Wednesday, 26 October 2016

पत्रकारिता में आना -- भाग 3

जनवार्ता मेंं रिपोर्टिंंग में  मुझे कई तरह के अनुभव हुुए  और काम करने की काफी छूट थी। कभी-कभी अकेले पूरा काम देखना पड़ता। हरिवंश जी मस्तमौला आदमी थे। वह जब गांव जाते चार दिन की छुट्टी लेकर तो एक महीने के पहले नहीं अाते। ऐसे में मुझे अकेले पूरी रिपोर्टिग करनी होती। इसमें थेाड़ी मेहनत तो अधिक करनी होती ,लेकिन काम का मजा अााता। उन दिनों  लोकल का एक पेज ही होता। आज आठ पेज का  और जनवार्ता छह पेज का अखबार था। वह लोकल को डेढ़ पेज देता। इस तरह कभी कभी पूरा आठ कालम खुद ही लिखना पड़ता। वंशीधर राजू सांध्‍यकालीन अखबारों से कुुछ अपराध समाचारों की नकल करने में ही मदद कर पाते।

हरिवंश जी ने मुझे रिपोर्टिंग के कई गुर बताए। खबर में क्‍या- क्‍या पता लगाना चाहिए, इंट्रो  में क्‍या और कैसे लिखा जाना चाहिए। इसकेे पहले मैं जनरल डेेस्‍क पर था, जहां   टेलीप्रिंटर  से अंग्रेजी में आई खबरोंं को हिंदी में  लिखा  जाता। बर्मा जी इसमें निष्‍णात थे। वह लीडर,आज,सन्‍मार्ग आदि कई अखबारों मे काम कर चुके थे। यहां भी कईं साल से काम कर रहे  थे। उन्‍होंने अनुवाद करनेे के तरीके,वाक्‍य  विन्‍यास के नियम आदि बताने के साथ ही यह भी बताया कि अंग्रेजी कापी से क्‍या लिया जाए और क्‍या छोड़ा जाए। वह कोई भी खबर लिखने के पहले दो एक बार उसे पढ़ते और पहले उसकी हेेडिंंग्‍ा लिख लेते और फिर खबर  लिखते। खबर लिखते समय कोई न  कोई तथ्‍य वह नीचे से ऊपर ले आते और प्रााय: हेडिंग उसी पर होती। इससे उनकी खबर दूसरे अखबारों  में छपी खबर से अलग हो जाती। अमूमन दूसरे अखबार के उप संपादक ज्‍यों की त्‍यों खबर लिख देते । अपनी खबर को दूसरे अलग बनाने का यह उनका अपना तरीका था।जो भी पत्रकार अपनी खबर को दूसरे से अलग बनाने की कला जानता है,उसकी खबरें भीड़ में अलग दिखती हैं।खैर--।
रिपोर्टिंग में समय अधिक लगता। दोपहर आते समय अस्‍पताल की खबरें देखना, आफिस आकर उन्‍हें लिखना,थानों  से अपडेट लेना,प्रेस कांफ्रेंस सहित  अन्‍य आयोजनों में जाना,आफिस में आई विज्ञप्तियों की छंटाई, जो संपादन लायक होंती,उन्‍हें  संपादित कर प्रेस में  कंपोज होने के लिए भेजना, जो ऐसी न होतीं उन्‍हें रिराइट करना आदि काम करना पडता। रात में फोन से थानों से रिपोर्ट लेना और अंतिम काम डीएम एसएसपी से बात कर किसी राजकीय आदेश आदि की जानकारी लेना आदि होता था। सांस लेने की फुुर्सत नहीं मिलती। लेकिन अपनी टीम में इतना स्‍नेह था कि काम का पता ही नहीं चलता।
थाने से फोन पर खबर लेने और मौके पर जाने से खबर में क्‍या अंतर आ जाता है,इसकी सीख मुझे एक घटना से मिली। जाड़े के दिन थे। हम लोग अपनी टेबल आफिस की छत पर निकाल लेतेअौर जबतक सूरज रहता, वहीं काम करते। एक दिन मैंअस्‍पताल से  अाकर मेज छत पर निकलवा कर खबरें बनाने के बाद विज्ञप्तियों की छंटाई कर रहा था कि प्रधान संंपादक श्री ईश्‍वरचंद्र सिनहा जी मेरे पास आए और कहा --पता हैै चौक में केनारा बैंक में डकैती पड़ गई है। एक व्‍यापारी को गोली मार कर चार लाख रुपये लूूट लिए गए हैं। -- यह जानकारी मेरे एक सूत्र ने दे दी थी। मैने सोचा इतनी बड़ी खबर है तो पुुलिस तो सब बता ही देगी, इसलिए मैंं अपना रुटीन काम निपटा रहा था। मैनेे कहा- जी मुझे भी सूूचना मिली है। इतना सुनते ही वह नाराज हो गए।बोले तुम पत्रकार नहीं  हो , जो ऐसी घटना की जानकारी  होने पर मौके पर न जाए, वह कैसा पत्रकार। मैने कहा-विज्ञप्तियां बना रहा था, सोचा,इन्‍हें खतम कर लूं तो जाऊ्ंंगा। उन्‍होंनेे कहा--तुम मौके पर जाओं , विज्ञप्तियां मैंं  बना देता हूुं। हां, वहां पहले भीड़ में खड़े होकर लोगोंं की बात सुनना, उससे घटना के कई विवरण ऐसे मिलेंगे जो पुुलिस के पास नहीं होंगे। उन्‍हें अपनी खबर मेंं डालोगे तो तुम्‍हारी खबर सबसे अलग बनेगी। मैं घटनास्‍थल  पर पहुंचा और लोगों की बातें सुनने के बाद बैंक में गया। पुलिस पहुुंच चुकी थी। बैंक पहली मंजिल पर था और उसमें जाने के लिए एक पतली सीढ़ी थी। व्‍यापारी बैंक से पैसा निकालकर नीचे उतर रहा था और उसी समय बाहर खड़े बदमाशों ने उसे गोली मार कर पैसे का थैैला लूट लिया और सामने की गली से होते हुुए पैदल ही अंदर दालमंडी की ओर भाग गए। दिन भर घटना की गहमा गहमी रही। उन दिनों चार लाख रुपये बहत बड़ी रकम होती थी। शाम को एसएसपी में चौक थाने में प्रेस कांफ्रेंस की और तब तक कुुछ संदिग्‍ध लोग पकडे जा चुके थे।