Wednesday, 27 July 2016

यह भी दिल्ली ही है

                               यह भी तो दिल्‍ली ही है

दिल्‍ली आये दो महीने हो रहे हैं। वैसे पहले भी कई बार दिल्‍ली आना हो चुका है,कभी आफिस के काम से, कभी बेटे के पास मिलने या किसी घरेलू काम से,लेकिन वह आना पड़ाव की तरह होता था। आये, काम निपटाया और वापस। इस बार का आना टिकने जैसा है( अभी बसने जैसा नहीं कहूंगा क्‍यों कि बसने के पहले कई पहलुओं पर सोचना होगा मेरे जैसे पु‍रबिया को दिल्‍ली कितनी रास आएगी कह नहीं सकता। हां लगभग पूरी जिंदगी शहरों में बीतने के बाद भी अपने को पूरा शहरी नहीं बना पाया और मेरा गांव आज भी मुझे किसी भी शहर  से ज्‍यादा खींचता है। इस पर फिर कभी---) हां तो बात दिल्‍ली की। दिल्‍ली के बारे में पहली टिप्‍पणी जब दिल्‍ली से बरेली जा कर बसे अपने मित्र श्री रवि लायटू ( प्रख्‍यात विज्ञान लेखक जो आइवर यूशियल के नाम से लिखते हैं) से की तो वह नाराज हो गये। मैं पंद्रह दिन रह कर बरेली बच्‍चों के पास गया था और उनसे मिलने गया तो उन्‍होने पूछा- कैसी लगी दिल्‍ली? मैने कहा- बहुत बदबू करती है, धूल, धुआं और धक्‍का, बस यही मिला अभी तक । उनके चेहरे पर अप्रिय भाव आया और उन्‍होने पूछा- कहां रह रहे हैं बेटे के पास, कहां मकान ले रखा है ? मैं समझ गया कि चूक हो गयी, वह दिल्‍ली की बहुत तारीफ करते हैं और मैने ऐसा कह दिया। जवाब दिया - यमुना विहार मे । वह बोले- वह पूर्वी दिल्‍ली में है,।( तब तक मैं पूर्वी पश्चिमी का अंतर नहीं समझ पाया था। मैं दिल्‍ली को दिल्‍ली ही समझता था ) दिल्‍ली वही नहीं है जो अभी तक आपने देखी है। पूर्वी दिल्‍ली में तो कोई जाना नहीं पसंद करता था, वह तो दिल्‍ली का सबसे रद्दी इलाका है। चूंकि वहां सस्‍ती जमीन मिली तो लोग वहीं बस गये। अधिकांश पत्रकारों  और मध्‍यम दर्जे के सरकारी कर्मचारियों ने वहां जमीन ले कर मकान बनाया। आज भी दिल्‍ली मे सबसे सस्‍ता इलाका वही है। मयूर विहार मे अधिकांश पत्रकार बसे हैं। तीज त्‍योहारों पर वहीं की फोटो छपती है और वहीं लोगों की फोटो अखबार वाले परिचर्चा में छाप देते हैं। अरे लुटियन की नयी दिल्‍ली ‍उत्‍तरी, दक्षिणी दिल्‍ली देखिए तो असली दिल्‍ली देखने को मिलेगी। दिल्‍ली वह है । मैने कहा तो आप इंडिया की दिल्‍ली  की बात कर रहे हैं। मुझे लगा मैं भारत की दिल्‍ली देख रहा हूं। मैने तो जो देखा वही बताया जो दिल्‍ली मैने देखी ही नहीं उसके बारे मे क्‍या कहूं। बात दूसरे विषय पर आयी तो माहौल बदला। जब मैने यह बात बेटे को बतायी तो उसने कहा - अंकल की बात उनके लिए सही है, लेकिन वही सही नहीं है जो वह कह रहे हैं। व‍ह दिल्‍ली देश के बीस प्रतिशत लोगों की दिल्‍ली है, बाकी दिल्‍ली शेष भारत की दिल्‍ली है।

तो मैने दिल्‍ली का एक टुकड़ा अभी तक देखा था और लायटू साहब के अनुसार वह दिल्‍ली थी ही नहीं। तो जैसा मैने देखा कहूंगा तो वैसा ही न। पहली बार सुबह के समय जब ट्रेन स्‍टेशन के पहले  पुल पर रुकी तो तेज गंध नाक मे घुसी। पूछने पर पता चला कि हम यमुना पुल पर हैं। साथ मे बेटी और पत्‍नी ने विस्‍मय और आश्‍चर्य के भाव से पूछा अरे ये यमुना जी हैं। मैने कहा - सभी नदियों की यही हालत हो गयी है बेटा। तुमने बनारस में गंगा जी को नहीं देखा था कितनी गंदी हो गयी हैं,सिकुड़ भी गयी हैं।। थोड़ी देर के लिए हम लोग शब्‍दहीन हो गये थे। अब तो जब भी ट्रेन से आना होता है तो यमुना का यह रूप देखना आदत बन गयी है, अब विस्‍मय नहीं होता। पिछले महीने कुछ समाजसेवी संस्‍थाओं, कालेज के छात्रों,संतो और देश प्रेमियों ने यमुना को साफ करने का अभियान शुरू किया था ,लगा कि कुछ बदलेगा लेकिन-----

