Monday, 9 January 2017

पत्रकारिता मे आना --4

जब न्‍यूूज रूम में भीड़ दिखी


यह 18मई 1974  का दिन था।मुझे जनवार्ता में काम करते डेढ़ साल हो चुका था। शुरुआत जनरल डेस्‍क से हुई, थोड़े दिन बाद रिपोर्टिंग में कम  करने  के  बाद फिर जनरल डेस्‍क  पर आ गया था। मैं  आमतौर पर  महेंद्र नाथ वर्मा जी की शिफ्टमें  काम करता था।वह जब छुट्टी पर होते तो मुझे ही शिफ्ट दी जाती। साथ में त्रिलाचन शास्‍त्री जी होतेे और कभी कभी वशिष्‍ठ मुनि ओझा भी। कभी कभी ऐसा भी होता कि अकेले ही काम  करना होता। एक शिफ्ट में कुल्‍ाा मिलाकरa  दो या तीन ही लोग होते।तो उस दिन मैं दिन की शिफ्ट में था। सुबहसाढ़े दस बजे से शाम साढ़े चार बजे तक शिफ्ट  होती। इसमें दिन  की देश विदेश की खबरें बनाई जातीं और गोरखपुर संस्‍करण छापने की तैयारी  की जातीे जो छह बजे तक तैयार हो जाता और आठ बजे तक छप जाता।गोरखपुर में जनवार्ता की कापियां जातीं। इन्‍हें आठ बजे के आसपास  ट्रेन से भेजा जाता।
शाम चार बजे के बाद यूएनआई की मशीन जंप करने लगी--तेज खटर-पटर देख कर मैंने उसे देखा तो पोखरण में परमाणुु परीक्षण की खबर फ्लैैश  हो  रही थी। मैंने थोड़ी देर  तक खबर देखा। अति महत्‍वपूर्ण खबरें तब एक एक लाइन आतीं। संचार के आज जैसे तेज साधन नहीं  थे कि दुनिया के किेसी कोने में हुई घटना कुछ ही मिनट में  पूूरी दुनिया में फैल जाती है। मैं शायद उस दिन की लीड तैयार कर प्रेस में भेज चुका था। प्रेस नीचे के तहखाने जैसी जगह में था। मैंने फोरमैन तुलसी बाबा को लीड बदलने की बात कही और तबतक जितनी खबर आ चुकी थी,उसे बनाया, 4पााइका (आज का 48 प्‍वााइंट) चार  कॉॉलम की हेडिंग लगाई और चार पांच पैरे की खबर बना कर लीड बदलने के बाद पेज पर लगाया और गोरखपुुर संस्‍करण छोड़ कर, छपने  के लिए कह कर कमरे पर चला आया।
मैं उन दिनों प्रेस के पास ही,लगभग आधा किलोमीटर दूर बड़ा गणेश मुहल्‍ले में एक कमरे में अकेेले रहता था।वह मकान मिर्जापुर के एक पंडित जी का था जिसमें कई कमरे थेे और हर कमरे में  दो एक पढ़ने वाले लड़के रहते थे जो किसी कालेज में पढ़ते और खाना खुद बनाते।मैं भी अकेला ही रहता,खाना ख्‍ुाद ही बनाता।घर आकर मैंने रोटी सब्‍जी बनाई,भूख लगी थी,खाने बैठ गया। आधा खाना ही खा पाया था कि आफिस का चपरासी मोहन आ गया। दरवाजे पर उसे देख मैं आश्‍चर्य में पड़ गया। मैंनेे पूछा-कैसे,उसने मेरी बात  पूरी होने के पहले ही  कह दिया--संपादक जी बोलावत  हउंंवन । मैने सोचा कुुछ गलती हो गई क्‍या जो तत्‍काल संपादक जी--ईश्‍वरदेव मिश्रजी बुला रहे हैंं।उसने मेरी दुविधा दूर करते हुुए-स्‍पष्‍ट कर दिया--दफ्तर में बहुुत भीड़ लगल हव,प्रदीप जी,संपादक जी और बहुत जने बाहरी जुटल हउंवन।जल्‍दी से खा ल अउर चला।मैंने कहा- तैं चल, हम तुुरंत आवत हई।(यह एक सुखद बात है कि हम लोग दफ्तर  में काशिका ( भोजपुरी की काशी आैैर  आसपास बोली  जाने वाली बोली )में ही बात करते। अवधी में बेालने वालेे प्रदीप जी ही थे जो अपनी मीठी अवधी से रह रह कर रस घोलते रहते।
