यह 25 दिसंबर 2011 को सुबह के नौ बजे थे।जब मैं दिल्ली से पत्नी के साथ गांव पहुंचा तो वह अर्धचेतनावस्था में थी।रजाई ओढ़े वह लेटी थी और मेरे छोटे भाई की पत्नी और मेरी बहन उसे चम्मच से चाय पिला रही थी।माई ( हम सभी भाई बहन और बच्चे भी उसे माई ही बुलाते थे ) जब मैंने उसे पुकारा तो उसकी आंखों में थोड़ी गति हुई और उसने हां कहा।उसका मुंह खुला हुआ था और चाय डालने पर वह जीभ हिलाकर उसे पी जाती,लेकिन आंखें शून्य में देखतीं और लगता था कि वह किसी को पहचान नहीं रही है।जब भी मैं उसे आवाज लगाता उसकी चेतना तो स्पंदित होती लगती ,लेकिन स्मृति साथ नहीं देती लग रही थी।वह पुकारने पर हां तो कहती लेकिन लगता कि यह आवाज किसी अनजान गुफा से निकल रही है। सुशीला ने बताया कि वह कई दिन से मेरा नाम लेकर कहती रहती थी की वह कब आएंगे।सुरेंद्र ने उसकी बीमारी की सूचना दी थी,लेकिन मैंने सोचा हर साल की तरह वह बीमार हुई होगी और कुछ दिनों में ठीक हो जाएगी।साल में दो एक बार उसकी सोराइसिस( एग्ज़ीमा की तरह का चर्मरोग ) उभरता,तेज बुखार आता फिर शरीर भर में दाने निकलते,सफ़ेद पानी जैसा भरता,फिर वही सूख कर पपड़ी बन कर सूखता और शरीर की खाल उतरने लगती और थोड़े दिनों में वह धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगती।हम लोग सालों से ऐसा होते देख रहे थे और इस बात से आश्वस्त थे की हर बार की तरह वह इसबार भी ठीक हो जाएगी।स्वस्थ हो जाने पर उसकी त्वचा सामान्य हो जाती और रोग का कोई निशान नहीं रहता।बस एक आध जगह उसके अवशेष बचे रहते।वह इस बीमारी की चपेट में44-45 साल से थी।मैं उसका बड़ा बेटा होने के कारण शुरू से इस रोग को और उसकी चिकित्सा का गवाह रहा हूं।वह इस रोग से आज़िज आ गई थी और कभी कभी हताशा के क्षणों में वह कहती कि अब जीना नहीं चाहती हूं, लेकिन ठीक होने के बाद फिर हम सबके मोह में डूब जाती।इसबार बीमार होने पर फोन पर सुरेंद्र से बात होने पर बीमारी और उसके इलाज की जानकारी तो मिलती लेकिन इस बार वह बीमारी से पूरी तरह मुक्त हो जायेगी यह अनुमान नहीं था।जब पुल्लो( मेरी बड़ी बेटी दीप्ति ) ने बताया -पापा इस बार आजी बहुत बीमार हैं,आप आ जाइए,तो मुझे भय हुआ कि कहीं हम उससे मिल न पाएं।और वही हुआ।ट्रेन में रिजेर्वेशन में दो एक दिन का समय लगा और जब तक हम पहुचते उसकी चेतना क्षीण होने लगी थी।खबर पाकर चंदू( चन्द्रशेखर ),अन्य बहनें भी आ गईं।अभी तक बिंदू अकेले उसकी देखभाल कर रहीं थी-वही हमेशा मां और बाबू ( पिताजी) की बीमारी पर उनकी देखभाल करती थी,हमसब लोग बाहर होने के कारण नहीं पहुंच पाते। सब मिलकर मां की सेवा में लगे थे।दवा देना, जो भी खा पातीं खिलाना,बिस्तर साफ करना,चारपाई सहित दिन में धूप में लिटाना किया जाता।गांव के लोग देखने आते निराशा व्यक्त करते और चले जाते,लेकिन मुझे लगता कि वह अभी हमारे साथ रहेगी।उर्मिला ( छोटी बहन ) देखने आई और जाते समय कहते गई -भैया, गऊदान करा दीजिए।मुझे अच्छा नहीं लगा,पिता जी से राय ली तो बोले - कोई हर्ज नहीं है।गऊदान का मतलब दान होता है,मृत्यु नहीं।दूसरे दिन हमने एक अच्छी बछिया खरीदी और पंडित जी को बुलाकर गऊदान कराया।