लेकिन इस यमुना के अलावा भी बहुत कुछ देखा यहां। मेरे आवास और दफ्तर के बीच कितने किलोमीटर की दूरी है यह तो नहीं बता सकता लेकिन घर से दफ्तर पहुंचने में कमसे कम डेढ़ घंटा जरूर लगता है। डेढ़ घंटा सुबह और डेढ़ घंटा शाम कुल तीन घंटे बस, आटो और रिक्‍शे पर कटते। रोज ये तीन घंटे अनुभव के नये संसार से रूबरू कराते।सड़क पार करते समय फुर्ती, सतर्कता फिर भी आयेदिन होने वाली दुर्घटनाएं। दौड़कर बस में चढ़ने के बाद भी खड़े-खड़े सफर करने की मजबूरी, उतरते चढ़ते यदि सतर्क न हुए तो किसी भी क्षण  दुर्घटना की संभावना। लेकिन यह सफर भी जिंदगी के कई रूप खोलता  नये अनुभवों से साक्षात्‍कार कराता । लो फ्लोर बसों की अलग, ब्‍लू लाइन की अलग और डीटीसी की अलग। बेटे ने सावधान किया था ब्‍लू लाइन को एवायड कीजिएगा वे चलाते भी रफ हैं और बोलते भी रफ हैं, कभी- कभी उसमे पाकेट भी कट जाते हैं, लो फ्लोर में यह इसलिए नहीं हो पाता क्‍यों क‍ि उसमें चलने पर गेट बंद हो जाता है। लेकिन इन बसों मे महिलाओं की सीट पर पुरूष, वृद्धों की सीट पर युवक और विकलांगों की सीट पर स्‍वस्‍थ लोग बैठे नजर आयेगे जो पात्र यात्री के आने पर भी नहीं उठेंगे। एक बार एक सीट खाली होने पर एक व्‍यक्‍ि‍त्‍ा ने मुझे बैठने का आफर किया तो बगल में खड़े युवक ने खुद आगे बढ़ कर सीट हथिया ली,जब उससे कहा गया अरे उम्र क्‍या ख्‍याल तो किया करो तो उसने जवाब दिया यही करते करते पिछड़ गया। आज उसका जमाना नहीं रहा:-----। हो सकता है उसके अनुभव अलग रहे हों। ऐसे लोग भी मिले जो अपने से उम्र दराज लोगों को पहले बैठने का आफर करते हैं। एक बार एक युवक को एक अधेड़ व्‍यक्ति ने ठीक से बोलने की नसीहत देनी चा‍ही तो उसने धमकी देते हुए कहा ज्‍यादा न बोल नहीं तो काट डालूंगा। आसपास खड़े लोग सन्‍न रह गये। जब वह युवक उतर गया तो एक हरियाणवी ने कहा- ऐसा दिल्‍ली मे ही होता है,मेरे हरियाणा में किसी बुजुर्ग को कोई ऐसा कहकर जा नहीं सकता। यहां तो कोई बोलता ही नहीं। एक सह यात्री ने जवाब दिया बोले तो आप भी नहीं---। दूसरों को धक्‍का दे कर, पैर कुचलते निकलते लोगों मे ऐसे लोग भी मिले जो पैर से छू जानेपर या ध्‍ाक्‍का लगने पर सारी कहते या पैर पर हाथ लगा माफी मांगते, शायद अपने माता पिता से प्राप्‍त संस्‍कार के कारण। एक बार  बाइक पर तेजी से निकलते युवक की बाइक शरीर से हल्‍की छू गयी तो आगे जाकर वह रूका और मुड़कर पूछा अंकल चोट तो नहीं लगी । तेजी से दौड़ती दिल्‍ली में आगे निकलने की होड़ में एकदूसरे का पैर खींचते , गला काटते लोगों मे मदद करते लोग, अनजान घायल को अस्‍पताल पहुचाते लोग, अपने संस्‍कारों की खुशबू बिखेरते लोग   सुकून पहुचाते हैं और अकेले कई लोगों पर भारी पड़ते हैं। ये भी तो दिल्‍ली के ही हैं न।

(30 अप्रैल 2010 को जागरण जंक्शन में प्रकाशित)

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