मैं पूरे दिन इसी एक ही खबर के पीछे लगा रहा। शाम को सिनहा जी ने मुझसे पूरा विवरण पूछा और खुद इंट्रो और हेडिंग लिखने के बाद कहा आगे पूूरी कहानी तुुम लिख दो। लोगों से जो सुुना हैै, उसे चर्चा के अनुसार, कहा जाता हैै आदि  लिखकर पूरी बाात लिख दो। यदि किसी बात का लिंक नहीं मिल रहा है तो उसे ऐसा भी कहा जाता है कि लिखते हुुए लिखो। रात घर लौटते समय मैं कोतवाली थाने होते हुुए गया, जहां पकड़े गए लोगों से पूूछताछ हो रही थी। वहां के थानेदार मेरे परिचित हो गए थे उन्‍होंने घटना  के बारे में कुछ नई जानकारी दी ।जो दूसरे दिन खबर लिखने में काम आई। निश्चित ही दूसरे दिन मेरी खबर किसी से कमजोर नहीं थी,जबकि मैं नया रिपोर्टर था और आज में मंगल जायसवाल जी और राजेंद्र गुप्‍त जी जैसे अनुभवी और पुुुराने पत्रकार थे जिन्हो्नेे यह खबर कवर किए थे।
सिनहाजी  बनारसके बहुत सम्‍मानित  पत्रकार थे।वह कभी आजके मुख्‍य संवाददाताा हुआ करते थे। उनकी कई रिपोर्ट बहुत चर्चित  हुई थी। मुुझेे बताया गया था कि एक बार मुुगलसराय में हुुई एक रेल दुर्घटना की जांच रिपोर्ट  उनकी खबर  के आधार पर लगाई गई थी। बताया गया था कि एक पैसेंजर ट्रेेन के कई लोग मुगलसराय आउटर पर रहस्‍यमय तरीके से मर गए और  बड़ी संख्‍या में लोग घायल हुुए थे।( सही संख्‍या मुझे याद नहीं आ रही है।) ये लोग एक खास  जगह पर ट्रेन से  घायल हुए थे। आसपास दुर्घटना का कोई  काारण नहीं दिख रहा था। सिन्‍हा जी ने खबर  लिखी  कि जहां दुघर्टना हुुई थी उससे जुुड़ी दूसरी लाइन पर एक मालगाड़ी खड़ी थी जिससे सटकर पैसेेजर ट्रेन निकली और जो लोग डब्‍बे  के  गेट से  बाहर लटके या झुुके हुए चल रहे थे, वे इसी  मालगाड़ी से टकराए। दुर्घटना के बाद मालगाड़ी के चालक ने उसे कुछ फुुट अागे  कर  दिया जिससे लोग यह कारण समझ नहीं पाए। सिन्‍हा जी ने लिखा  कि दुुर्घटना का कोई  दूसरा कारण हो  ही नहीं सकता। जब जांच दल ने मालगाड़ी के ड्राइवर से कड़ाई  सेे पूूछताछ की तो उसने अपनी गलती स्‍वीकार कर ली।  एक बार मैं  अकेला रिपोर्टिंग में था और लोकल की कोई  लीड नहीं  मिल पा रही थी। वह मेरे पास  आए और पूछे की आज की मुख्‍य खबर क्‍या है।मैने कहा कि कोई अच्‍छी खबर नहीं हैै जिसे लोकल की लीड बनाया  जा सके। वह वहां से चले गए अौर थोड़ी देर में एक खबर के साथ लौटे जो उस दिन विश्‍वेश्‍वरगंज मंडी में अनाज के  दामों  पर थी। बोले हर रिपोर्टर यदि आंख-कान खुला रखे  तो उसे ऐसी खबरें दिख जाएंगी। उसे ऐसी खबरें अपने रिजर्व स्‍टाक में हमेशा रखनी चाहिए। मैं  कल राशन लेनेे मंडी गया था। वहां गेहूं चावल आदि के  दााम पूछे और उसी पर यह खबर हैै।जाहिर  है अााज के पास वैसी कोई खबर दूसरे  दिन नहीं थी।  (क्रमश:)

पत्रकारिता में आना -- भाग 1

सन् 1972 का अकटूबर का महीना रहा होगा।मैने मिर्जापुर के अकोढ़ी गांवके पास स्थि‍त एम भट्टाचार्य उच्‍चतर माघ्‍यमिक विद्यालय  में शिक्षण कार्य छोड़ कर गांव अाा गया था और खेती में लग गया था। इस स्‍कूल में मैं मुश्किल से एक महीने ही रहा हू्ंंगा और उसे छोड़ना पड़ा। यहां मेरे श्‍वसुुर जीने काम दिलाया था,लेकिन आने-जाने और रहने खाने की कोई ठोस व्‍यवस्‍था न होने से बड़ा कष्‍टसाद्ध्‍य था।मैं श्‍वसुुर जी केसाथ ही रहता था। वह डीआइओएस आफिस में बाबूू थे। विद्यालय के मैनेजर का कोई काम फंसा था।