Thursday, 28 July 2016

भाषा के प्रति आग्रह



बात 73-74 की है। तब मैं पत्रकारिता के पेशे में आया ही था। बनारस के दैनिक जनवार्ता में प्रशिक्षु के रूप में काम कर रहा था।जनवार्ता को तबके कई वरिष्‍ठ पत्रकारों को साथ लेकर चलने का श्रेय है। ये सभी उत्‍तर प्रदेश के दिग्‍गज पत्रकार थे। यह कहना सुखद लगता है कि बनारस उन दिनों हिंदी पत्रकारिता की नाभि  था। चारो ओर बनारस स्‍कूल की धाक थी। उन दिनों पत्रकारीय सुचिता शीर्ष पर थी जो आज दुर्लभ है। अखबारों पर इतना विश्‍वास रहता था कि अखबार पढ़े नहीं बांचे जाते थे,मतलब एक आदमी पढ़ रहा है चार सुन रहे हैं और लगे हाथों टिप्‍पणी भी कर रहे हैं। वाह गुरू का बात लिखी है। यदि कोई बात नहीं जंची तो बखिया उधेड़ने में भी संकोच नहीं। पत्रकारों का बड़ा सम्‍मान था, आप पत्रकार हैं मतलब कुछ विशिष्‍ट तो हैं ही। आम आदमी और अखबार इतने जुड़े थे कि बिना अखबार के बनारस की सुबह अधूरी मानी जाती थी। कहावत कही जाती थी- चना चबेना गंगजल और आज अखबार, काशी कबहु न छोडि़ए विश्‍वनाथ दरबार। आज जिस ब्रांडिंग और रीडर कनेक्‍ट के लिए लोग प्रयास करते हैं वह उन दिनों बिना प्रयास सिर्फ पेशे की ईमानदारी और विश्‍वसनीयता से प्राप्‍त थी। हिंदी (पत्रकारिता) को बनारस ने सैकड़ों शब्‍द दिये जो आज हिंदी की धरोहर हैं। उन दिनों यदि अखबार ने कोई नया शब्‍द लिखा तो पाठक उसका अर्थ पूछता और वह शब्‍द धीरे-धीरे प्रचलन में आ जाता। यदि कोई गलत शब्‍द प्रयोग हो जाता तो तत्‍काल उसपर आपत्ति आ जाती। एक बार कुछ औरते चोरी करते पकड़ी गयीं। अखबारों मे खबर छपी- तीन महिलाएं पर्स उड़ाते पकड़ी गयीं । दूसरे दिन से अखबारों में महिला शब्‍द के प्रयोग पर आपत्ति करते हुए सम्‍पादक के नाम पत्र आने लगे। उनमें यह कहा गया कि चोर औरतों को महिला क्‍यों लिखा गया। महिला शब्‍द की व्‍युत्‍पत्ति बताते हुए कहा गय‍ा कि महिला स़भ्रांत परिवार की स्त्रियों के लिए लिखा जाना चाहिए पर्स उड़ाने वाली चोरनियोंके लिए नहीं। उनके लिए औरतें, स्त्रियां कुछ भी लिखें महिला तो कतई नहीं। किस तरह की औरतों के लिए क्‍या लिखा जाय इसपर कई दिनों तक रोचक बौद्धिक बहस चली। भाषा के प्रति इस तरह का आग्रह अब कहां ?  अब तो हिंदी की सौत हिंगलिस पैदा हो गयी है। एक बार 74 में विधान सभा भंग कर अचानक चुनाव की घोषणा कर दी गयी। बहुगुणा जी तब कार्यवाहक मुख्‍यमंत्री थें। अंग्रेजी अखबारों ने इस चुनाव के लिए स्‍नैप इलेक्‍शन शब्‍द का इस्‍तेमाल किया। जनवार्ता मे विचार कर इसके लिए चट चुनाव शब्‍द का पहली बार इस्‍तेमाल किया, बाद में सभी अखबार यही लिखने लगे। प्रसंगत: यहां बहुगुणा जी के बारे दो शब्‍द जरूर कहना चाहूंगा। मैने उन दिनों उनकी कई चुनाव स्‍ाभाएं कवर की थीं। मुस्‍लिम समुदाय में उनका जो प्रभाव था वैसा कम लोगों का था। वह मुस्लिम क्षेत्र की चुनाव सभाओं में जिस हिंदी (उर्दू मिश्रित) में बोलते वही सचमुच में हिंदुस्‍तान की जुबान कही जा सकती है। किसी भी अन्‍य पार्टी में ऐसी भाषा बोलने वाले नेता कम थे।

