Sunday, 25 November 2018

वीराने का बादशाह




वीराने का बादशाह  

उस दिन बहुत तेज आंधी आई थी। हम लोग गांव में ऐसी आंधी को लंगड़ी आंधी कहते। पश्चिमी आकाश में अंधेरा सा उठता और हाहाकार करता आंधी-तूफान आता।उसके गुजर जाने के बाद विनाश के अवशेष दिखते, किसी का छप्‍पर उड़ गया होता तो किसी का पेड़ गिर गया होता। अब पता चला कि उस तरह की आंधी राजस्‍थान के रेगिस्‍तान से उठती है और अपने साथ बालू-धूल सहित विनाश भी लाती। प्राय: ऐसी आंधियां शाम के समय आतीं। उस दिन भी शाम को ही आंधी आई थी और उसने हमारे सबसे चहेते आम के पेड़ का जीवन समाप्‍त कर दिया था। गांवों में हर आम के पेड़ का नाम होता था जो प्राय: उसके फल के रंग-आकार या स्‍वाद पर आ‍धारित होता लेकिन हमारे उस पेड़ का नाम का इनमें से किसी से संबंध नहीं था। हम लोग उस आम के पेड़ को सत्‍ती कह कर पुकारते। कहते हैं कि जहां वह अकेले खड़ा था, वहीं गांव की कोई महिला कभी बहुत पहले सती हो गई थी। उसी के नाम पर उसका नाम भी सत्‍ती पड़ा था। यह पता नहीं कि जब वह महिला सती हुई थी यह उसके पहले से था या बाद में इसे लगाया गया। वह गांव के बाहर उत्‍तरी हिस्‍से में था और सैकड़ों बीघे के बीच अकेला था। जैसे घर के इकलौते बेटे की देख भाल होती है,उसी तरह उसकी भी हुई थी और जब हम लोगों ने उसे देखा तो वह अपने चौथेपन में था। गांव में कोई यह बताने वाला नहीं था कि उसकी उम्र कितनी थी।उसके फल मेरे दादा जी ने खाए, मेरे पिता जी ने खाए और अब हम लोग खा रहे थे। उसने हमारी तीन पीढि़यों को तृप्‍त किया था।  उसके पास ही में,लगभग 15-20 फुट की दूरी पर सत्‍ती माई का थान भी था, जहां गांव की महिलाएं बेटे की शादी होने के बाद मौर छुड़ाने या कोई मनौती पूरी होने के बाद पूजा करने आतीं। सत्‍ती माई के थान का कोई स्‍थायी आकार नहीं था, बस कुछ जंगली झाडि़यों के नीचे अनगढ़ पत्‍थर और कुछ ईंटें रखी रहतीं जिन पर सिंदूर लगा होता। ये पत्‍थर ध्‍यान से देखने में किसी मानवाकृति की तरह लगते। सत्‍ती माई किसी का अहित नहीं करतीं,सबका भला ही करतीं, इसलिए हम लोग उनके आसपास तक खेलते रहते।
हां तो मैं उस दिन आई लंगड़ी आंधी की बात कह रहा था। जब आंधी चली गई तो जहां सत्‍ती आम था, वहां का आकाश कुछ खुला सा दिखा और पता चला कि इस बार आंधी का कोप उसी पर हुआ।वह जड़ से उखड़ने के साथ ही आधे पर से फट सा गया था और पूरब की तरफ गिरा पड़ा था। उसके गिरते ही गांव के लोग उसकी ओर दौड़े। चूंकि उस साल आम के फल खूब आए थे,इसलिए अधिकतर लोग जमीन पर गिरे और डालों में लगे आम ही लूटने में लगे। कुछ लोग उसकी डालियां लेकर जाने लगे। कुछ ने अपनी बकरियों के लिए उसके पत्‍ते ही बटोर लिए। गांवों की यह परंपरा है कि आंधी में यदि कोई पेड़ गिर जाए तो वह सामूहिक संपत्ति हो जाता है और सब लोग उसके ले जाए जा सकने वाले भाग पर अपना हक जताने लगते हैं। थोड़ी ही देर में उसका मुख्‍य तना और मोटी डालें ही बचीं। कुछ दिन तक इसी तरह पड़े  रहने के बाद बढ़ई और लकड़ी का धंधा करने वाले बचे हिस्‍से का दाम भी लगाने लगे। जब समझा गया कि इसका दाम अब इससे अधिक नहीं मिलेगा तब उसे पांच सौ में बेच दिया गया। मैं यह 60 के दशक के आखीर की बात कर रहा हूं तब का पांच सौ आज के 50 हजार के आसपास तो होगा ही।