उसे कराने के एवज में उन्‍होंने मेरे लिए नौकरी मांग ली थी। विद्यालय में अंग्रेजी और विज्ञान पढ़ानेे वालेे शिक्षक की कमी थी,उसी के लिए मेरी नियुक्ति मैनेजर साहब ने करली। उन्‍होंने पोस्‍टकार्ड पर मेरी नियुक्ति कीसूचना मेरे गांव के पते से डाली और पत्र पाते ही मैने जाकर उसे ज्‍वाइन कर लिया। मैनेजर सााहब कोई जाायसवाल जी थे, जिन्‍हें शायद लकवा मार चुका था और दोनो हाथ काम नहीं करते थे,लेकिन वह बहुत सरल थे।रोज विद्यालय आते और काफी देर वहां  बैठते। स्कू्ल मिर्जापुुर से लगभग आठ किलोमीटर दूर अष्‍टभुजा पहाडि़यों के आगे था। मेरे दो साथी मिर्जापुर में रहते थे। उनमें एक यादव जी थे। मैं उन्‍हीं की साइकिल पर स्‍कूल जाता।सुबह मैं चलाकर ले जाता,शाम को वह लेआते। मेरे श्‍वसुरजी  खाना बनाने खाने में ढीले थे।सुबह बिना खाए,सिर्फ चायपीकर ही आफिस चले जाते।मुझसे बिना खाए इतनी दूर साइकिल पर जाना और दिन भर पढ़ा कर शाम को लौटना होता था। बनारस से आते समय मेेरी सास जी कुछ खाना बनाकर देतीं,वह दो-एक दिन चलता फिर खत्‍म हो जााता। जिस कमरे मैं श्‍वसुरजी के साथ रहता,वहां साास जीने खाना बनाने की सभी व्‍यवस्‍था कर दी थी,लेकिन वह इसमें ढीले थे,दिन चाय आदि पर ही कट जाता,शाम को कुछ भी खा कर काम चला लेते।हफ्ता इसी तरह कट जाता,शनिवार को बनारस चले जाते।मिर्जापुर उन दिनों छोटा सा शहर था जो पीतल के बर्तनों केलिए मशहूूूर था।अन्‍य कोई उद्यो्ग नहीं था।इसलिए ढाबे आदि इतने नहीं थेे। मुझे मेरे साथी शिक्षक ने बताया कि एक पंडित जी का छोटा सा भोोजनालय था जिसमें आठ बजे तक केवल चावल दाल खाने को मिल जाता।यादव जी वैसेे तो अपने हाथ से खाना बनाते थे लेकिन कभी-कभी वहां खा लेते थे।मैं जब आठ बजे उस भोजनालय पर पहले दिन पहुुंचा तो खौलती दाल और गर्म-गर्म भाप  निकलता  चावल मिला। हमाारे परिवार में सिर्फ चावल दाल खाने वाले लोग नहींं थे और मेरा भी काम नहीं चल पाता था,लेकिन कुछ नहीं से इतना ही काफी था। मैं किसी तरह गर्म गर्म खाना खाता और यादवजी के आवास पर आता।वहां से दोनों लोग स्‍कूल जाते।पहुंचते पहुंचते कक्षाएं शुरूू हो चुकी होतीं।मुझे जूनियर और  एक कक्षा दस मिली थी पढ़ानेकके लिए। चूंकिे अभी तक अंग्रेजी का कोईं मास्‍टर नहीं था।इसलिए छात्र बहुुत खुश थे।इसके पहले भी मैने कानपुर के रावतपुर में दो स्‍कूलों में थोड़ा पढााया था,इसलिए मैैने अध्‍यापन में रुचि लेनी शुरू कर दी। गांव के सरल बच्‍चे थेे जो मन लगाकर पढ़तेे भ्‍ाी। इस स्‍कूल का एक अलग ही अनुभव हुआ। मेरे प्रधानाचार्य उमाशंकर मिश्र जी थे।मैं नया  शिक्षक था, इसलिए वह मेरे पढ़ाते समय छिपकर चेक करते कि मैं कैसा पढ़ा़ रहा हूं। उनके हाव भाव से लगता कि वे संतुुष्‍ट हैं। एक दिन एक घटना हुुई । मैं कक्षा सात मे पहुंचा तो दो छात्र आपस में लड़ रहे थे। मेेरे पहुंचते  ही उन्‍होंने एक दूूसरे की शिकायत की। मैने उस छात्र को दो चपत मारे जिसने दूसरे छात्र को पीटा था और दोनों को  अलग अलग बैठा दिया। प्रधानाचार्यजी यह देख रहे थे। बाद में उन्हो्ने बतााया कि जिस छात्रको  आपने मारा है,वहयहां के एक आपराधिक प्रकृति के व्यक्ति का लड़का है।इसलिए एक बात गांठ बांध लीजिए -कोई पढ़ूे या न पढ़े किसी को मारिएगा मत। मुझे डर भी लगा,लेकिन उन्‍होंने यह भी कहा कि घबड़ाने की बात नहीं है,लेकिन यह सीख ध्‍यान रखिएगा।
मैं इस विद्यालय में लगभग एक महीने रहा।लेकिन अचानक मन उचटा और बिना वेतन लिए चला आया। मैं जिस विद्यालयमें पढ़ाता था,वहां केे लड़के स्‍कूल बंद होने पर भैंस चराने केलिए निकल पड़तेे। यदि स्‍कूल में  थोड़ी देर हो जाती तो वे लंबी लंबी लाठी लिए रास्‍ते में भैस चराते मिल जाते।कक्षा नौ का एक लड़का पास के अकोढ़ी गांव का था। सांवलेे रंग काा वह लड़का पढ़ने तेज था। वह कई बार टेढ़े मेेढेे सवाल पूूछता।लंबे शब्‍दों की स्‍पेलिंग पूछता।ग्रामरके नियम पूछता।उसने अपने पिता से मेरी चर्चा की होगी।स्कू्ल बंद होने के पहले गांव केे कुुछ लोग स्‍कूल में आ जाते, गप्‍प लड़ाते और कभी कभी भांग भी घोटी जाती। कुुछ लोग तो नियमित भांग को सेवन करते। स्‍कुूल में  एक कुआं था।