मां को होश तो था नहीं।उसके हाथ से बछिया की पूंछ छुआकर सारी प्रक्रिया मैंने पूरी की।अब उसकी चेतना और क्षीण होने लगी थी।इस तरह दो एक दिन बीते। एक जनवरी की तारीख़ थी,सुबह के चार बजे थे,सुशीला ने आकर मुझे और सुरेंद्र को जगाया और बताया कि माई को देखिये,कुछ ठीक नहीं लग रहा है।हम लोग दौड़ते हुए अंदर गए,माई की शरीर ठंडी थी,सांस नहीं चल रही थी,नाड़ी में कोई स्पंदन नहीं था,आंखे मुंदी थीं,मुझे लग गया कि उसकी जीवन यात्रा पूरी हो गई है और वह हम लोगों को बिना बताए नई यात्रा पर चली गई है-यह वस्त्र जीर्ण हो गया था,उसे बदलने चली गई। पिताजी को बुलाया गया,उन्होंने देखा और कहा बिस्तर से उतार कर जमीन पर लिटा दो।मैंने और सुरेंद्र ने उन्हें बाहर लाकर लिटा दिया,उसी समय बूंदाबांदी शुरू हो गई। सुरेंद्र ने रिस्तेदारों और अपने मित्रों को फ़ोन पर सूचना दी।खबर पाकर गांव के लोग भी जुटने लगे और बनारस ले जाने की तैयारी शुरू होने लगी।सुबह मेरे पास फ़ोन आते, नए साल की बधाई के लिए तो मैं मां के न रहने की जानकारी देता। मुझे 62 साल तक पालने पोसने के बाद वह चली गई थी।उसकी अंत्येष्टि की तैयारी हो रही थी और मुझे वह अनेक दृश्यों में, अनेक रूपों में दिख रही थी।कभी मां के रूप में, कभी गुरु के रूप में,कभी सलाहकार के रूप में।अभी पिछले ही साल की बात है,मैं किसी काम से दिल्ली से आया था।जाड़े के दिन थे।दिल्ली में कभी धूप में बैठ कर शरीर में सरसों का तेल लगाकर धूप सेकने का न तो अवसर मिलता और न ही सुविधा।दिल्ली के कम घरों में ही धूप आती है,और जहां आती भी है,उसके लोगों को भागम-भाग में समय ही कहां मिलता है।इसी से अधितकतर लोगों में विटामिन डी की कमी पाई जाती है और लोग जोड़ों के दर्द के मरीज होते हैं । --तो मैं घर के बाहर तख़्त पर बैठा शरीर में तेल लगा रहा था।पास की चारपाई पर बैठी मां देख रही थी।पता नहीं कब वह पास आई और तेल हाथ में लगाकर मेरी पीठ में लगाने लगी।मैंने कहा-अरे ये क्या कर रही हो-उसने कहा-तुम अपने हाथ से पीठ में नहीं लगा पाओगे,इसी से सोचा,मैं लगा दूं।उसके लिए मैं अब भी छोटा बच्चा ही था।मैंने कहा-अब रहने भी दो,पाल-पोस कर इतना बड़ा तो कर दिया,अब मैं बूढ़ा हो रहा हूं, कब तक पालती रहोगी।वह बस स्नेहसिक्त नयनो से मुझे निहारती रही।उसने एक रहस्य की बात बताई -जब तुम पैदा हुए थे,तो गांव के पास पड़ोस के लोग देखने आते तो कहते-यह भी काला होगा। आज वे लोग देखें तो उनकी समझ में आए।मेरे मां सांवले रंग की थीं,जिसे लेकर प्रायः उनकी ननद, मेरी एक मात्र बुआ जी टिप्पणी करती रहतीं और जिन्हें उनके वैधव्य के बाद मां ने ही अपने साथ रखा और जीवनभर सेवा की।लेकिन उनका व्यवहार मां को बीच-बीच में याद आता रहता और हम लोगों से बताती रहती। बूंदाबांदी हो रही है।बांस कटकर आ गया है।लोग टिखटी तैयार कर रहे हैं।महिलाएं मां को नहलाने की तैयारी कर रही हैं----।मैं चार साल से कम का हूं।मां एक दिन पटरी ( लकड़ी की तख्ती) पर कालिख पोत और शीशी से रगड़ कर चमकाने के बाद एक छोटी सीसी में खड़िया घोल कर नरकट की कलम थमा कर मां ने कहा-इसी पटरी पर कलम चलाओ।