हिंदी पत्रकारिता की भाषा और उसकी यात्रा
हिंदी पत्रकारिता के लगभग दो सौ के इतिहास में हिंदी ने कई तरह के परिवर्तन और सुधार देखे। इसमें उत्तर भारत के हिंदी अखबारों का काफी योगदान है। शुरुआती दौर की अखबारी हिंदी और आज की हिंदी में बड़ा बदलाव आ गया है। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो साक्षरता की दर बहुत कम थी। अखबार तो बहुत क्षपते थे लेकिन उनकी प्रसार संख्या आज की तरह लाखों में नहीं थी। उत्तर भारत का अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय अखबार आज की प्रसार संख्या पचास हजार से अधिक नहीं थी। यही हाल दैनिक जागरण और स्वतंत्र भारत का था। इन सबके केवल एक ही प्रकाशन केंद्र थे। अब तो अधिकतर अखबार कई केंद्रो से छपते हैं और एक प्रकाशन केंद्र से कई संस्करण छपते हैं। एक-एक संस्करण की प्रसार संख्या इससे अधिक है और हर केंद्र की कुल प्रसार संख्या लाखों में है। जाहिर है,पाठकों की संख्या बढ़ी है और डिजिटल युग आ जाने के बाद भी इन पर बहुत असर नहीं पड़ा है।इससे हिंदी का प्रचार प्रसार भी बढ़ा है।
शुरू में हिंदी अखबारों की भाषा को बहुत सरल लिखने की परंपरा थी जिससे कम पढ़े लिखे लोग भी इसे पढ़ और समझ सकें। अब तो नहीं लेकिन कुछ दशक पहले तक नए पत्रकारों को यह बताया जाता था कि ऐसी भाषा लिखो जिससे रिक्शा चलाने वाला भी पढ़ और समझ सके। इसके पीछे अखबारों को जन-जन तक पहुंचाने और पढ़ने की आदत डालने की मंशा थी। हिंदी अखबारों ने निश्चित ही इसमें काफी सफलता पाई।
यदि आज से दो या तीन दशक पहले के ही अखबार पढ़ने को मिल जांए तो आप देखेंगे कि उनकी तब और आज की भाषा में काफी अंतर आ गया है। कुछ शब्द खत्म हो गए हैं तो काफी नए आ गए हैं। भाषा की यात्रा और उसके विकास की यह अनिवार्य प्रक्रिया है। अब साक्षरता बढ़ी है तो लोग अल्पप्रचलित शब्दों को भी समझने का प्रयास करने लगे हैं। धीरे-धीरे हिंदी अखबारों की भाषा परिष्कृत हो रही है लेकिन इसके साथ एक संकट भी आया है। कुछ अखबारों ने आज के युवा वर्ग में बोली जाने वाली हिंगलिश को अपने अखबार का मानक बना लिया है। वे हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों को प्रचुर प्रयोग करते हैं लेकिन अच्छी बात यह है कि वे अंग्रेजी के शब्दों का सही उच्चारण लिखने की आदत विकसित कर रहे हैं। एक तरह से वे हिंदी पाठकों को अंग्रेजी भी पढ़ा रहे होते हैं।
सबसे अधिक समस्या हिंदी की वर्तनी और ग्रामर को लेकर है। अधिकतर अखबार इसके प्रति लापरवाह हैं। सभी अखबारों की अपनी वर्तनी है और एक ही शब्द अलग अलग अखबारों में अलग अलग तरीके से लिखा जा रहा है। यह इसलिए कि शब्दों का मानक रूप अभी तक तय नहीं हो पाया है। शुद्धतावादी संस्कृत के आधार पर हिंदी शब्दों की वर्तनी तय करते हैं तो सरलतावादी आम लोगों की समझ में आने वाली हिंदी लिखने-बोलने पर जोर देते हैं। दोनों वर्गों के अपने-अपने तर्क हैं। लेकिन ऐसा सिर्फ हिंदी के साथ ही है। दूसरी भाषाओं में ऐसा नहीं है। अंग्रेजी में तो स्पेलिंग तय हो गई,वह पूरी दुनिया में चलती है। साइलेंट वर्णो का उच्चारण न होने के बाद भी वे लिखे जाते हैं और पढ़ाये जाते हैं। हिंदी में कोई दारोगा तो कोई दरोगा, कोई दूकान तो कोई दुकान, कोई मूसलाधार तो कोइ मूसलधार लिखता है। चंद्र बिंदी इस्तेमाल की जाय कि सिर्फ बिंदी, अभी तक यही तय नहीं हो पाया है। पंचमाक्षर का प्रयोग कैसे किया जाय। क्या म वर्ग में भी बिंदी लगाई जाए कि आधा म इस्तेमाल किया जाए,इन सभी बातों पर सहमति नहीं बन पाई है। सबसे बड़ा संकट यह है कि किसी भी अखबार में इनको लेकर बात नहीं होती। न कोइ बताता है और न ही कोई जानने और समझने के लिए तैयार है।
