एक मालिक ऐसे भी
(स्नेह के सागर बाबू भूलन सिंह)
मैंने पांच अखबारों में काम किया। सबसे लंबा कार्यकाल इलाहाबाद अमृत प्रभात में और सबसे कम अमर उजाला,लखनऊ में रहा। अमृत प्रभात में लगभग 22 साल, अमर उजाला में एक साल।
इसके बाद दैनिक जागरण में आज यह लिखते हुए 17 साल से अधिक हुए। जनवार्ता और आज
दोनों में लगभग ढाई- पौने तीन साल- कुल साढ़े पांच- छह साल। इन सबमें मालिकों से सीधे
संपर्क का अवसर मिला, सिर्फ आज को छोड़ कर। सबके साथ के अलग- अलग अनुभव हैं।
सबमें अलग अलग तरह के गुण- दोष थे।चूंंकि चर्चा जनवार्ता की चल रही तो आज उनके मालिक
बाबू भूलन सिंह की बात होगी।
मेरी उनसे पहली मुलकात पराड़कर
भवन में इंटरव्यू के समय हुई थी लेकिन तब मैं समझ नहीं सका था कि वह मालिक हैं।
धीरे- धीरे उनसे मेरा परिचय हुआ। लंबा,कसा हुआ शरीर,गौर वर्ण, सिंह की तरह चाल थी उनकी, लेकिन चलते समय प्राय: सिर नीचे कर चलते। धोती और खादी सिल्क का कुर्ता पहनते। जाड़ों में बंद गले का कुर्ता जिसके बटन प्राय: खुले रहते। वह काशिका
में ही बोलते और - जो है सो कि- उनका तकिया कलाम था। उनसे मेरी पहली बातचीत फोन पर
हुई और मैं उन्हें पहचान नहीं सका था। मैं उन दिनों रिपोर्टिंग में था। शाम का
समय था, फोन की घंटी बजी तो मैंने उठाया, दूसरी तरफ से किसी ने पूछा – के बोलत हौ—मैंने पूछा-आप कौन हैं। उन्होंने
फिर पूछा—के बोलत हौ-। मेरे दोबारा पूछने पर वह समझ गए कि कोई है जो उन्हें पहचान
नहीं रहा है। फिर उन्होंने पूछा—राजू हउवन – मैंने फोन बगल में बैठे वंशीधर राजू
को पकड़ा दिया – कोई आपको पूछ रहा है। उन्होंने बाबू साहब से बात की और बताया कि
नए साथी रामधनी द्विवेदी हैं। फोन रखने के बाद राजू ने मुझे समझाया—बाबू भूलन सिंह
थे, वह जनवार्ता के मालिक हैं। जब फोन पर कोई पूछे – के बोलत
हौ तो समझ जाओ कि बाबू साहब हैं। थोड़ी
देर में बाबू साहब खुद कहीं से टहलते हुए आए, साथ में कागज
के ठोंगे में खूब लाई चना –एकदम गरम, ताजा भुना हुआ। बाबू
साहब सीधे रिपार्टिंग में आए, मेज पर लाई चना रखा, एक मुठ्ठी लिया और एक दृष्टि मुझ पर डाली और किंचित स्मिति के साथ कहा-
खात जा। जब वह चले गए तो राजू ने कहा- यही बाबू साहब हैं। किसी मालिक से इस तरह
परिचय फिर कभी नहीं हुआ।
बाबू साहब की यह दिनचर्या थी कि
दिन में एक बार आफिस आते,थोड़ी देर रुकते, ईश्वरदेवजी
से बात करते, फिर विश्वेश्वरगंज ( बनारस में बिसेसरगंज)
अपने सहकारी समिति के दफ्तर चले जाते।नदेसर स्थित घर से अपनी नई एंबेसडर कार से
आते, कार काशीपुर के संसार प्रेस के अहाते में, जिसमें ही जनवार्ता का दफ्तर था, खड़ी़ी करते और
वहांसे बिसेसरगंज पैदल जाते।वहांसे पैदल ही आते और तीसरे पहर घर चले जाते। वहां से
शाम को दशाश्मेध घाट पर टहलने चले जाते और लौटते समय फिर दफ्तर आते और थोड़ी
देर रुक कर घर चले जाते । साथ में कभी उनकी पत्नी होतीं तो सीधे घर चले जाते।अकेले