मुझे मानो कोई निधि मिल गई। मैं कलम दवात और पटरी ले कर घर के बाहर भागा-लिखने के लिए कम, लोगों को दिखाने के लिए ज्यादा कि मैं भी अब लिखने पढ़ने लगा हूं।मैंने पूरी पटरी पर दोनों और खड़िया में कलम डुबो डुबो कर गोंच डाला था और उसे दिखाने के लिए मां के पास गया।मां,म देखो मैंने लिखना सीख लिया। मां ने उस गोंचाये जाल में एक आकृति दिखा कर ख़ुशी में कहा-तुमने तो र लिख लिया।मैंने अपनी उस पहली रचना को देखा-वह केंचुए जैसी कोई आकृति थी,जिसे मैं फिर दोबारा नहीं बना सका।इस तरह मेरे द्वारा लिखा गया पहला अक्षर क नहीं र था।मेरी मां मेरी पहली गुरु भी थी।बाद में मुझे पता चला की इसी पटरी पर कभी मेरे पिताजी ने भी अक्षर ज्ञान पाया था। वह बहुत मजबूत लकड़ी की थी।जब कोई लड़का पढ़ने लायक होता,उसे वही पटरी दी जाती,जब वह अक्षर लिखना सीख लेता तो पटरी फिर दो बड़ी कीलों पर रख दी जाती और कोई सामान रखने के काम आने लगती। ----पंडित जी आ गए हैं।प्रथम पिंडदान की तैयारी कर रहे हैं।मां को शव वस्त्र पहना दिया गया है।पिताजी ने उसकी मांग में सिंदूर भरा,जैसे कभी उससे विवाह के समय भरा होगा।उसके दोनों हाथों में लड्डू रखे गए हैं।शव उठाकर अर्थी पर रखा गया।कई रंग बिरंगे कफ़न ऊपर से डाले गए।मूंज की रस्सी से उसे बांधा गया।दो जीपें आ गई हैं।पिंडदान के बाद राम नाम सत्य है के साथ ही उसे उठाकर बाउंड्री के बाहर खड़ी एक जीप पर ऊपर रखकर फिर बांध दिया जाता है जिससे वह नीचे न गिरने पाए।सब लोग दोनों जीपों में बैठते हैं।राम नाम सत्य है,राम नाम सत्य है--और जीपें भरर्र से चल पड़ती हैं,बूंदाबांदी हो रही है,हवा भी बह रही है,ठंडक भी अच्छी है।हम गांव के बाहर निकल कर बनारस वाली सड़क पर चल पड़ते हैं।मां जिस जीप के ऊपर बंधी है,मैं उसी में बैठा हूं। जीपें आवाज करती चल रही हैं।हवा लग रही है।लगभग सभी के कपडे गीले हैं,ठंड लग रही है।कोई कहता है-मौसम बहुत ख़राब है,एक जनवरी का दिन और बूंदाबांदी----। वह भी जाड़े के दिन थे।मैं इंटर में पढता था।एक मित्र के साथ शाम को कानपुर शहर एक कार्यक्रम में गया था।हम लोग अर्मापुर कानपुर में रहते थे।कपडे हल्के ही पहने थे।हाफ स्वेटर ही मेरे पास था।साइकिल से लौटने में देरी हो गई,रात के आठ बज गए थे।घर पहुंचते पहुंचते ठंड से कांपने लगा।मां मेरा इंतजार ही कर रही थी।मुझे कांपते देख उसने तुरंत कंडी जला कर आग की।उस समय हम लोग एक गाय भी पाले थे,इसलिए जलावन की कोई कमी नहीं थी और ठंड दूर करने का आग ही माध्यम थी।जबतक मैं गर्म होता मां ने खाना भी गर्म कर दिया।गर्म गर्म खाने से जान में जान आई। ----बूंदाबांदी हो रही है।भीगे कपड़ों में लगभग सभी कांप रहे हैं।जो घर से निकल कर सीधे जीप में बैठे, बस उन्हें ही थोड़ी राहत है।--मां तो जीप के ऊपर है,खूब भीग भी रही होगी,ठंड भी लग रही होगी--। एक घंटा चलने के बाद एक बाजार में जीपें रूकती हैं।ड्राइवरों के हाथ ठंड से अकड़ गए हैं।सुरेंद्र उतर कर चाय बनवाते हैं।सबने पी, हम लोगों ने नहीं---। मैं इलाहाबाद में था।अमृत प्रभात में काम कर रहा था।दो बच्चों को पिता।एक दिन ऑफिस जाते समय मेरा दाहिना हाथ कंधे से उखड गया।अस्पताल में जाकर उसे बैठवाना पड़ा और प्लास्टर लग गया।