जब लंगड़ी आंधी में सत्‍ती आम गिर गया तो सत्‍ती माई के अस्तित्‍व पर भी संकट आ गया। सत्‍ती आम के आसपास कई लोगों के खेत थे लेकिन चकबंदी होने पर वह हमारे चक में ही आ गया था। उसकी अलग से मालीयत लगी थी। लेकिन जब वह गिर गया तो सत्‍ती माई किसके सहारे रहतीं। दोनों एक दूसरे से ही अस्तित्‍व में थे। सत्‍ती माई ने आम को अपना नाम दिया और आम ने उन्‍हें अपनी छाया और संरक्षण। उसके गिरने और बिक जाने के बाद जब खेत में फसल बोने का मौक आया तो सत्‍ती आम के नीचे की जमीन भी खेत में आ गई और हल चलाते समय सत्‍ती माई को बाधा डालते देख मेरे बड़े पिता ने उनके अनगढ़ आकार वाले पत्‍थरों को एक झौआ में भर कर खेत के डांड़ पर रखते हुए कहा- ल सत्‍ती माई अब इहां बइठा। उनके आसपास के जंगली पौधों को उखाड़ कर फेंक दिया गया। बाद में गांव के ही एक गुप्‍ता ने वहां इंटों का चौरा सा बना दिया। सत्‍ती माई जंगली पौधोंके बीच से निकल कर पक्‍के चौरे में आ गईं और अब भी वहीं स्‍थापित हैं बिना सत्‍ती आम के ।
मुझे तो सत्‍ती आम की कहानी बतानी थी लेकिन बिना सत्‍ती माई की कथा के वह अधूरी ही रहती, इसलिए उनके बारे में यह बताना पड़ा।
जब से मैने होश संभाला और गर्मी की छुट्टियों में गांव जाता तो सत्‍ती आम के आसपास ही हमारी अधिक से अधिक गतिविधियां होतीं। सुबह भैंस चराने अपने पड़ोस के अन्‍य लोगों के साथ जाता तो वही उन्‍हें चरने के लिए छोड़ हम लोग पेड़ के आसपास छुपा छुपाई भी खेलते। सत्‍ती कोई सामान्‍य पेड़ नहीं था। उसके तने को अकवार में लेने के लिए चार लोगों की जरूरत पड़ती।उसकी खुरदुरी छाल हमारे लिए आकर्षण का कारण बनती।हम उसके पीछे ही छिप कर,उसके आसपास चक्‍कर लगाते हुए खेल पूरा कर लेते और फिर पोखरे में भैंसों को नहाने ले जाते। लौटते समय वहां रुकना नहीं होता क्‍येां कि पोखरे से निकलने के बाद भैंसों को दौड़ाते जुए हम लोग घर ले जाते।
सबसे आनंद दायक समय वह होता जिस साल सत्‍ती फलता।वह एक साल छोड़कर फल देता। देशी आमों के साथ ऐसा ही होता है। एक साल फलने के बाद दूसरे साल उसमें या तो फल आते ही नहीं या एक आध डाल में ही आते। लेकिन अगले साल वह सिर से पैर तक फलों से लदता। वह किस प्रजाति का आम था,यह हम लोग नहीं जानते लेकिन आज समझ में आता है वह बनारसी लंगड़े की प्रजाति का था। पता नहीं प्रकृति का हमसे संवाद करने का यह क्‍या तरीका है, मैने यह देखा है कि हर आम के पेड़ का आकार उसके फल के अनुसार ही होता है। जिसका फल लंबी आकृति का होगा,उसका पेड़ भी उसी तरह लंबा होगा,गोल फल वाले आम का पेड़ भी गोल आकृति का होगा। इसी को देखते हुए हमें आज लगता है कि वह लंगड़ा आम था। जब हम लोग अपने घर से देखते तो वह लंगड़े आम जैसी गोल आकृति का ही लगता।