रहते तो लौौटते समय दफ्तर जरूर आते। शाम को कभी वह खाली हाथ आए हों,ऐसा नहीं देखा। कुछ न कुछ खाने को जरूर लाते नही कुुछ तो एक दर्जन केला या कोई फल ही ले
लिया। कहते- खूब खाया कीजिए, तभी तो आप लोग काम कर पाएंगे।
सुबह से आते हैं,भूख लग जाती होगी। सचमुच में गार्जियन भूमिका
निभाते।
एक बार मुझे बुखार आ गया। जो एक
बार उतर कर फिर दोबारा आ गया और मैं दस पंद्रह दिन आफिस नहीं आ पाया।जब तबीयत ठीक
हुई तो मैं दफ्तर जाने लगा। मई का महीना था और लू चलने लगी थी। मुझे दफ्तर में न
देख बाबू साहब ने पूछा तो पता चला कि मैं बीमार हूं। तब मुझे 125 रुपये वेतन मिलता
था और मैं अपनी ससुराल में ही रहता था। पैसे इतने कम मिलते कि अकेले रहने की सोच
भी नहीं सकता था। छुट्टी का पैसा भी कट जाता। -- तो मैं बुखार से उठा ही था और दोपहर
को आफिस जा रहा था। मैं उन दिनों रिपोर्टिंग में ही था। घासीटोला में मेरी ससुराल
थी। वहां से कबीरचौरा शिवप्रसाद गुप्त जिला अस्पताल जाता।वहां कई तरह की खबरें मिलतीं क्यों कि आसपास के जिलों के डाका, दुर्घटना या फौजदारी में घायल लोग इलाज के लिए उसी अस्पताल में आते और
हमें कई खबरें वहीं से मिल जातीं। आसपास के जिलों का वही एक बड़ा अस्पताल था। मैं
पैदल ही अस्पत्ााल जा रहा था। मैदागिनि पर बाबू साहब मिल गए,
वह बिसेसरगंज जा रहे थे। मैंने नमस्ते की तो रुक गए। पूछे –आफिस जात हउआ। मैंने
कहा- हां बाबू साहब। तूं त बीमार रहला। हां, मैने कहा। बाबू
साहब ने जरा नाराजगी दिखाते हुए कहा- न चश्मा लगउले हउआ, न
सिर पर तौलिया हव, फिर तबीयत खराब हो जाई तब कइसे काम होई। एतनी
गर्मी पड़त हव। मैने कहा- का करीं बाबू साहब, मुंशी जी
तनखइहे सब काट लेहन। वह एकदम चुप हो गए और थोड़ा रुक कर लौट पडे,यह कहते हुए- चला हमरे साथे। मैं उनके साथ दफ्तर पहुंचा।वह सीधे मुंशीजी (
अकाउंटेंट)के दफ्तर में गए और गुस्से में उनसे पूछे- मुंशी जी, द्विवेदी जी क तनखाह काहे के कटला। मुंशी जी सकपका गए, सोचे द्विवेदी जी ने शिकायत कर दी है। शिकायत तो की थी लेकिन यह दूसरी
तरह की शिकायत थी। मुंशी जी बोले- दस दिन ई आफिस नाहीं अइना तो हम तनखाह काट लिहे।
बाबू साहब तमतमा गए- बीमार आदमी आफिसे कैसे आई। ई सब अखबार क जान हउवन, तनखाह काट लेब त कइसे रहिअन। हमरे खाते से सौ रूपया द इनके। मुंशी जी ने
तुरत सौ रूपये का नोट मुझे थमाया। बाबू साहब बोले – हम यहीं बैठल हई। जा , गोला से एक एक किलो काजू, बादाम, किशमिश और मुनक्का लेइ आवा और हमें देखावा। वह सोच रहे थे, कही ये पैसा पा कर उसको अन्यत्र न खर्च कर दें। मैंने पैसे लिए,सीधे गोला गया जो बनारस क्या आसपास के जिलों की मसाले-मेवे की सबसे बड़ी
थोक बाजार थी और आज भी है। ये चारों चीजें लेने के बाद भी कुछ रुपये बच गए।
मैंने सब सामान बाबू साहब को दिखाया। वह बोले- एम्मे से एक एक मुठ्ठी रोज सबेरे