मुझे याद आता है सारनाथ मे बौद्ध संगीति का आयोजन था। बर्मा(म्‍यामार) के प्रधान मंत्री ऊ नू उस कार्यक्रम में विशेष अतिथि के रूप में शामिल थे। पहले दिन जनवार्ता में आदरणीय प्रदीप जी ने सम्‍पादकीय लिखा। प्रवाह मे वह नाप से दो लाइन ज्‍यादा हो गया। प्रदीप जी मस्‍त मौला किस्‍म के पत्रकार थे लिखने के बाद बुलानाले पर बैठकबाजी करने चले गये थे( प्रदीप जी मेरे आदि गुरु रहे हैं,उनके जैसा प्रखर और तेजस्‍वी पत्रकार कम हैं।उनपर कभी अलग से--) उनका लिखा पढ़ने और  कम्‍पोज करने वाला बनारस मे एक ही व्‍यक्ति था। प्रदीप जी जहां जहां नौकरी करते वह वहां-वहां जाता।प्रदीप जी की लिखावट विचित्र थी,जैसे चींटी को स्‍याही में डुबो कर कागज पर छोडं दिया गया हो,‍लेकिन वह जिस स्‍पीड से लिखते वह कमाल की थी। मनो‍विज्ञानियों का कहना है जब व्‍यक्ति सोचता तेज है और उस स्‍पीड से लिख नहीं पाता तो उसकी लिखावट बिगड़ जाती है। प्रदीप जी के बारे मे यह बिल्‍कुल सच है। उनके लिखे एकाघ पत्र मेरे पास हैं और मेरा दावा है कि सभी लोग उसे पढ़ नहीं पाएंगे। जब फोरमैन ने सम्‍पादक श्री ईश्‍वर देव मिश्र जी को बताया कि सम्‍पादकीय दो लाइन बढ़ रहा है तो किसी की उसे काट कर कम करने की हिम्‍मत नहीं पड़ी और प्रदीप जी को उनके अड्डों पर ढ़ुढ़वाया गया जब वह नहीं मिले तो ईश्‍वरदेव जी ने उसे काट कर दो लाइन र्छोटा कर दिया। दूसरे दिन सुबह जब प्रदीप जी ने  वे शब्‍द नहीं देखे जो उन्होने भगवान बुद्ध के लिए विशेषण के रूप में प्रयुक्‍त किये थे तो उनका पारा चढ़ गया। दफ्तर पहुचकर उन्‍होने खूब हल्‍ला काटा। प्रदीप जी का कहना था रात भर बौद्ध साहित्‍य पढ़कर मैने यह सम्‍पादकीय लिखा था,उसमे बुद्ध के लिए ऐसे विशेषण प्रयोग किये गये थे जो बनारस के लिए सर्वथा नये होते।  उन्‍हें काटकर मेरे श्रम को नष्‍टकर दिया गया। अपने शब्‍दों के प्रति किसे अब इतना आग्रह। प्रदीप जी के आक्रोश का ईश्‍वरदेव जी ने कोई जवाब नहीं दिया सिर्फ हंसकर बोले -उनका नाराज होना वाजिब है,कई शब्‍द ऐसे थे जिनका अर्थ मुझे भी नहीं मालुम था। मैने उन्‍हें ही काटकर सम्‍पादकीय कम कर दिया।( ईश्‍वरदेवजी ने ये बात भोजपूरी में कही और ठठाकर हंसे थे। क्‍या सादगी थी। अपनी कमी को सार्व‍जनिक रूप से स्‍वीकार कर उसपर हंसने का साहस भी।ईश्‍वरदेव जी को प्रदीप जी ने लीडर(भारत) के दिनों में सिखाया था और उनके सीनियर थे। जनवार्ता मे ईश्‍वरदेव जी का पद और वेतन प्रदीप जी से ज्‍यादा था, लेकिन प्रदीप जी के प्रति उनका आदरभाव कम न था। उन्‍होने कभी अपने को उनसे वरिष्‍ठ नहीं समझा।