डेढ़ महीने की छुट्टी।तब मोबाइल फोन का जमाना नहीं था,फोन भी कम ही लोगों के पास होते थे,मुहल्ले में किसी एकाध के पास,चिठ्ठी ही संदेश लाने -ले जाने का माध्यम थी।पत्नी ने गांव चिठ्ठी लिखी।सुनते ही, मां चचेरे भाई को लेकर इलाहाबाद पहुंच गईं।मुझे देखते ही आंखें भर आईं,बोली कुछ नहीं,बस मुंहे देखती रहीं,वह मेरी पीड़ा को अनुभव कर रहीं थीं,भाई ने कहा-भैया इन्हें कुछ पिलाइये,जब से कल चिठ्ठी मिली है इन्होंने पानी नहीं पिया है।मेरी तबियत खराब होते ही उसकी भूख खत्म हो जाती थी।मुझे याद नहीं,कभी मेरे खाने के पहले उसने खाना खाया हो।जब बहुत बीमार होने लगी तो मैंने उसे कसम दिला कर समय पर खाने के लिए राजी किया था।तब भी उसकी कोशिश होती की पहले मैं खा लूं। ---जीपें फिर चल पड़ी हैं।हम लोग बनारस पहुंचने वाले है।सुबह के नौ बजने वाले है। मैदागिनि चौराहे के आगे थोड़ी खुली जगह में जीपें रुकती हैं।मां को नीचे उतारा जाता है।हम लोग उसे लेकर मणिकर्णिका घाट की और चलते है।राम नाम सत्य है।सत्य बोलो गत्य है।रास्ते में दो एक शव लेकर जाते और लोग भी मिलते है।राम नाम सत्य है--यह वाक्य उन लोगों से भी सुनाई पड़ता है।शव चाहे जिसका हो,सब लोग यही कहते जाते है।एक आदमी आगे आगे बोलता है,पहला आधा वाक्य,दूसरे लोग दूसरा आधा वाक्य बोलते है।जिस शव के साथ कम लोग होते,दोनों वाक्य एक ही व्यक्ति बोलता । कब से यह बोला जा रहा है,किसे सुनाते हैं लोग,किसे समझाते हैं कि राम नाम सत्य है--शव को या उसके साथ चल रहे लोगों को।क्या किसी को यह चिरातन सत्य समझ में आया--किसी ने इसे समझने की कोशिश की---क्यों लोग अंतिम यात्रा में ही इस सत्य को याद करते है और जीवन भर इसे भूले रहते हैं। श्मशान में या किसी की मृत्यु पर उसके परिजनों को सांत्वना देते समय दुनिया की नश्वरता को ही अंतिम सत्य बताया जाता है,जो हुआ उसे प्रभु की इच्छा माना जाता है,लेकिन वहां से हटते ही लोग सब भूल जाते है और दुनिया के प्रपन्न याद आने लगते हैं। शायद इसे ही श्मशान वैराग्य कहा गया है,दुनिया की नश्वरता की क्षणिक याद। --- बूंदाबांदी जारी है,हम लोग घाट पर पहुंच जाते है। यह भारत का महाश्मशान है--मणिकर्णिका।कहा जाता है कि यहां बाबा विश्वनाथ विचरते हैं।लोग बड़े भाग्य से यहां पहुंचते हैं।बनारस के आसपास के जिलों के लोग अपने परिजनों के शव की यहीं अंत्येष्टि करते हैं। कई चिताएं जल रही हैं,कई सज रही हैं,कई शव अभी अभी पहुंचे हैं,मेरी मां भी उसी में है।लोग शव रख कर इधर उधर खड़े हैं,पिताजी का इंतजार हो रहा हैं।गली में कीचड़ और फिसलन हो जाने से वह अकेले नहीं आ सकते थे,मनोज उन्हें बाइक से लाये।एक टाल वाले से शवदाह की व्यवस्था के लिए बातचीत की जाती है।उसके रेट सही लगते हैं।उससे लकड़ी तौलवाने और जगह देख कर चिता लगाने के लिए कह दिया जाता है।बूंदाबादी अब भी हो रही है। एक चिता अभी अभी बुझी है।उसकी जगह साफ कर वहीं चिता सजाई जाती है।इस बीच अन्य रिश्तेदार भी पहुंच चुके होते हैं।श्रीपतिजी,पारसजी और राजू के साथ ही कुछ और लोग भी।पिताजी बाल बनवा रहे होते हैं।