जब मैं 1973 में इस पेशे में आया तो मेरे पहले अखबार जनवार्ता में दो-चार दिनों बाद मुझे चार छह पन्ने की एक बुकलेट दी गई जो वर्तनी से संबंधित थी । उसमें बताया गया था कि गया,गयी,गये आदि कैसे लिखे जाएंगे और क्यों। इसके अतिरिक्त लगभग 50-60शब्दों का रूप बताया गया था कि इसे कैसे लिखा जाना चाहिए। जैसे अंतरराष्ट्रीय, धूमपान,परराष्ट्रमंत्री (विदेशमंत्री) स्वराष्ट्रमंत्री (गृहमंत्री) संयुक्त राष्ट्र संघ,राष्ट्रकुल (कॉमनवेल्थ) दीक्षा समारोह और दीक्षांत भाषण,संख्या के लिए भारी न लिखकर बड़ी संख्या लिखने,काररवाई ( अब यह शब्द न लिखकर कार्रवाई लिखा जाता है) और कार्यवाही में अंतर,खुदाई और खोदाई कहां लिखा जाए आदि कारण सहित स्पष्ट किया गया था। यह वर्तनी और नियम आज ने बनाए थे जिसे बनारस के सभी अखबार पालन करते। आज की वर्तनी की यह नियमावली जनवार्ता ने भी छाप ली थी जो अपने पत्रकारों को उपलब्ध कराता था। आज शब्दों के मानकीकरण के प्रति पत्रकारों का आग्रह नहीं है और अलग अलग अखबारों में एक ही शब्द के अलग अलग रूप व्यवहार में लाए जाते हैं। जिन अखबारों ने अपनी वर्तनी तय की है,वे भी इसका कड़ाई से पालन नहीं करते हैं।
एन दिनों अखबार में कोई नया शब्द लिखा गया तो पाठक उसका अर्थ पूछता और वह शब्द धीरे-धीरे प्रचलन में आ जाता। यदि कोई गलत शब्द प्रयोग हो जाता तो तत्काल उसपर आपत्ति आ जाती। एक बार कुछ औरतें चोरी करते पकड़ी गयीं। अखबारों मे खबर छपी- तीन महिलाएं पर्स उड़ाते पकड़ी गयीं । दूसरे दिन से अखबारों में महिला शब्द के प्रयोग पर आपत्ति करते हुए सम्पादक के नाम पत्र आने लगे। उनमें यह कहा गया कि चोर औरतों को महिला क्यों लिखा गया। महिला शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए कहा गया कि महिला स़भ्रांत परिवार की स्त्रियों के लिए लिखा जाना चाहिए पर्स उड़ाने वाली चोरनियोंके लिए नहीं। उनके लिए औरतें, स्त्रियां कुछ भी लिखें महिला तो कतई नहीं। किस तरह की औरतों के लिए क्या लिखा जाय इसपर कई दिनों तक रोचक बौद्धिक बहस चली। भाषा के प्रति इस तरह का आग्रह अब कहां ? अब तो हिंदी की सौत हिंगलिश पैदा हो गयी है। एक बार सन 74 में विधान सभा भंग कर अचानक चुनाव की घोषणा कर दी गयी। बहुगुणा जी तब कार्यवाहक मुख्यमंत्री थें। अंग्रेजी अखबारों ने इस चुनाव के लिए स्नैप इलेक्शन शब्द का इस्तेमाल किया। जनवार्ता में विचार कर इसके लिए चट चुनाव शब्द का पहली बार इस्तेमाल किया, बाद में सभी अखबार यही लिखने लगे। प्रसंगत: यहां बहुगुणा जी के बारे दो शब्द जरूर कहना चाहूंगा। मैने उन दिनों उनकी कई चुनाव सभाएं कवर की थीं। मुस्लिम समुदाय में उनका जो प्रभाव था वैसा कम लोगों का था। वह मुस्लिम क्षेत्र की चुनाव सभाओं में जिस हिंदी (उर्दू मिश्रित) में बोलते वही सचमुच में हिंदुस्तान की जुबान कही जा सकती है। किसी भी अन्य पार्टी में ऐसी भाषा बोलने वाले नेता कम थे। लेकिन उनका भाषण उनकी ही भाषा में नहीं छपता था। उसे हिंदी अखबार अपनी तरह से हिंदी में लिखते थे।
जब हिंदी में अखबारों के योगदान की आत चलेगी तो बनारस के अखबारों को भुलाया नहीं जा सकता। बनारस स्कूल में जहां नये शब्दों का सृजन किया जा रहा था, वहीं देशज शब्दों या अंग्रेजी के शब्दों के देशज उच्चारण को भी अंगीकार किया जा रहा था और इनका धड़ल्ले से अखबारों में इस्तेमाल भी किया जा रहा था। बैंक के लिए बंक,पैसेंजर के लिए पसिंजर,स्टेशन के लिए टेशन,कर्फ्यू के लिए करफू आदि ऐसे ही शब्द थे जो अखबारों में नि:संकोच लिखे जाते थे। यह सिर्फ इसलिए पाठक वही शब्द पढ़े जो वह बोलता है। अब ये