आज भी उसका स्‍वाद याद है जो लंगड़े आम की तरह ही लगता। लेकिन आज तो लंगड़ा आम चाकू से काट कर खाया जाता है, हम लोगों ने कभी उसे चाकू से काट कर  नहीं खाया,छिलका पकड़ कर गूदे सहित निकाला और रसदार मीठे गूदे का स्‍वाद लेते। चाकू से आम काट कर खाने की सलीका हम लोग तब तक नहीं सीख पाए थे और न ही उसकी कभी जरूरत पड़ी।    
सत्‍ती आम हमारे दो परिवारों के बीच साझे में था, लेकिन जिस साल वह फलता गांव क्‍या आसपास के गांव जवार के लोग भी उसका स्‍वाद लेने का सौभाग्‍य पाते। घर में काम करने वाले हलवाहे, मां को चूड़ी पहनाने वाली चुडिहारिन चाची ,सब्‍जी लाने वाली कोइरिन चाची जो भी हमारे परिवार से जुड़ा होता वह उसको खाने का लाभ जरूर पाता। कभी-कभी तो चुडि़हारिन चाची कोई सामान देने के बदले पैसा न लेकर मेरी मां या बड़की मां से सत्‍ती आम ही मांगती- बहिन लड़कौ लोग खा लीहैं। उन्‍हें बिना गिने आम दिए जाते। दस-पंद्रह तो होते ही। कोई घर मिलने आता तो उसे बाल्‍टी में भीगे आम खाने को दिए जाते। गरज यह कि सत्‍ती अपने स्‍वाद को दूर-दूर तक बिखेरता। सत्‍ती आम को कभी हमने कच्‍चा नहीं खाया क्‍यों कि उस पर कोई चढ़ नहीं पाया कि उसे कच्‍चा तोड़ा जा सके। कहते हैं कि कच्‍चे का स्‍वाद बहुत खट्टा होता। यह खट्टापन पक कर चूने के बाद भी बना रहता। हम लोग पके आम को कई रूप में खाते। जिस दिन उसे बीन कर घर लाया जाता,उस दिन न खा कर दूसरे या तीसरे दिन खाने से वह और मीठा होता। लेकिन अधिक दिन रखने से उसकी मिठास इतनी बढ़ जाती कि सड़ने लगता। घर के जिस कमरे  में उसे रखा जाता जाता, उसका नाम ही सत्‍ती वाला कमरा पड़ जाता।पूरा कमरा उसकी मिठास से महमह करता रहता।
सबसे अधिक मजा आता उसकी रखवाली करने और बीन कर घर लाने में। जब वह पक कर चूने लगता तो उसकी रात दिन रखवाली करनी होती। मैने उसकी दोनो रखवाली की है। चूंकि वह हमारे दो परिवारों के बीच का था तो दोनों  परिवार के लोग उसकी रखवाली करते।दिन का जिम्‍मा बच्‍चों-बूढ़ों को दिया जाता और रात का बड़ों को। दिन में वह कम गिरता लेने रात मे तो जैसे बाढ़ आ जाती। पता नहीं वह कौन सी वानस्‍पतिक क्रिया होती कि वह रात में अधिक गिरता। गिरते समय वह अधिक पका नहीं होता दो दिन बात पूरा पकता। मैने रात की रखवाली खूब की है। उसके लिए अलग से तैयारी भी करनी होती। एक टार्च दो या तीन सेल वाली, एक लाठी अच्‍छी मजबूत और खाट तथा विस्‍तर तो होता ही। शाम को ही जब दिन की रखवाली करने वाले लौटते तो हम दोनों परिवारों के एक एक लोग सिर पर खाट और बिस्‍तर तथा हाथ में लाठी और टार्च लेकर रखवाली करने निकलते। गांव में रात का खाना जल्‍द ही खानेकी परंपरा है अमेरिका की तरह जो शाम होते ही खाना खाकर हम लोग निकल जाते।