उसके आसपास बड़ीी बड़ी पटिया से बैैठने की बेंचनुमा व्‍यवस्‍था थी। इन्‍हीें में किसी का उपयोग भांग घोंटने के लिए भी किया जाता।ऐसी पटिया घिसकर   सिल का  रूप ले लेती। मिर्जापुर में विंध्‍य की पहाडि़यों में ऐसी पटियां आसानी से मिल जातीं,इसलिए लोग उनका कई तरह से इस्‍तेमाल करते।जिस भोजनालय में मैं खाना खाता,वहां बैठने और मेज के रूप में भी इसी पटिया का इस्‍तेमाल किया जाता।मिर्जापुुर का कोई घर शायद ही मिलेगा जिसमें इस पटिया का इसतेमाल न किया गया हो। तो एक दिन शाम को उसी छात्र के पिता अपने देा कुुछ मित्रों के साथ आए।डन्‍होंने प्रधानाचार्य जी से मेरे बाारेंमे पूछा।फिर मुझे बुलाया। वह लंबी कदकाठी केे थे  और बड़ी बड़ी मूंछें रखे हुुए थे।मुझे लगा कि कहीं वे उसीलड़के के पिता तो नहीं जिसकी मैने पिटाई की थी।लेकिन शीघ्र ही मेरा भ्रम दूर हो गया। उन्‍होने कहा --मेरे बेटे ने आपकी बड़ी तारीफ की हैै। आप भी ब्रााह्मण हैं, मैं भी।मेरा आग्रह है कि आप मेेरे बेटे  को पढ़ा दिया करें।हम किसान हैं।पैसा तो नहीं दे पाएंगे,आप हमारे घर में  रह सकते हैं और जो हम लोेग खाएंगे,वह अाापको भी मिल जाएगा।सहमत हों तो बताएं। मुुझे लगा कि प्रस्ता्व तो ठीक है।रहना खाना फ्री हो जाएगा और वेतन पूूरा बच जाएगा। मैैने उनसे कहा कि  सोच कर बताऊ्रगा। मुझे बताने की नौबत ही नहीं आई।दूसरे दिन ही पंडित जी से उनके पड़ोसी की फौजदारी हो गई और दोनों तरफ के कई लोगों को पुलिस ने पकड़  लिया। जब दूूसरे दिन मैने कक्षा में उस लड़के को नहीं देखा तो अन्‍य लड़कों से पूूछा तो बात पता चली।और कुुछ दिन बाद ही मैने स्‍कूल भी छोड़ दिया। इस घटना के कई साल बाद मैने एक बार उधर से गुुजरते समय देखा कि वह स्‍कूल अब इंटर कालेज हो गया है।
मैने इस स्‍कूल के पहले भी दो जगह पढ़ाया था।  कानपुर के रावतपुुर गांव के दो स्‍कूलों में पहले  छह महीने आदर्श विद्यामंदिर जूनियर हाईस्‍कूूल में फिर रावतपुरके ही श्री रामलला उच्‍चतर माध्‍यमिक विद्यालय में थोड़े दिनों के लिए।इनके अनुभव फिर कभी बताऊंगा।
जब मैने मिर्जापुुर केे स्‍कूल को छोडने का फैसला लिया तो किसी काेे अच्‍छा नहीं लगा, न मेेरे श्‍वसुर जी को
,न सास को और न ही मेरी पत्‍नी को। मै सीधेे मिर्जापुुर से बनारस पहुंचा। रात दस बजे मेरे पहुंचने पर अचानक लोग चौंक गए थे।सबने सोचा कि कुछ गड़बड़ हो गई। लगताा है कि ससुर दाामाद में नहीं पटी। असलियत यह थी कि मेरा मन वहां नहीं  लग रहा था और मैं श्‍वसुर जी से एडजस्‍ट भी नहीं कर पा रहा था।एक दिन सुुसराल में रहने के बाद मैं दूसरे दिन गांव आ गया।वहां भी लोग आश्‍चर्य में पड़ गए कि मैं मास्‍टरी छोड़ कर क्‍यों चला आया। अक्‍टूबर का महीना रहा होगा। मैं पूूरी तरह खेती में रमने की तैयारी करने लगा।खेेती केे गुुर सीखने की कोशिश करने लगा। मेरे दादा जी जिनका नाम सिरताज दूबे था लेकिन दाहिनेे हाथ में अंगूठे के पास एक अतिरिक्‍त अंगुली होने के कारण लोग उन्‍हें  छांगुर दुबे कहते,तब जीवित थे।उस समय उनकी उम्र सौ साल के आसपास रही होगी,और उन्‍हें खेती की हर विधा में दक्षता प्राप्‍त थी।वे किसानी के मेरे पहले गुरू थे। एक साल पहले कानपुर से गांव आने पर मैने उनसे ही खेती का ककहरा सीखा था। खरीफ का सीजन खत्‍म हो गया था और रबी की तैयारी शुरू हो गई थी।मैं भी उसमें लग ही रहा था कि नवंंबर के आखीर  में बनारस से मेरी पत्‍नी के फूफा जी का पत्र आया। वह मुझे बहुत  अधिक चाहते थे। उन्‍होंने लिखा कि मैंने तुम्‍हारी रुचि की नौकरी की पृष्‍ठभूमि तैयार कर दी हैै। यहां से एक नया अखबार निकलता है-जनवार्ता,उसमें प्रशिक्षु उपसंपादक की भर्ती होनी है। मैने तुम्‍हारी ओर से आवेदन कर दिया हैै। उसमें एक लिखित परीक्षा होगी, उसके बाद नियुक्ति होगी।तब तक मैं अखबार के नाम पर कानपुर से निकलने वाले  दैनिक जागरण और बनारस के आज को ही जानताा था। अंग्रेजी में सिर्फ नेशनल हेराल्‍ड का ही नाम सुना था।वह भी इसलिए क्‍योंकि उसमें ही उन दिनों यूपी बोर्ड का रेजल्‍ट छपता।