बनारस स्‍कूल में जहां नये शब्‍दों का सृजन किया जा रहा था, वहीं देशज शब्‍दों या अंग्रेजी के शब्‍दों के देशज उच्‍चारण को भी अंगीकार किया जा रहा था और इनका धड़ल्‍ले से अखबारों में इस्‍तेमाल भी किया जा रहा था। बैंक के लिए बंक,पैसेंजर के लिए पसिंजर,स्‍टेशन के लिए टेशन आदि ऐसे ही शब्‍द थे जो अखबारों में नि:संकोच लिख्‍ो जाते थे। यह सिर्फ इसलिए पाठक वही शब्‍द पढ़े जो वह बोलता है। अब ये शब्‍द अखबारों से खत्‍म हो गये हैं। इन शब्‍दों के इस्‍तेमाल के पीछे सम्‍पादकाचार्य बाबूराव विष्‍णु पराड़कर जी का यह तर्क था कि पाठक को यदि वही शब्‍द पढ़ने को मिलेगा जो वह रोजमर्रा की व्‍यवहार में बोलता है तो वह उस अखबार से अधिक जुड़ाव महसूस करेगा, जब वह अखबार का अभ्‍यस्‍त हो जाएगा तो हम शब्‍दों के तत्‍सम रूप का इस्‍तेमाल कर सकते हैं। पराड़कर जी के इस तर्क से आज सहमत, असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन जब उन्‍होने यह प्रयोग किया तो इसे तब की जरूरत कहा जा सकता है जब प्रदेश और अन्‍य हिंदी भाषी क्षेत्रों में शिक्षाका प्रतिशत बहुत कम था और अखबार पढ़ने की आदत कम लोगों मे थी। हालांकि वह यह भी मानते थे कि अखबार समाचार देने के साथ ही भाषा का संस्‍कार और शिक्षा भी द‍ेते हैं।

जनवार्ता में अपने लगभग ढाई साल के कार्यकाल में मुझे आदरणीय त्रिलोचन शास्‍त्री जी का भी सानिघ्‍य मिला। उनकी मुझपर विशेष कृपा रहती रहती थी।(त्रिलोचन जी के बारे में पढ़ें आधारशिला का त्रिलोचन विशेषांक जिसका सम्‍पादन वाचस्‍पति जी ने किया है।) छहघंटों के समय में अधिकतर साहित्‍य चर्चा में ही बीतता। त्रिलोचन जी को सुनना अपने में अलग अनुभव था,इसका स्‍वाद वही जान सकता है जिसने उन्‍हें सुना हो। चर्चा चाहे जहां से शुरू हो किसी न किसी शब्‍द की व्‍युत्‍पति,उसकी व्‍याख्‍या,पर्याय,विलोम,समानार्थी शब्‍द सबकी बात हो जाती। शास्‍त्री जी चलते -फिरते विश्‍वकोष थे। वह गप्‍प भी इतनी गंभीरता से मारते कि सुनने वाला यकीन न करे तो क्‍या करे। वह शब्‍दों के सही उच्‍चारण पर विशेष जोर देते। पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के लोग श,स और ष के उच्‍चारण में प्राय: सतर्क नहीं होते। ष को ख कहना तो आम बात थी। शास्‍त्री जी इसकी शुद्धतापर विशेष जोर देते। यज्ञ को यज्‍य,संस्‍कार को सम्‍सकार,ज्ञान को ज्‍नान कहते। आर्यसमाजी और श़ुद्धतावादी आज भी ऐसा ही उच्‍चारण करते हैं । (ज्ञान मंडल प्रकाशन को ज्‍नान मंडल कहते। ज्ञान मंडल के बाहर आज भी अंग्रेजी में यही स्‍पेलिंग लिखी है। कभी- कभी लोग मजाक में इसे ज्‍नान मंडल न कहकर जनाना मंडल कह देते।) शब्‍द और भाषा के प्रति वैसा आग्रह और प्‍यास अब कहां।

(  4  मई 2010 को जागरण जंक्शन में प्रकाशित)