तो तैयार हो कर हम लोग सत्‍ती के पास पहुंचते, खाट उससे दूर खेत मे साफ जगह बिछाई जाती और रात दस बजे तक पूरी तरह सोने के पहले कम से कम दो बार गिरे आम बीन कर दोनों खाटों के बीच में रखा जाता। ऐसा इसलिए कि सत्‍ती का फैलाव इतना अधिक था कि दूसरी ओर यदि कोई आम बीन ले जाए तो हम लोगों को पता ही नहीं चलता और ऐसा रोज होता। रात को चुपके से दूसरे के पेड़से आम बीन लाना भी एक तरह की कला और दुस्‍साहस भी था और इसमें गांव के कई लोग माहिर भी थे। रोज ही किसी न किसी हिस्‍से से आम चुरा लिए जाते।हम लोग रात में कई बार उठकर आम बीनते, टार्च की रौशनी फेंकते, जोर से खांसते जिससे आमचोर जान जाए कि हम जग रहे हैं लेकिन वे फिर भी सफल हो ही जाते। हम लोग इसे बहुत बुरा भी नहीं मानते। आमों पर सबका हक मानते हुए। सुबह होने पर आखीरी बार दिन की रौशनी में आम बीने जाते और उनका बंटवारा आध-आधा होता। आम तौल कर नहीं गिन कर बांटे जाते। पांच आम को एक गाही कहा जाता और इसी तरह पांच पांच आम का कूरा लगता और दोनों लोग अपना हिस्‍सा ले जाते। सत्‍ती 15 दिन तक लगातार पक कर गिरता। इसके बाद उसका गिरना कम हो जाता। जब लगातार दो दिन कम आम मिलते तो रात की रखवाली बंद कर दी जाती लेकिन सुबह तड़के ही पहुंच कर गिरे आम बीने जाते। यह एक हफ्ते चलता और सत्‍ती सबको तृप्‍त कर दो साल की तैयारी करने लगता।
सत्‍ती आम के पास कुछ लिसोढ़े की झाडि़यां भी थीं। रात को उनमें से बिलों से सांप भी निकलते। एक बार तो ऐसा हुआ कि हम लोगों ने तीन दिन लगातार सांप मारे। रात को आम बीनने उठने की हिम्‍मत नहीं हुई। सिर्फ टार्च जलाकर और खांस कर ही रखवाली की गई। हमारी आजी और गांव की बढ़ी बूढि़यों ने कहा कि सत्‍ती माई नाराज हो गईं हैं। आजी मुझे बहुत मानती थीं इसलिए उन्होंने मेरे जाने पर रोक लगा दी। दो दिन बड़े पिता जी गए लेकिन फिर हमने जाना शुरु कर दिया। अब तो जब से सत्‍ती माई खेत के डांड़े पर आ गईं हैं, कभी ऐसा नहीं हुआ कि सांप निकलने की खबर मिली हो। सत्‍ती आम के साथ ही वे सब भी न  जाने कहां बिला गए।
इस बार गर्मी में लंगड़ा आम बाजार में कम आया। दो-तीन किलो खरीदने के बाद भी किसी के हिस्‍से एक से अधिक नहीं आया। यह ऊंट के मुं‍ह में जीरे जैसा था। जिसने सत्‍ती का आम खाया है, उसको कहीं और तृप्‍ति मिल ही नहीं सकती।

Friday, 12 October 2018

पुस्तक चर्चा


अकबर पर खोजी दृष्टि

शाज़ी ज़माँ के उपन्‍यास को पढ़ने के पहले मैं अकबर के बारे में उतना ही जानता था जितना जितना जूनियर हाईस्‍कून की इतिहास की किताबों में लिखे पाठ में पढ़ा था। इसके बाद अकबर के बारे में कुछ अधिक नहीं पढ़ सका। शाज़ी ज़माँ की यह किताब जिसे वह उपन्‍यास कहते हैं लेकिन मैं इतिहास या उसके बहुत निकट मानता हूं,अकबर के बारे में मुझे काफी जानकारी देती है, बहुत कुछ नई जानकारी। शाज़ी चूंकि पत्रकार रहे हैं,इसलिए इस