शाम खायल करा और बीमार नाहीं होवे के हौ। बीमार हो जइबा त काम कइसे होई। उनकी
उदारता देख मेरी आंखों में आंसू आ गए।
जाड़ों के दिन थे, घोर शीत लहर चल रही थी। मैं रात की शिफ्ट में था। 11 बजे के आसपास बाबू साहबका फोन आया।द्विवेदी कइसे काम होत हव।
हम त रजाई में हई तउन हाथ पैर गलत हव। तूं सभेन कइसे काम करत हउआ। मैने कहा-बाबू
साहब अंगुरी अकड़ जात हव, लेकिन का करीं, कइसौ काम करत हई। बोले- देखा- इंद्रबहादुर हउअन।( इंद्र बहादुर उनके भतीजे
थे। जो प्रसार का काम देखते थे और रात में दफ्तर आ जाते।मैने चपरासी से उन्हें
बुलवाया, तब तक बाबू साहब लाइन पर ही थे। उन्होने कहा—देखा, जहां भी दूकान, खुलल हो, हर
कमरा के लिए एक एक अंगीठी और लकड़ी क कोइला एक बोरा मंगा ल,
हर कमरा में वोके सुलगा द, अउर कल खादी आश्रम से चार कंबल
खरीद कर संपादकीय में रखवा द। जे रात में घरे न जाय, ऊ वोके
ओढ़ के सोई। इतना ख्याल रखते थे, हम लोगों का बाबू भूलन सिंह। जनवार्ता आर्थिक रूप से कमजोर
अखबार था, लेकिन उसके मालिक बाबू भूलन सिंह का दिल बहुत बड़ा
था। ऐसे बड़े दिल वाला मालिक मुझे दोबारा नहीं मिला। उसके सामने आज जैसा मजबूत
प्रतिद्वंद्वी था जिसकी प्रतिष्ठा तो थी ही, वह साधन संपन्न
भी था। उसकी प्रसार संख्या भी जनवार्तासे पांच गुनी अधिक थी। लेकिन अपने साधनों से वह भले ही मजबूत था, लोगों के वेतन भी अधिक थे
लेकिन जनवार्ता जैसे मालिक और समर्पित कर्मचारी उसके पास नहीं थे। जनवार्ता आज को
टक्कर दे रहा था।
एक बार वेतन मिलने में देरी हो
रही थी। पैसे की कमी हो गई थी। दो दिन देर होने पर बाबू साहब हम लोगों के पास आए-
बोले- भाई, यहि महीना में तनखाह मिलै में जरा देरी हो जाई, कइसौ सभेन काम चला ला। हमार धोती फट गइल हव, हम उहौ
नाहीं खरीद पावत हई। और उन्होने धोती का
जो सिरा फेंट में था,उसे खोल कर दिखा दिया जो सचमुच में फटी
थी। सब लोगों ने उस महीने में दो तीन किश्तों में वेतन लिया।हालांकि ऐसी स्थिति
जब तक मैं था, एक ही दो बार आई।
बाबू साहब नाराज भी होते। मैं
उन दिनों रिपोर्टिंग में अकेला था। जाड़े का दिन था। जाड़े में हम लोग मेज कुर्सी
धूप में निकलवा कर काम करते जो शाम होते ही अंदर चली जाती। एक दिन मै आफिस में आया
ही था। मेज कुर्सी निकाल कर काम शुरू ही कर रहा था कि छत के दूसरे छोर पर कुर्सी
डाल कर बैठे बाबू साहब ने आवाज देकर मुझे बुलाया। बाबू साहब जब आते तो कुर्सी
निकलवा कर वह भी घूप में बैठ जाते। उनके साथ ही ईश्वरदेवजी, सिन्हा जी आदि भी बैठते।उस दिन मनु शर्मा जी( पत्रकार हेमंत शर्माके
पिता प्रख्यात साहित्यकार हनुमान प्रसाद शर्मा मनु जो बाद में मनु शर्मा नाम से
साहित्यिक रचनाएं करनें लगे। वह डीएवी इंटर कॉलेज में हिंदी के शिक्षक थे और
जनवार्ता में संकटमोचन नाम से रोज एक छोटी
कविता लिखते) भी आए थे और वह भी बैठे थे।