मैं उनके पत्रसे न तो उत्‍साहित हुआ और न ही निराश, क्‍योंकि तब तक म‍ैं जानता ही नहीं था कि उपसंपादक क्‍या होता हैै और उसे क्‍या काम  करना होता हैै। लेकिन फुफा जी केे इस पत्र ने ही मेरेे पत्रकार होने की नींव तैयार की तब तक मैं कुछ तुुकबंदी करने की कोशिश करता था,और उपन्‍याास- कहानी पढ़ने में रुचि लेता था।उन्‍हें लगा होगा कि इसकी शायद लिखने पढ़ने में रुचि हैै---मैैने अपने इंटर की पढ़ाई के दिनों में जासूसी उपन्‍यास लिखने की कोशिश की थी, जो 15-20 पेजों के अागे नहीं बढ़ पाया।----।
अचानक एक दिन जनवरी  1973 के शुरू में फूूफा जी का पत्र आया कि तुम्‍हें कोई सूूचना गई कि नहीं। यहां 18 जनवरी को परीक्षा है।शायद यह पत्र 18 जनवरी के कुुछ समय पहले ही मिला था और मैं 18 की सुबह बनारस पहुंच गया।फूूफाजी मूुझे लेकर जनवार्ता के कार्यालय काशीपुरा गए। जब हम लोग उसकी सीढि़यां चढ़ रहे थे तो लोग ऊपर सेे नीचे आते मिले।उन्‍होंने आने का मकसद पुूूछा तो हमारे बताने पर उन्‍होंने पराड़कर भवन जाने के लिए कहा। हम लोग वहां पहुंचे। मुझेे बनारस के भूगोल की कोई जानकारी नहीं थी। फूफा जी ही मुुझेे लेकर पराड़कर भवन पहुंचे जो काशी पत्रकार संघ का दफ्तर था। बाद में पता चला कि जो दो लोग मुुझेे जनवार्ता की सीढि़यों से उतरते मिले थे,उनमें एक श्री ईश्‍वरदेव मिश्र  और दूसरे श्री हनुमान प्रसाद शर्मा मनु थे, जिन्‍हें लोग मनुु शर्मा के नामसे जाानते थे।

पत्रकारिता में आना --2

पराड़कर भवन में मेरी तरह कुल40लोग प्रशिक्षुु पत्रकार बनने आए थे। हमें वहां के आगे के हाल में बैठाया गया। एक पेपर दिया गया जिसमें एक अंंग्रेजी से हिंदी और एक हिंदी सेे अंग्रेजी अनुुवाद,कुछ सामान्‍य ज्ञान केे सवाल और एक टुकड़ा हिंंदी में अपनेे विचार इस विषय पर लिखने के लिए कि आप पत्रकार क्‍यों बनना चाहते हैं।समय डेढ़ घंटे का था और कठिन अंग्रेजी शब्‍दों के लिए शब्‍दकोश भी दिया गया। मैनेे तय सीमा केे पहले ही कापी जमा कर दी। चूुंकि मैने विज्ञान (बायोलॉजी)से बीएससी किया था और उस समय विज्ञान की कितााबें हिंदी में नहीं होती थीं,इसिलए इंटर से ही अंग्रेजी में साइंंस पढ़ने से अंग्रेजी बहुत अच्‍छी नहीं तो खराब भी नहीं थी।मेरी शादी हो चुकी थी और शादी में मुुझे दहेज में अन्‍य सामान के अलावा बुश कंपनी का एक ट्राजिस्‍टर मिला था। मेरी आदत बीबीसी सुुनने की हो गई थी।रात साढ़े सात बजे वाले कार्यक्रम में दो दिन पहले ही उसपर पत्रकारिता के महत्‍व पर एक वार्ता प्रसारित हुई थी। मुझे उसकी बातें याद थीं जो उस दिन की परीक्षा में काम आई। बीबीसी सुनने की आदत ने सामान्‍य ज्ञान केे सवाल हल करने में मदद की। उस दिन पहली बार मैने जाना कि देश-दुनिया के बारे में जाानकारी रखना कितना उपयोगी होता है। बाद में समझ में आया कि पत्रकार के लिए अपना ज्ञान बढ़ाते रहना,उसकी सफलता का पहला मंत्र है।
लिखित परीक्षा लेने के बाद वहीं इंटरव्‍यू भी हुुआ।उसमें सर्वश्री ईश्‍वरदेव मिश्र,श्‍यामा प्रसाद शुक्‍ल प्रदीप,हनुमान प्रसाद शर्मा मनुु, ईश्‍वरचंद्र सिन्‍हा और जनवार्ता मालिक बाबू भ्‍ूूलन सिंह भी थे। इंटरव्‍यू केे लिए अकार आदि से नाम बुलाए गए। मेरा नाम र से थाा,इसलिए मेेरा नंबर बाद में आया।जैसा सभी इंटरव्‍यू में होता है, जो भी बााहर निकलता उससे पूछे गए सवालों के बारे में पूछा जाता।जब मेरा नंबर आया तो मुुझसे आधा घ्‍ांटा से अधिक बात की गई-पढ़ाई केे बारे में,परिवार केे बारेे में,शादीके बारे में,सौ रुपये में कैसे खर्च चलेगा अाादि आदि---वह हमें साैै रुपये महीने देने वाले थे और छह महीने बाद इसे दो सौ रुपये करने का वादा किया गया था--जो पूरा नहीं हुआ।छह महीने बाद सिर्फ 25 रुपये बढ़े थे। खैर,इंटरव्‍यू में मनु शर्मा ने एक रोचक सवाल पूछा--कहते हैं कि इंसान का पूर्वज बंदर हैै,इसपर आपका क्‍या कहना हैै।मैने जो उत्‍तर दिया वह आज भी याद है।