Wednesday, 27 July 2016

यह भी दिल्ली ही है

                               यह भी तो दिल्‍ली ही है

दिल्‍ली आये दो महीने हो रहे हैं। वैसे पहले भी कई बार दिल्‍ली आना हो चुका है,कभी आफिस के काम से, कभी बेटे के पास मिलने या किसी घरेलू काम से,लेकिन वह आना पड़ाव की तरह होता था। आये, काम निपटाया और वापस। इस बार का आना टिकने जैसा है( अभी बसने जैसा नहीं कहूंगा क्‍यों कि बसने के पहले कई पहलुओं पर सोचना होगा मेरे जैसे पु‍रबिया को दिल्‍ली कितनी रास आएगी कह नहीं सकता। हां लगभग पूरी जिंदगी शहरों में बीतने के बाद भी अपने को पूरा शहरी नहीं बना पाया और मेरा गांव आज भी मुझे किसी भी शहर  से ज्‍यादा खींचता है। इस पर फिर कभी---) हां तो बात दिल्‍ली की। दिल्‍ली के बारे में पहली टिप्‍पणी जब दिल्‍ली से बरेली जा कर बसे अपने मित्र श्री रवि लायटू ( प्रख्‍यात विज्ञान लेखक जो आइवर यूशियल के नाम से लिखते हैं) से की तो वह नाराज हो गये। मैं पंद्रह दिन रह कर बरेली बच्‍चों के पास गया था और उनसे मिलने गया तो उन्‍होने पूछा- कैसी लगी दिल्‍ली? मैने कहा- बहुत बदबू करती है, धूल, धुआं और धक्‍का, बस यही मिला अभी तक । उनके चेहरे पर अप्रिय भाव आया और उन्‍होने पूछा- कहां रह रहे हैं बेटे के पास, कहां मकान ले रखा है ? मैं समझ गया कि चूक हो गयी, वह दिल्‍ली की बहुत तारीफ करते हैं और मैने ऐसा कह दिया। जवाब दिया - यमुना विहार मे । वह बोले- वह पूर्वी दिल्‍ली में है,।( तब तक मैं पूर्वी पश्चिमी का अंतर नहीं समझ पाया था। मैं दिल्‍ली को दिल्‍ली ही समझता था ) दिल्‍ली वही नहीं है जो अभी तक आपने देखी है। पूर्वी दिल्‍ली में तो कोई जाना नहीं पसंद करता था, वह तो दिल्‍ली का सबसे रद्दी इलाका है। चूंकि वहां सस्‍ती जमीन मिली तो लोग वहीं बस गये। अधिकांश पत्रकारों  और मध्‍यम दर्जे के सरकारी कर्मचारियों ने वहां जमीन ले कर मकान बनाया। आज भी दिल्‍ली मे सबसे सस्‍ता इलाका वही है। मयूर विहार मे अधिकांश पत्रकार बसे हैं। तीज त्‍योहारों पर वहीं की फोटो छपती है और वहीं लोगों की फोटो अखबार वाले परिचर्चा में छाप देते हैं। अरे लुटियन की नयी दिल्‍ली ‍उत्‍तरी, दक्षिणी दिल्‍ली देखिए तो असली दिल्‍ली देखने को मिलेगी। दिल्‍ली वह है । मैने कहा तो आप इंडिया की दिल्‍ली  की बात कर रहे हैं। मुझे लगा मैं भारत की दिल्‍ली देख रहा हूं। मैने तो जो देखा वही बताया जो दिल्‍ली मैने देखी ही नहीं उसके बारे मे क्‍या कहूं। बात दूसरे विषय पर आयी तो माहौल बदला। जब मैने यह बात बेटे को बतायी तो उसने कहा - अंकल की बात उनके लिए सही है, लेकिन वही सही नहीं है जो वह कह रहे हैं। व‍ह दिल्‍ली देश के बीस प्रतिशत लोगों की दिल्‍ली है, बाकी दिल्‍ली शेष भारत की दिल्‍ली है।

तो मैने दिल्‍ली का एक टुकड़ा अभी तक देखा था और लायटू साहब के अनुसार वह दिल्‍ली थी ही नहीं। तो जैसा मैने देखा कहूंगा तो वैसा ही न। पहली बार सुबह के समय जब ट्रेन स्‍टेशन के पहले  पुल पर रुकी तो तेज गंध नाक मे घुसी। पूछने पर पता चला कि हम यमुना पुल पर हैं। साथ मे बेटी और पत्‍नी ने विस्‍मय और आश्‍चर्य के भाव से पूछा अरे ये यमुना जी हैं। मैने कहा - सभी नदियों की यही हालत हो गयी है बेटा। तुमने बनारस में गंगा जी को नहीं देखा था कितनी गंदी हो गयी हैं,सिकुड़ भी गयी हैं।। थोड़ी देर के लिए हम लोग शब्‍दहीन हो गये थे। अब तो जब भी ट्रेन से आना होता है तो यमुना का यह रूप देखना आदत बन गयी है, अब विस्‍मय नहीं होता। पिछले महीने कुछ समाजसेवी संस्‍थाओं, कालेज के छात्रों,संतो और देश प्रेमियों ने यमुना को साफ करने का अभियान शुरू किया था ,लगा कि कुछ बदलेगा लेकिन-----

