखनी चाहिए। मैं  कल राशन लेनेे मंडी गया था। वहां गेहूं चावल आदि के  दााम पूछे और उसी पर यह खबर हैै।जाहिर  है अााज के पास वैसी कोई खबर दूसरे  दिन नहीं थी।  (क्रमश:)