मैने कहा--
वैज्ञानिक यह तो नहीं कहते कि इंसान का पूर्वज बंदर हैै। लेकिन डार्विन नामक वैज्ञानिक ने दुनिया के जीवजंतुओं के अध्‍ययन केे बाद विकासवाद का जो सिद्धांंत प्रतिपादित किया,उसके अनुसार धरती पर जितने भी जीव हैं,उनमें शारीरिक संरचना में मनुष्‍य के सबसे निकट जो प्राणी लगता है,वह एप है जो वानरों कीएक उन्‍नत प्रजाति है।इससे उनका अनुमान था कि बहुत मुमकिन है,यही एप विकास की प्रक्रिया में आगे चलकर मानव हो गए होंं।लेकिन यह प्रक्रिया लाखों साल में हुई होगी क्‍योंकि मेरे दादाजी लगभग सौ साल केे ,पिता जी50साल के और 25साल का मैं हूं---और इनमें से किसी ने किसी बंदर को आदमी होते नहीं देखा हैै।
मेरे आखिरी वाक्‍य पर जोर की हंंसी हुई। मनु शर्मा ने कहा--क्‍या बात कही।भूलन सिंह शायद काफी देर से बैठे रहने से ऊब रहे थे।डन्‍हानें जल्‍द फैसला लेने के लिए कहा जिसपर प्रदीप जी ने कहा-- कल काशीपुरा दफ्तर में सुबह साढ़े दस बजे मिलिए।ईश्‍वरदेव जी ने कहा--वहीं जहां सुबह मिले थे।मैं सबसे नमस्‍ते कर बाहर आ गया।बाहर कुुछ और प्रत्‍यशी बैठे थे।मेेरा इंंटरव्‍यू लंबा चला था।फूूफा जी भी बाहर इंतजार कर रहे थे।मैं उनके साथ ससुराल चला गया।उनसे इंटरव्‍यूू की बात बताई तो उन्होंने कहा कि तुम्‍हारा सेलेक्‍शन हो गया,नहीं तो कल दफ्तर में न बुलाते।मेरे मन को भी ऐसा ही लगा। काफी बाद में समझ में आया कि जब इंटरव्‍यू में बाद में सूचना देने को या पत्र ( आजकल ईमेल करने) से सूचित करने को कहा जाए तो समझना चाहिए कि मामला ठीक नहीं हैै,और बात नहीं बनी।
कुछ दिनों बाद पता चला कि तीन लोगों का चुनाव हुआ था लेेकिन केवल मुझे ही पहले दिन बुलाया गया था। कुछ महीने बाद राजन गांधाी को ज्‍वाइन कराया गया और बाद में वशिष्‍ठ मुनि ओझा को। राजन ने बाद में नवभारत टाइम्‍स में ट्रेनी के रूप में ज्‍वाइन किया और धर्मयूग में खेल संपादक हुुए। बाद में कुछ सााल बाद उसका कैंसर से देहांत हो गया।
दूसरे दिन 19 जनवरी 1973 को मैं सुबह दस बजे जनवार्ता केे काशीपुरा स्थित कार्यालय पहुंचा। फूफा जी मुुझे पहुंचा कर शाम को आने के लिए कह कर अपने दफ्तर चले गए। वह नगर निगम के शिक्षा विभाग में शिक्षा अ‍धीक्षक थे।
मैं ईश्‍वरदेव जी से मिला तो वह मुझे लेकर एक संकरे किंतु लंबे कमरे में गए जिसमें कुछ लोग बैठे हुए थे। उन्‍होंने एक बुजुर्ग से व्‍यक्ति को मेरा नाम बताते हुुए कहा कि इन्‍होंने आज संपादकीय विभाग में प्रशिक्षुु केे रूप में ज्‍वाइन किया है। इन्‍हें प्रशिक्षण दीजिए। वह महेंद्रनाथ वर्माजी थे जो मेरे पहले पत्रकारिता गुरु हुए।उन्‍होंनेे भी एक लंबा इंटरव्‍यू लिया-- क्‍यों यह नौकरी कर रहे हो, यहां पैसा नहीं हेैै,इस उम्र में मैं ढाई सौ की नौौकरी कर रहा हूं, कुछ और कर सको तो कर लो आदि आदि। बााद में समझ में आया कि यह कुंठा हर उस पत्रकार को होती है जो ईमानदारी और मेहनत से पत्रकारिता करना चाहता हैै। अब तो पत्रकारों का वेतन काफी हैै लेकिन आज भी दूसरे पेशे केे लोगोंं की तुलना में काफी कम है और उसमें जीना मुश्किल है। वहीं पहली बार श्री त्रिलोचन शास्‍त्री जी के भी दर्शन हुुए। जब वर्माजी मुझेे हतोत्साहित कर रहे थे तो शास्‍त्री जी ने उन्‍हें टोका भी कि क्‍यों बच्‍चे का मन तोड़ रहे हैं।
वर्मा जी ने मुझे काफी निरीह भाव से देखने के बाद एक छोटा सा अ्रग्रेजी में टेलीप्रिंटर का तार दिया और उसे हिंंदी में लिखने केे लिए कहा।मैं पत्रकार बनने आया तो था लेकिन पेन ही लाना भूल गया था। जब मैैने उनसे बताया तो उन्‍होंने कहा-जाइए ईश्‍वरदेव जी से पेेन मांग लीजिए। वह शायद ईश्‍वरदेव जी को यह संदेश भी देना चाहते थे कि देेखिए आपने किसे चुना हैै जो बिना पेेन का पत्रकार बनने चला है।वर्मा जी को शायद भविष्‍य के पेनलेस और पेेपरलेस पत्रकारिता का समय आने का अनुमान नहीं था।मैं यह लैपटाप पर लिख रहा हूूं जिसमें न पेन का योगदान हैै और न ही पेपर का। खैर जब ईश्‍वरदेव जी को पता चला कि मैं बिना पेेन लिए आ गया हूं तो वह मुस्‍कराए और अपने सामने से उठाकर एक पेंसिल उन्‍होंनेे दी। मैंने पहले दिन पहली खबर पेंसिल से लिखी। पहले दिन मैने जाना कि खबर में डेटलाइन क्‍या होती हैै,उसे कैसे लिखा जाता है और उसका क्‍या महत्‍व है। पहले दिन मैने पांच खबरें बनाईं,अधिकतर एक पैरे की, दो-एक दो पैरे की।उन दिनों जनवार्ता दस पैसे का बिकता था।दूूसरे दिन मैने तीस पैसे में तीन अखबार खरीदे क्‍यों कि उसमें मेरी लिखी तीन खबरें छपी थीं।