लेकिन इस यमुना के अलावा भी बहुत कुछ देखा यहां। मेरे आवास और दफ्तर के बीच कितने किलोमीटर की दूरी है यह तो नहीं बता सकता लेकिन घर से दफ्तर पहुंचने में कमसे कम डेढ़ घंटा जरूर लगता है। डेढ़ घंटा सुबह और डेढ़ घंटा शाम कुल तीन घंटे बस, आटो और रिक्‍शे पर कटते। रोज ये तीन घंटे अनुभव के नये संसार से रूबरू कराते।सड़क पार करते समय फुर्ती, सतर्कता फिर भी आयेदिन होने वाली दुर्घटनाएं। दौड़कर बस में चढ़ने के बाद भी खड़े-खड़े सफर करने की मजबूरी, उतरते चढ़ते यदि सतर्क न हुए तो किसी भी क्षण  दुर्घटना की संभावना। लेकिन यह सफर भी जिंदगी के कई रूप खोलता  नये अनुभवों से साक्षात्‍कार कराता । लो फ्लोर बसों की अलग, ब्‍लू लाइन की अलग और डीटीसी की अलग। बेटे ने सावधान किया था ब्‍लू लाइन को एवायड कीजिएगा वे चलाते भी रफ हैं और बोलते भी रफ हैं, कभी- कभी उसमे पाकेट भी कट जाते हैं, लो फ्लोर में यह इसलिए नहीं हो पाता क्‍यों क‍ि उसमें चलने पर गेट बंद हो जाता है। लेकिन इन बसों मे महिलाओं की सीट पर पुरूष, वृद्धों की सीट पर युवक और विकलांगों की सीट पर स्‍वस्‍थ लोग बैठे नजर आयेगे जो पात्र यात्री के आने पर भी नहीं उठेंगे। एक बार एक सीट खाली होने पर एक व्‍यक्‍ि‍त्‍ा ने मुझे बैठने का आफर किया तो बगल में खड़े युवक ने खुद आगे बढ़ कर सीट हथिया ली,जब उससे कहा गया अरे उम्र क्‍या ख्‍याल तो किया करो तो उसने जवाब दिया यही करते करते पिछड़ गया। आज उसका जमाना नहीं रहा:-----। हो सकता है उसके अनुभव अलग रहे हों। ऐसे लोग भी मिले जो अपने से उम्र दराज लोगों को पहले बैठने का आफर करते हैं। एक बार एक युवक को एक अधेड़ व्‍यक्ति ने ठीक से बोलने की नसीहत देनी चा‍ही तो उसने धमकी देते हुए कहा ज्‍यादा न बोल नहीं तो काट डालूंगा। आसपास खड़े लोग सन्‍न रह गये। जब वह युवक उतर गया तो एक हरियाणवी ने कहा- ऐसा दिल्‍ली मे ही होता है,मेरे हरियाणा में किसी बुजुर्ग को कोई ऐसा कहकर जा नहीं सकता। यहां तो कोई बोलता ही नहीं। एक सह यात्री ने जवाब दिया बोले तो आप भी नहीं---। दूसरों को धक्‍का दे कर, पैर कुचलते निकलते लोगों मे ऐसे लोग भी मिले जो पैर से छू जानेपर या ध्‍ाक्‍का लगने पर सारी कहते या पैर पर हाथ लगा माफी मांगते, शायद अपने माता पिता से प्राप्‍त संस्‍कार के कारण। एक बार  बाइक पर तेजी से निकलते युवक की बाइक शरीर से हल्‍की छू गयी तो आगे जाकर वह रूका और मुड़कर पूछा अंकल चोट तो नहीं लगी । तेजी से दौड़ती दिल्‍ली में आगे निकलने की होड़ में एकदूसरे का पैर खींचते , गला काटते लोगों मे मदद करते लोग, अनजान घायल को अस्‍पताल पहुचाते लोग, अपने संस्‍कारों की खुशबू बिखेरते लोग   सुकून पहुचाते हैं और अकेले कई लोगों पर भारी पड़ते हैं। ये भी तो दिल्‍ली के ही हैं न।