उनकी इच्छा थी कि मैं ही मुखाग्नि दूं, लेकिन मैंने कहा आप मुखाग्नि दे दें,आगे का कर्मठ मैं कर दूंगा। शव चिता पर रखा जा चुका है।दो लोग सहारा दे कर पिताजी को सीढ़ियों से उतारते हैं।डोमराजा से आग लाई जाती है,पिताजी एक बार शव की परिक्रमा कर उसमें आग लगाते हैं।यह उनके हाथ से मां का आखिरी संपर्क है।इसके बाद मां राख में बदल जाएगी।चिता आग पकड़ती है।----बूंदाबांदी हो रही है।पलक झपकते ही,चिता जलने लगती है। लोग इधर उधर बिखर जाते हैं।कुछ थके लोग वही बैठ जाते हैं।मिसिर--- मेरे छोटे जीजा शंभू नाथ मिश्र बाबू को पकड़ कर एक जगह बैठा आते हैं।मैं मां के शरीर को जलते देख रहा हूं।----अब बाहर से आने पर कौन मुझे पानी देगा,कौन मेरे खाने की पसंद,नापसंद और समय का ध्यान रखेगा।---मां मेरी नस - नस को जानती थी।मुझे क्या अच्छा लगता है,क्या नहीं।गांव आने पर दो ही दिन में वह मुझे सब कुछ खिला देने का प्रयास करती।थाली में कोई भी चीज कम होने पर बिगड़ने लगती,मैं नहा चुका हूं, तो खाना तैयार मिलना चाहिए,वह मुझसे नहाने के लिए कहती तो इसका मतलब होता कि खाना बन गया है,गर्म- गर्म खा लूं।अब यह कौन देखेगा।इस बीच चंदू और आनंद भी आ गए। डेढ़ घंटे में ही वह राख में बदल गई।जलाने वाले लड़के ने कहा गंगा जी का अंश दे दें।उसने बांस के दो टुकड़े दिए।सुरेंद्र ने मां का एक अधजला अंश लकड़ी से पकड़ा और गंगाजी में प्रवाहित कर दिया,यही गंगाजी का अंश था,जिसे जलजीव ग्रहण करते हैं। हम लोग सिंधिया घाट पर पहुंचते है।बूंदाबांदी बंद हो गई है।जब मां ने शरीर त्यागा,बूंदाबांदी शुरू हो गई थी,चिता शांत होते ही वह बंद हो गई।गंगास्नान कर सब लोग दूसरे रास्ते से चौक थाने की सड़क पर निकलते हैं।कुछ लोगों ने चाय पीनी चाही।मैं एक दुकान पर रुक कर चाय बनाने के लिए कहा तो मुझे प्यास लगी,तो याद आया कि आज तो सुबह पानी ही नहीं पिया,ब्रश भी नहीं किया था।दिन के एक बज रहे थे।यह मेरे जीवन का पहला दिन था जो मैंने इतने समय तक पानी नहीं पिया और ब्रश नहीं किया।अब यह देखने वाली मेरी मां नहीं थी। चाय पीकर सब लोग मैदागिनि आए, जीपों पर बैठे,कचहरी पहुंच कर एक रेस्तरां में साथ आए लोगों को पूड़ी सब्जी और मिठाई खिलाई गई। सब लोग सुबह से ही साथ थे।किसी ने कुछ खाया पिया नहीं था।यही गांव की परंपरा है।एक का दुख सबका दुख।मुझे याद है,जब मेरे छोटे भाई रामयश का देहांत हुआ था पूरे गांव में शायद ही किसी घर में चूल्हा जला हो।बच्चों ने भले ही कुछ खा लिया हो,बड़े लोगों का तो सवाल ही नहीं था।पुरे गांव में पसरे दुखद सन्नाटे को मैंने अनुभव किया था।सन्नाटा सिर्फ मेरी मां के रोने की आवाज से टूटता था।कभी कभी मुझे लगता कि मां हम चार भाइयों और तीन बहनों में मुझे सबसे अधिक चाहती है,लेकिन वह तो सबको एक ही गहराई से प्यार करती थी।सबका ख्याल रखती।कभी मैंने उसे नई साड़ी पहनते नहीं देखा,किसी बहू को पहनाने के बाद ही पहनती।जो भी साड़ी उसे मिलती किसी न किसी बहन को दे देती।उसके लोहे के बक्से में कभी ताला नहीं लगा।उसके न रहने पर बक्सा खोला गया तो दो साड़ियां और 18 सौ रूपये मिले थे। गांव पहुंचते पहुंचते शाम के चार बज गए थे।घर की औरतें हमारा इंतजार कर रहीं थीं।अब यह घर बिना मां के था।