दो-चार दिनों बाद मुझेे चार छह पन्‍ने की एक बुुकलेट दी गई जो वर्तनी से संबंधित थी ।उसमे बताया गया था कि गया,गयी,गये आदि कैैसे लिखे जाएंंगे अौर क्‍यों। इसके अतिरिक्‍त लगभग 50-60शब्‍दों का रूप बताया गया था कि इसे कैैसे लिखा जाना चाहिए। जैसे अंतरराष्‍ट्रीय, धूमपान,परराष्‍ट्रमंत्री (विदेशमंत्री) स्‍वराष्‍ट्रमंत्री (गृहमंत्री) संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ,राष्‍ट्रकुल (कॉमनवेल्‍थ) दीक्षा समारोह और दीक्षांत भाषण,संख्‍या के लिए भारी न लिखकर बड़ी संख्‍या लिखने,काररवाई ( अब यह शब्‍द न लिखकर कार्रवाई लिखा जाता है) और कार्यवाही में अंतर,खुदाई और खोदाई कहां लिखा जाए आदि कारण सहित स्‍पष्‍ट किया गया था। यह वर्तनी और नियम आज ने बनाए थे जिसे बनारस के सभी अखबार पालन करते। आज की वर्तनी की यह नियमावली जनवार्ता ने भी छाप ली थी जो अपने पत्रकारों को उपलब्‍ध कराता था। आज वर्तनी के मानकीकरण के प्रति पत्रकारों का आग्रह नहीं हैै और अलग अलग अखबारों में एक ही शब्‍द के अलग अलग रूप व्‍यवहार में लाए जाते हैं। जिन अखबारों ने अपनी वर्तनी तय की हैै,वे भी इसका कड़ाई से पालन नहीं करते और कराते है। हिंदी अखबारों में अमर उजाला ने ही सबसे पहले वर्तनी पर काम किया हैै और वह अपने यहां निर्धारित वर्तनी को ही व्‍यवहार में लाता हैै। नवभारत टाइम्‍स ने अपने अलग वर्ग के पाठकों को ध्‍यान में रखकर अपनी भाषा को हिंग्‍िलस रूप दिया है जिसमें अंग्रेजी के शब्‍दों का भरपूर होता है। कुुछ वर्षो से दैनिक जाागरण इस दिशा में लगातार काम कर रहा है, यहां काफी कुछ शब्‍दों के मानक रूप तय हो गए हैं और उनका प्रयोग कड़ाई से किया जा रहा है। बडा समूह होने से नए लोग आते -जाते रहते हैं और नए लोग अपनेे मन से शब्‍दों का प्रयेाग करने ल्रगते हैं। ऐसे लोगों को मानक वर्तनी प्रयोग का प्र‍शिक्षण देने का जिम्‍मा संपादकीय प्रभारियों का होना चाहिए।जागरण पहला अखबार है जिसने अपने पाठकों की सुविधा के लिए प्रचलित क्षेत्रीय शब्‍दों के प्रयोग की अनुमति दी है। उसकी वर्तनी का उद्देश्‍य सरल भाषा में समाचार प्रस्‍तुत करना है और उसकी लोकप्रियता का एक यह भी कारण है।
मैने दो तीन महीने वर्मा जी के साथ काम किया। वह जनरल डेेस्‍क की एक शिफ्ट के इंचार्ज थेे।दूसरी शिफ्ट के इंचार्ज गणपति नावड़ जी थे। वर्मा जी दिन की और नावड़ जी रात की शिफ्ट देखते थे। मैने अधिकतर दिन की ही शिफ्ट में काम किया। बाद के दिनों में रात की शिफ्ट में भी काम करने को मिला।
कुछ दिन जनरल शिफ्ट में काम करने के बाद मुझे रिपोटिंग में भेज दिया गया। उन दिनों हरिवंश तिवारी चीफ रिपोर्टर थे।उनके साथ वंशीधर राजू थे। मैं तीसरा रिपोर्टर हो गया। रिपो‍टिंग के शुरू में मुझेे अस्‍पताल की खबरों का जिम्‍मा सौंपा गया।वहां से दुर्घटना,डकैती मारपीट अादि में घायल लोग लाए जाते इसलिए ऐसी दुुर्घटनाओं की खबरें वहीं से मिलतीं। ऐसे मामले में लोग चूुंकि इमरजेंसी में ही भर्ती होते इसलिए पहले वहीं जाना पड़ता।लोगों सेे तरह तरह के सवाल करने पड़ते।लोग दुखी और परेशान होते, तो भी उनसे खोद खोद कर पूूछना होता। पहले संकोच होता,फिर आदत पड़ गई। शुरू में डिटेल न पूछ सकने के कारण हमारी खबर आज से कमजोर होने लगी तो पता चलता कि हमने कहां गलती की और कहां चूक हो गई। वहीं काम के दौरान वरिष्‍ठ साथियों ने पांच डब्‍ल्‍यू और एक एच के बारे में पता चला। किसी खबर के ये शाश्‍वत अंग हैं।