(30 अप्रैल 2010 को जागरण जंक्शन में प्रकाशित)

Wednesday, 13 July 2016

शब्द-सृजन

खगोलशास्त्री  कहते हैं कि सृष्टि का निर्माण महाविस्फोट से हुआ और इस महाविस्फोट के साथ ही एक महानाद-महाध्वनि भी पैदा हुई।यह महाध्वनि सृष्टि के हर कण में समाहित है और कोई भी क्रिया बिना ध्वनि के नहीं होती।जहां भी कोई घटना घटती है,वहां कोई न कोई ध्वनि भी पैदा होती है। प्रकृति में जितनी भी गतिविधियां हैं,क्रियाएं हैं, उनकी अपनी एक अलग ध्वनि होती है।जब भी क्रिया संपन्न होती है,यह ध्वनि उत्पन्न होती है।हवा का चलना,नदी का बहना,आग का जलना, पानी का बरसना,बिजली का कड़कना, पक्षियों का चहचहाना,गाय का रंभाना,शेर का दहाड़ना आदि सभी क्रियाओं की अपनी ध्वनि होती है।जब हमारे मनीषियों ने इन्हें सुना,समझा,गुना और उन्हीं ध्वनियों को पुनः व्यक्त करने की आवश्यकता अनुभव की तो उन्हें कठिनाई  हुई। वे इन ध्वनियों को मुंह से निकाल तो लेते थे लेकिन उन्हें दूसरों को बताने में,संजो कर रखने में असुविधा हुई।इसी असुविधा को दूर करने के प्रयास में बोली और भाषा का विकास हुआ।पहले इन ध्वनियों को बोल कर ही व्यक्त किया जाता था,फिर जब इन्हें स्थायी बनाने की आवश्यकता हुई तो लिपि का निर्माण हुआ।हिंदी की जिस लिपि का हम लोग आजकल प्रयोग करते हैं उसे देवनागरी कहते हैं।यह प्रकृति की इन्हीं ध्वनियों को आकार देने से बनी है। आज का स्वरुप प्राप्त करने में इसे लंबी यात्रा करनी पड़ी और अनेक परिवर्तनों से दो -चार होना पड़ा। बोली और भाषा पहले आई, लिपि बाद में।हम जैसी ध्वनि सुनते, वैसी मुंह से निकाल तो लेते थे लेकिन उसे कैसे व्यक्त करें इसके लिए लिपि की आवश्यकता अनुभव की तो प्रकृति की इन ध्वनियों को उसी रूप में व्यक्त करने का प्रयास किया गया और हिंदी भाषा की इकाई वर्ण- स्वर और व्यंजन का अविष्कार हुआ।स्वर का अर्थ ही ध्वनि होता है।हमारे मनीषियों ने इन ध्वनियों में छिपे संदेश को सुना और उनको व्यक्त करने के लिए वर्णों का आकार निश्चित किया।चूंकि कोई भी ध्वनि अकेले किसी एक स्वर या व्यंजन से नहीं बनती, उसमें कई तरह का आरोह-अवरोह होता है,इसलिए स्वरों और व्यंजनों का स्वरुप तय किया गया।ये ध्वनियों को पूर्ण स्वरुप प्रदान करते हैं।जब हम सर -सर बहती हवा कहते हैं या कल- कल बहती नदी कहते हैं तो इसमें हवा और पानी के चलने और बहने की ध्वनि का आभास होता है।इसे ही स्थायी रूप से व्यक्त करने के लिये स्वर,व्यंजन,अक्षर,शब्द,वाक्य और अंत में भाषा बनी।
स्वर और व्यंजन ही मिलकर अक्षर बनते हैं।अ मूल स्वर है जो सभी व्यंजनों में निहित होता है।बिना अ के योग से कोई अक्षर नहीं बन सकता।किसी भी अक्षर में अ एक खड़ी रेखा ( पाई ) के रूप में शामिल होता है,कभी आधे रूप में कभी पूरे रूप में। कई अक्षर मिलकर शब्द और कई शब्द मिलकर वाक्य बनाते हैं।शब्दों का वह समूह जिनका निश्चित अर्थ निकलता है वाक्य कहलाता है।