उपन्‍यास में भी उन्‍होंने अपनी पत्रकारिता की खेाजी प्रवृत्ति  कायम रखा और मेरा मानना है कि इसी से यह उपन्‍यास इतिहास के बहुत करीब पहुंच गया। उपन्‍यास में चूंकि कल्‍पना करने की छूट होती है,इसलिए उसे सत्‍य नहीं माना जाता। शाज़ी  ने इसमें कल्‍पना सिर्फ अकबर के समय और उनसे जुड़ी घटनाओं को नए सिलसिले से रखने में किया और उसी के सहारे पूरी किस्‍सागोई की। वह इसे इतिहास मानते भी नहीं लेकिन समकालीन साहित्‍य से जो प्रमाण उन्‍होंने इसमें दिए हैं, वह इतिहास ही तो है। उन्‍होंने इसे लिखने के पहले जितना शोध किया, उतना कोई शोधार्थी भी शायद ही करता हो।
एक कार्यक्रम में कभी शायर जावेद अख्‍तर ने कह दिया था कि अकबर उर्दू नहीं बल्‍कि कुछ फारसी, अवधी,देशी भाषांए और पंजाबी बोलता था तो एक महिला ने इस पर आपत्ति की। जावेद अख्‍तर ने एक दर्जी की किताब के उदाहरण से बताया कि जब अकबर आम लोगों से मिलते तो उन्‍हीं की भाषा में बात करते। उस दर्जी ने(जावेद अख्‍तर ने उसकी किताब का नाम नहीं बताया) ने पहली बार अकबर को एक दूकानदार से बात करते देखा था। अकबर ने थोड़े दिनों लाहौर में भी राजधानी बनाया था। वह समाज के हर वर्गसे मिलते थे और लोगों की तकलीफें सुना करते थे, जाहिर है उनसे बात करते समय उनकी ही भाषा में बात करते होंगे। शाज़ी ज़माँ ने भी लिखा है कि अकबर हर दीन के लोगोंसे मिलते,उनकी बात सुनते,हर दीन की अच्‍छी बातों को जानने की कोशिश करते क्‍यों कि वह ऐसा दीन चाहते थे जिसमें हर धर्म की अच्‍छी बातें हों।दीने इलाही इसी का परिणाम है। शाज़ी  यह भी बताते हैं कि अकबर अधिक पढे लिखे नहीं थे और संभवत: डिस्‍लेक्सिया के शिकार थे, लेकिन वह रोज किसी न किसी किताब से खासतौर से अपने पूर्वजों के बारे में लिखी गई किताबों को सुना करते थे। इसके लिए खास लोग नौकरी पर रखे गए थे। यह उनकी ज्ञान पिपासा का प्रमाण है और इससे वह अपनी समझ को बढ़ाया करते थे।
अकबर के बारे में इसमें लिखा गया है कि वह हवन करते थे और सूर्य की पूजा करते थे। सूर्य की पूजा करते एक चित्र भी किताब के अंत में है। वह ईसाई पादरियों से भी उनके धर्म के बारे में जानना चा‍हते थे और उनकी कुछ बातेां को पसंद भी करते थे। उन्‍होंने मांसाहार भी छोड़ दिया था जो उनके मन में दूसरे धर्म के सम्‍मान और जीवों के प्रति दया को दर्शाते हैं। उनकी दूसरे धर्म के प्रति बढ़ती रुझान और उन्‍हें महत्‍व देने से  कुछ मौलाना उनसे नाराज भी हो गए थे और  मुल्‍ला अब्‍दुल कादिर बदायूंनी ने गुप्‍त रूप से उनकी इस सब बातों के बारे में लिखा। उनकी किताब के अंश भी शाज़ी ने उद्धृत किए हैं। ईसाई पादरियों ने अकबर की इसी रुझान को देखते हुए उन्‍हें अंतिम समय तक ईसाई बनाने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए। अकबर के देहांत के समय उनका साम्राज्‍य हिंदूकुश से गोदावरी और बंगाल तक फैला था।लेकिन समुद्र  पर पुर्तगालियों का राज था और वे अकबर के लोगों से भी कर वसूल लेते थे और जहाजों को रोक लेते थे। यह बात अकबर को खलती थी, लेकिन मजबूर थे।