इनमें एक की भी कमी खबर को अधूरा बना देती है। मुझेे कभी कभी थानों में भी फोन कर खबरें लेनी होती।पुुलिसवालों से कैसे पूूरी बात निकाली जाए, यह कला भी रिपोर्टर को आनी चाहिए। नहीं तो वह रुटीन की जानकारी ही देेगा।कुछ पत्रकारों का कुछ पुलिसवालों से याराना हो जाता है। वे अपने प्रिय रिपोर्टर को ही खबरें बताते हैं या अतिरिक्‍त जानकारी देते हैं। ऐसे यार पुलिस वाले सूत्रका भी काम करते हैं। उन्‍हेें कहीं भी कोई सूचना मिलती होो,भले ही वह उनके थाने की न हो, वे अपने प्रिय पत्रकार को इसकी सूूचना दे देते हैं और वह उसे डेवलेप कर लेता हैै। कोतवाली,कप्‍तान के दफ्तर में फोन या फैक्‍स या वासरलेस पर रहने वाले पुलिस वालों के पास ऐसी सूचनाएं पहले आती हैं। यह याराना दोनों के लिए फायदेमंद होता है। पुुलिसवाला जहां पत्रकार को खबरें देता हैै,वहीं पत्रकार जरूरत पर उसे अफसरों के कोपभाजन से बचाता हैै या उसके गुडवर्क को हाईलाइट कर उसकेे प्रमोशन का भी मार्ग प्रशस्‍त करता हैै। जनवार्ता चूंकि आज से छोटा अखबार था और उसका प्रसार भी कम था,इसलिए पुलिस वालों का झुकाव भी उसी की तरफ होता। लेकिन जनवार्ता की लोकप्रियता कम नहीं थी। हमें खबरें निकालने के लिए काफी जूझना पड़ता।
एक प्रकरण याद आता है। उत्‍तर प्रदेश की सपा सरकार में वर्तमान में स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री अहमद हसन उन दिनों सीआ प्रथम थे।उन्‍हें शहर कोतवाल कहा जाता।वह कोतवाली में ही बैठते थे। उनकी आज के चीफ रिपोर्टर राजेंद्र गुप्‍त से अच्‍छी पटती थी और वह खबरें पहले उन्‍हें ही बताते थे। एक दिन वह कोई महत्वपूर्ण खबर उन्‍हें बता रहे थे। जनवार्ता से हरिवंश जी भी उन्‍हें फोन मिला रहे थे। उन दिनों आज की तरह स्‍मार्ट फोन नहीं होते थे। बड़े आकार के काले रंग के फोन होते जिनमें डायल पर दस गोल छेद बने होते थे,जिनके नीचे नंबर लिखे होते।उनमें उंगली डाल कर पूरा चक्‍कर घुमाना पड़ता था। पांच डिजिट के नंबर होतेे थे। अर्थात किसी को फोन मिलाने के लिए पांच बार उंगली डाल कर डायल घुमाना पड़ता। ऐसेे में फोन प्राय: किसी न किसी नंबर से उलझ जाते।यह बड़ी रोचक स्थिति होती।दोनो ओर को दोनों की बात सुनाई देती। जब फोन उलझ जाता तो बहत चाहने पर भी न सुलझता।क्रे‍डिल पर चोंगा रख देने पर भी कनेेक्‍शन नहीं कटता। तो उस दिन भी कोतवाल साहब से हरिवंश जी का नंबर उलझ गया। जब उन्‍हें पता चला कि वह किसी से बात कर रहे हैं तो वह बात सुुनने लगे। राजेंद्र गुुपत ने उनसे कहा कि यह खबर किसी अखबार को न बताइएगा,जनवार्ता को कतई नहीं।अहमद हसन ने कहा नहीं, अब इस समय उनका फोन भी न आएगा और आएगा भी तो नहीं बताऊंगा।वह छोटा अखबार हैै,बस यह खबर आज में छप जाए। खैर,उस समय तो हरिवंश जी ने फेान रख दिया। थोड़ी देर बाद जब दोबारा मिलाया तो कोतवाल साहब ने फेान नहीं उठाया और वह खबर जो शायद कोई शासनादेश था,केवल आज में ही छपा। राजेंद्र गुप्‍त आज में हमेशा रात की ड्यूटी करते।वह रात साढ़ेे आठ बजे दफ्तर आते और खबरे या तो अपडेेट करते या देर रात की खबरों को देखते। तब खबरोंं की इतनी मारा मारी भी नहीं थी। हरिवंंश जी ने अहमद हसन की बात दिल पर ले ली और रोज एक खबर कोतवाली पुलिस के खिलाफ,उसकी लापरवाही और कानून व्‍यवस्‍था पर छपने लगी। हर खबर में यह बात लिखी होती कि देर रात कोतवाल का फोन नहीं उठा। एक हफ्तेे बाद एक दिन शाम को हम लोग आफिस में बैठे थे कि कोतवाल साहब की जीप कैंपस में रुकी और अहमद हसन सीधे संपादक जी केे कमरे में गए। चाय पीने के साथ ही उन्‍होेने उन खबरों की चर्चा की। संपादकजी ने हरिवंंश जी को बुलाया और दोनों की अामने सामने बात कराई, तब तब ईश्‍वरदेव जी को यह प्रकरण नहीं मालुम था। अहमद हसन ने बात बनाने की कोशिश की और कहा कि भाई आप और आज दोनों मेरे लिए समान हैंं। आप जब चाहें मुझसे बात कर सकते हैं,मिल सकते हैं। और इस तरह तनाव-शैथिल्‍य हुआ।(क्रमश:)