मैंने जल्‍दी जल्‍दी खाना खत्‍म किया और डरते - डरते आफिस पहुंचा।वहां भीड़ लगी थी। लोग टेलीप्रिंटर वाले कमरे में जमा थे और वह खबर पर खबर उगले जा रहा था। मुझे देखते ही संपादक जी नेे पूूछा-- क्‍या भाई, इतनी बड़ी खबर हो गई और आपने बताया भी नहीं। भारत ने परमाणु परीक्षण कर लिया है।वह भी प्राय: अपनी  बलिया की ही बोली  बोलते लेकिन जब औपचारिक हो जाते तो खड़ी बोली में बोलते। मैने कहा- 4पाइका में चार कॉलम लीड तो बना दिया था। जितनी खबर तब तक आई थी, मैने बना दी थ्‍ाी। वह मेरे जवाब पर झुंझलाए नहीं,वह जान गए कि यह खबर की गंभीरता नहीं  समझ पाया है। वह बोले,अरे भाई,यह बहुुत बड़ी खबर है।भारत परमाणु ताकत हो गया हैै। आपको यह खबर मुझे तो कम से कम बतानी चाहिए थी। यह लीड और 4पाइका से आगे की खबर हैै - उस दिन मैनें पहली बार लकड़ी पाइका में हेडिंग लगती देखी।यह 120प्‍वाइंट से ऊपर का फांट होता है और कभी कभार ही अखबारों  में इस्‍तेमाल होता है।मैंने जनवार्ता के कार्यकाल में दो बार इसको लगते देखा-पहली बार पोखरण विस्‍फोट में और दूसरी बार उसी साल अरब इजरायल के युुद्ध विराम में।
पहली बार में न्‍यूज रूम की वैसी हलचल देखी थी। ख्‍ुाद संपादक जी,प्रदीप जी आदि खबर बना रहे थे। रात की नावड़ जी की शिफ्ट तो लगी ही थी।रात 12 बजे तक सभी लोग जुटे थेे। प्रदीप जी ने संपादकीय भी उसी समय लिखा।  खबरों का आधार एक मात्र यूूएनआई की मशीन ही थी। मैं भी खबर अनुवाद करने में जुटा रहा।वहीं खाना मंगाया गया, सबने एक साथ खाना खाया और जब छपाई शुरू हो गई तो एक- एक अखबार लेकर हम लोग घर गए।संपादकजी भी मेरे कमरे के आगे दारानगर में   रहते थे।  रात मैदागिनी चौराहे पर पान खाने के बाद  लोग अपने अपने घर गए। इस तरह काम करने का यह पहला मौका था। बाद में तो दूसरे अखबारों में ऐसी स्थिति में  काम करने केे कई मौके आए। यह भी समझ में आया कि ऐसी खबरों को  शेयर करने से उसमें वैल्यू्
एड करने को भी मिल जाता है।
दरअसल इतनी बड़ी खबर को मैं सचमुच उस समय नहीं समझ पाया था।मैने बस यही समझा कि बड़ी घटना हो गई हैै। इसे लीड बनना चाहिए और मैने वैसा किया भी। तब खबर को बेहतर बनाने के लिए आज जैैसे इंटरनेट के साधन नही थे।हम अपनी निजी जानकारी या एजेंसी से मिली सूचना और जानकारी को ही दे पाते थे।इससे लगभग सभी अखबारोंमें एक जैसी खबरें ही छपतीं।वैल्‍यू एड या इंफो आदि देने की बात ही नहीं सोची जा सकती थी।
वास्‍तव में मैं पहले जब भी अकेला होता था,खासतौर से रात की शिफ्ट में तो मैं संपादक जी से बात कर ही लीड आदि तय करता।दिन की शिफ्ट में महत्‍वपूर्ण खबरें कम ही आतीं थीं,इसलिए इसकी नौबत कम ही आती थी। रात की शिफ्ट में मैं रात पौने नौ बजे कीी आकाशवाणी की न्‍यूज बुलेटिन सुनने के बाद खबरों पर संपादकजी सेे राय लेता और लीड आदि तय करता।प्राय: एक दिन मैं रोज की तरह फोन पर ईश्‍वरदेव जी से बात कर रहा था कि कहीं से घूमते हुुए प्रदीप जी आ गए। जब मैंनेे फोन रखा तो उन्‍होंने पूछा कि किससे बात कर रहे थेे । मैने कहा-ईश्‍वरदेव जी से। क्‍यों? खबरों पर डिस्कस कर रहा था। प्रदीप जी ने एक गुरुमंत्र दिया--पूछ कर अखबार निकालोगे तो जिंदगी भर पूूछकर ही लीड तय करते रहोगे,खुुद, फैसला करो।गलत ही होगा न। दूसरी बार गलती नहीं करोगे। दूसरी बात पेज पर जो  भी खबरें डबल कॉलम होती हैं,उन्‍हीं में से जब सबसे अच्‍छी हो उसे ही लीड बना सकते हो, दूूसरे दिन मैंने बिना ईश्‍वरदेव जी से बात किए ही अखबार निकाला। वह भी बात करना भूल गए। दूसरे दिन दफ्तर आने पर उन्‍होंने कहा--कल फोन नहीं किया लेकिन अखबार ठीक निकाला। मेरी आत्‍मविश्‍वास बढ़ गया। मैं जब निर्णय न ले पाता,तभी उनसे बात करता। खुद फैसला लेेनेे में कई बार गलतियां भी हईं और दोयम दर्जे की खबरें महत्‍व पा गईं, लेकिन बिना गलती किए कोई सीख भी तो नहीं पाएगा।




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