उनका स्नेह भी मुझे प्राप्त था। बुलाने पर मैं बाबू साहब के पास गया। उन्होंने
पूछा –कल जो खबर दिए थे, वह छपी नहीं।(बाबू साहब जब गुस्से
में होते तो खड़ी बोली बोलते।) उन्होंने एक दिन पहले सहकारी समिति की एक खबर दी
थी। उसपर किनारे उन्होंने लिखा था- द्विवेदी जी देख लें और दस्तखत कर दी
थी। मैंने उसे देखा और उसमें कोई खबर लायक वस्तु न पा कर उसे नहीं छापा।संयोग ही
था कि उसे फेंका नहीं था, रख लिया था। जब उन्होंने उसके बारेमें पूछा तो मैने
थोड़ा झूठ बोलते हुए कहा- बाबू साहब, बचती में हौ।जो खबर
छपने से रह जाती उसे बचती ( होल्ड ओवर) कहा जाता। छपती कैसे, मैने तो उसे बनाया ही नहीं था।
बाबू साहब गुस्से में थ। वह मेरी तरफ देख भी नही रहे थे। बायें हाथ की हथेली में
रखी खैनी को रगड़े जा रहे थे और गुस्से में बोले भी जा रहे थे—आप लोग अपने मन के हो गए हैं। इतना सब कुछ अपने मन का छापते हैं और
एक खबर हमारी नहीं छपी। भला लोग क्या सोचेंगे। जो है सो कि,
हम मालिक हैं अखबार के और एक खबर छपवा नहीं पाए। जो है सो कि हमारी क्या इज्जत रह
गई भला – और मुंह फुला कर वह दूसरी तरफ देखने लगे। मुझे भी बुरा लग रहा था। सबके सामने
डांट पड़ रही थी। सौ रूपये की नौकरी के लिए यह डांट। मनु शर्मा समझ गए। वह बात खत्म
करने की गरज से मुझसे बोले – जाओ देखो, कहां खबर रुक गई। मेरी
जान बची और मैं मुंह गिराए आकर कुर्सी पर बैठ गया।मुझे बात बहुत लगती है। मै सिर नीचा
किए कुछ सोच ही रहा था कि ईश्वरदेव जी आ गए। बोले- कौन सी खबर थी। वह भी समझ गए कि
इसे बुरा लग रहा है, कहीं काम छोड़कर चला न जाए। मैंने अलग रखी
खबरों में से उसे निकाल कर ( उन दिनों बनाई गई खबरों और न बनाई गई खबरोंको अलग- अलग
खोंसक( स्पाइक- लोहे का सूजे जैसा नुकीला उपकरण जिसके नीचे लोहे का ही गोल स्टैंड
बना होता) में खोंस दिया जाता।) उन्हें दिखाया और कहा – देखिए,क्या यह छपने लायक है। वह मुस्कराते हुए बोले – अरे भाई- मालिक की खबर में
यह सब नहीं देखा जाता। वह अखबार के मालिक हैं। उनके पास पैसा है, हम लोगों के पास बुद्धि है। हम अपनी बुद्धि लगा कर ही तो काम करते हैं तो
इसमें भी बुद्धि लगानी चाहिए। सब तो हम अपने मन का छापते हैं, उसमें तो वह नहीं बोलते। तो एक खबर
कभी कभार उनके मन छापने में क्या हर्ज है। उन्होंने खबर को संपादित किया, हेडिंग लगाई, बाबू साहब का निर्देश काट कर लिखा- जरूरी
– इसे लोकल में पहले कॉलम में बीच में अनिवार्य रूपसे लगाएं।एक या दो पैरे की बनी थी। मुझसे कहा- जाइए, फोरमैन से कह दीजिए- इसे ध्यान से कंपोज करा कर लगवा दे। और कहा- बाबू साहब
की बात का बुरा मत मानिएगा। वह आपको बहुत चाहते हैं। मेरा सारा क्रोध और अपमान बोध
खत्म हो गया। और उस दिन मैने सरकारी खबरों को लगाने का तरीका सीखा। शाम का लौटते समय
बाबू साहब फिर मूंगफली लेकर आए और मेज पर रखते हुए बोले –खात जा।