शब्द अखबारों से खत्म हो गये हैं। इन शब्दों के इस्तेमाल के पीछे सम्पादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर जी का यह तर्क था कि पाठक को यदि वही शब्द पढ़ने को मिलेगा जो वह रोजमर्रा के व्यवहार में बोलता है तो वह उस अखबार से अधिक जुड़ाव महसूस करेगा, जब वह अखबार का अभ्यस्त हो जाएगा तो हम शब्दों के तत्सम रूप का इस्तेमाल कर सकते हैं। पराड़कर जी के इस तर्क से आज सहमत, असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन जब उन्होने यह प्रयोग किया तो इसे तब की जरूरत कहा जा सकता है जब प्रदेश और अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में शिक्षा का प्रतिशत बहुत कम था और अखबार पढ़ने की आदत कम लोगों मे थी। हालांकि वह यह भी मानते थे कि अखबार समाचार देने के साथ ही भाषा का संस्कार और शिक्षा भी देते हैं।जब मैंने पत्रकारिता शुरू की तब तक आज इन शब्दों का प्रयोग करता था लेकिन जब वह अप्रैल 75 से कानपुर से निकलने लगा तो इन शब्दों को पूरी तरह त्याग कर उनके मानक रूप का प्रयोग किया जाने लगा।
अब तो अखबारेां में शब्दों पर चर्चा ही नहीं होती। लेकिन मैं सौभाग्यशाली रहा कि ऐसी बहसों में भाग लेने का खूब अवसर मिला। जनवार्ता में अपने लगभग ढाई साल के कार्यकाल में मुझे आदरणीय त्रिलोचन शास्त्री जी का भी सानिघ्य मिला। उनकी मुझपर विशेष कृपा रहती रहती थी। छह घंटों के समय में अधिकतर साहित्य चर्चा में ही बीतता। त्रिलोचन जी को सुनना अपने में अलग अनुभव था,इसका स्वाद वही जान सकता है जिसने उन्हें सुना हो। चर्चा चाहे जहां से शुरू हो किसी न किसी शब्द की व्युत्पति,उसकी व्याख्या,पर्याय,विलोम,समानार्थी शब्द सबकी बात हो जाती। शास्त्री जी चलते -फिरते विश्वकोष थे। वह गप्प भी इतनी गंभीरता से मारते कि सुनने वाला यकीन न करे तो क्या करे। वह शब्दों के सही उच्चारण पर विशेष जोर देते। पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग श,स और ष के उच्चारण में प्राय: सतर्क नहीं होते। ष को ख कहना तो आम बात थी। शास्त्री जी इसकी शुद्धतापर विशेष जोर देते। यज्ञ को यज्य,संस्कार को सम्स्कार,ज्ञान को ज्नान कहते। आर्यसमाजी और श़ुद्धतावादी आज भी ऐसा ही उच्चारण करते हैं । (ज्ञान मंडल प्रकाशन को ज्नान मंडल कहते। ज्ञान मंडल के बाहर आज भी अंग्रेजी में यही स्पेलिंग लिखी है। कभी- कभी लोग मजाक में इसे ज्नान मंडल न कहकर जनाना मंडल कह देते।) शब्द और भाषा के प्रति वैसा आग्रह और प्यास अब कहां।
अभी कुछ दिन पहले मैं नोएडा से निकलने वाले अखबार को पढ़ रहा था। उसमें अभयारण्य को अभ्यारण्य लिखा गया था। शीर्षक और मैटर दोनों में यही लिखा गया था। इसे लिखने वाले यही नहीं जानते कि यह शब्द बना कैसे है। जब तक आप शब्दों की व्युत्पत्ति नहीं जानेंगे,उसकी निर्मिति नहीं जानेंगे,उसका शुद्ध रूप कैसे जानेंगे। जब मैं दैनिक जागरण में वर्तनी पर काम कर रहा था तो कुछ शब्दों को प्रचलन में लाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी और समझाना पड़ा कि क्या सही है और क्यों। धूम्रपान गलत है और धूमपान सही,यह समझाना मेरे लिए कठिन हो गया था क्यों कि लोगों ने देशभर में धूम्रपान निषेघ लिखा हुआ इतना देखा और पढ़ा है कि वह गलत शब्द ही उनके दिमाग में घुसा है और निकल नहीं पा रहा। यही आइआइटी और आईआईटी के साथ है। हम लोग खुदकुशी और खुदकशी में क्या सही है,यह नहीं जानते। गोकशी लिखा जाए कि गोकुशी। इनकार को कोई इंकार, कोई इन्कार तो कोई इनकार लिख रहा है। दूसरी भाषा के शब्दों को लेकर यह समस्या सबसे अधिक है। अब समय आ गया है,शब्दों के सही रूप को तय किया जाना चाहिए