अकबर के दरबार के रत्‍नों के बारे में भी इसमें काफी जानकारी है। अबुल फजल के अकबरनामा को तो इसका आधार ही बनाया गया है, इसलिए उनकी चर्चा काफी है। इसी तरह बीरबल, तानसेन और फैजी आदि के बारे में भी काफी कुछ बताया गया है। कहीं कहीं तो ये लोग ही उपन्‍यास के मुख्‍य पात्र बन गए हैं।अकबर इन्‍हें कितना चाहते थे, यह इससे पता चलता है कि दरबार के कई लोग इनके खिलाफ भड़काते भी रहते थे लेकिन अकबर ऐसी बातों को महत्‍व नहीं देते। कुंभनदास और बीरबल के बारे में सुनी और पढ़ी गई कुछ घटनाएं भी इसमें दी गई हैं।
उपन्‍यास में उस समय के वस्‍त्रों,उनके रंग और सजावट,पहनने के तरीके आदि के साथ अकबर के डीलडौल के बारे में भी बताया गया है।वह सिर के बाल मुंड़ा देते थे, दाढ़ी नहीं रखते थे लेकिन मूंछें थीं, उनकी आवाज बुलंद थीं। वह कैसा पायजामा और जामा पहनते थे। उन्‍होंने हिंदुओं और मुसलमानों के लिए जामा बांधने का तरीका तय कर दिया था और हुमायूं के पायाजामें में फंस कर गिरने और उसी के कारण मौत होने के बाद पायजामे की लंबाई कम कर दी गई थी।अकबर को शिकार का बहुत शौक था और महीनों तक वह शिकार के लिए घेरा डाले रहते थे।उपन्‍यास की शुरुआत ही शिकार के लिए डाले गए कमरगह (घेरा) से होती है और इसी के सहारे कहानी काफी आधा रास्‍ता तय करती है।  एक बात इससे यह भी पता चलती थी कि उस समय भी आगरा दिल्‍ली का पानी अच्‍छा नहीं था। अकबर को कई बार पेचिश पड़ी और उनका देहांतभी इसी कारण से हुआ। आखिरी पेचिश किसी भी दवा से ठीक नहीं हुई।
उपन्‍यास में अकबर द्वारा लड़ी गई लड़ाइयों,राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता, उनके साहस की घटनाएं आदि विस्‍तार से लिखी गई हैं। यहां भी अकबर का एक अलग रूप देखने को मिलता है। उनकी अन्‍य शासकों से टकराव,युद्ध और उसके  नतीजों के साथ उनके पिता हुमायूं के साथ जुड़ी घटनाएं भी हैं। उपन्‍यास में कहीं कहीं वर्णन में अति विस्‍तार दिखता है जो इसे थोड़ा बोझिल भी बनाता है। ऐसा वहां है जहां कि किसी किताब के अंश या किसी शासक के लिखे पत्र या निर्देश को उद्धृत किया गया है। ऐसे वर्णन में कथा के प्रवाह में बाधक बनते लगते हैं।
अकबर को जानने समझने के लिए इससे बेहतर किताब और कोई नहीं हो सकती। एक ही साल के अंदर इसका दूसरा संस्‍करण आना भी इसकी तस्‍दीक करता है। एक बात समझ में नहीं आई कवर पेज पर अकबर या उनसे जुड़ा कोई चित्र देने की जगह बारह राशियों का चित्र देने के पीछे क्‍या सोच हो सकती है। अकबर ज्‍योतिष में यकीन रखते थे और समय-समय पर शगुन और मुहूर्त भी दिखाते थे। कुंडली दिखाने की चर्चा इसमें कई जगह आई है। इससे यह भी प्रतीत होता है उनके काल में भी ज्‍योतिष का प्रचार प्रसार व्‍यापक था।

रामधनी ि‍द्विवेदी