सन् 1972 का अकटूबर का महीना रहा होगा।मैने मिर्जापुर के अकोढ़ी गांवके पास स्थित एम भट्टाचार्य उच्चतर माघ्यमिक विद्यालय में शिक्षण कार्य छोड़ कर गांव अाा गया था और खेती में लग गया था। इस स्कूल में मैं मुश्किल से एक महीने ही रहा हू्ंंगा और उसे छोड़ना पड़ा। यहां मेरे श्वसुुर जीने काम दिलाया था,लेकिन आने-जाने और रहने खाने की कोई ठोस व्यवस्था न होने से बड़ा कष्टसाद्ध्य था।मैं श्वसुुर जी केसाथ ही रहता था। वह डीआइओएस आफिस में बाबूू थे। विद्यालय के मैनेजर का कोई काम फंसा था।उसे कराने के एवज में उन्होंने मेरे लिए नौकरी मांग ली थी। विद्यालय में अंग्रेजी और विज्ञान पढ़ानेे वालेे शिक्षक की कमी थी,उसी के लिए मेरी नियुक्ति मैनेजर साहब ने करली। उन्होंने पोस्टकार्ड पर मेरी नियुक्ति कीसूचना मेरे गांव के पते से डाली और पत्र पाते ही मैने जाकर उसे ज्वाइन कर लिया। मैनेजर सााहब कोई जाायसवाल जी थे, जिन्हें शायद लकवा मार चुका था और दोनो हाथ काम नहीं करते थे,लेकिन वह बहुत सरल थे।रोज विद्यालय आते और काफी देर वहां बैठते। स्कू्ल मिर्जापुुर से लगभग आठ किलोमीटर दूर अष्टभुजा पहाडि़यों के आगे था। मेरे दो साथी मिर्जापुर में रहते थे। उनमें एक यादव जी थे। मैं उन्हीं की साइकिल पर स्कूल जाता।सुबह मैं चलाकर ले जाता,शाम को वह लेआते। मेरे श्वसुरजी खाना बनाने खाने में ढीले थे।सुबह बिना खाए,सिर्फ चायपीकर ही आफिस चले जाते।मुझसे बिना खाए इतनी दूर साइकिल पर जाना और दिन भर पढ़ा कर शाम को लौटना होता था। बनारस से आते समय मेेरी सास जी कुछ खाना बनाकर देतीं,वह दो-एक दिन चलता फिर खत्म हो जााता। जिस कमरे मैं श्वसुरजी के साथ रहता,वहां साास जीने खाना बनाने की सभी व्यवस्था कर दी थी,लेकिन वह इसमें ढीले थे,दिन चाय आदि पर ही कट जाता,शाम को कुछ भी खा कर काम चला लेते।हफ्ता इसी तरह कट जाता,शनिवार को बनारस चले जाते।मिर्जापुर उन दिनों छोटा सा शहर था जो पीतल के बर्तनों केलिए मशहूूूर था।अन्य कोई उद्यो्ग नहीं था।इसलिए ढाबे आदि इतने नहीं थेे। मुझे मेरे साथी शिक्षक ने बताया कि एक पंडित जी का छोटा सा भोोजनालय था जिसमें आठ बजे तक केवल चावल दाल खाने को मिल जाता।यादव जी वैसेे तो अपने हाथ से खाना बनाते थे लेकिन कभी-कभी वहां खा लेते थे।मैं जब आठ बजे उस भोजनालय पर पहले दिन पहुुंचा तो खौलती दाल और गर्म-गर्म भाप निकलता चावल मिला। हमाारे परिवार में सिर्फ चावल दाल खाने वाले लोग नहींं थे और मेरा भी काम नहीं चल पाता था,लेकिन कुछ नहीं से इतना ही काफी था। मैं किसी तरह गर्म गर्म खाना खाता और यादवजी के आवास पर आता।वहां से दोनों लोग स्कूल जाते।पहुंचते पहुंचते कक्षाएं शुरूू हो चुकी होतीं।मुझे जूनियर और एक कक्षा दस मिली थी पढ़ानेकके लिए। चूंकिे अभी तक अंग्रेजी का कोईं मास्टर नहीं था।इसलिए छात्र बहुुत खुश थे।इसके पहले भी मैने कानपुर के रावतपुर में दो स्कूलों में थोड़ा पढााया था,इसलिए मैैने अध्यापन में रुचि लेनी शुरू कर दी। गांव के सरल बच्चे थेे जो मन लगाकर पढ़तेे भ्ाी। इस स्कूल का एक अलग ही अनुभव हुआ। मेरे प्रधानाचार्य उमाशंकर मिश्र जी थे।मैं नया शिक्षक था, इसलिए वह मेरे पढ़ाते समय छिपकर चेक करते कि मैं कैसा पढ़ा़ रहा हूं। उनके हाव भाव से लगता कि वे संतुुष्ट हैं। एक दिन एक घटना हुुई । मैं कक्षा सात मे पहुंचा तो दो छात्र आपस में लड़ रहे थे। मेेरे पहुंचते ही उन्होंने एक दूूसरे की शिकायत की। मैने उस छात्र को दो चपत मारे जिसने दूसरे छात्र को पीटा था और दोनों को अलग अलग बैठा दिया। प्रधानाचार्यजी यह देख रहे थे। बाद में उन्हो्ने बतााया कि जिस छात्रको आपने मारा है,वहयहां के एक आपराधिक प्रकृति के व्यक्ति का लड़का है।इसलिए एक बात गांठ बांध लीजिए -कोई पढ़ूे या न पढ़े किसी को मारिएगा मत। मुझे डर भी लगा,लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि घबड़ाने की बात नहीं है,लेकिन यह सीख ध्यान रखिएगा।
मैं इस विद्यालय में लगभग एक महीने रहा।लेकिन अचानक मन उचटा और बिना वेतन लिए चला आया। मैं जिस विद्यालयमें पढ़ाता था,वहां केे लड़के स्कूल बंद होने पर भैंस चराने केलिए निकल पड़तेे। यदि स्कूल में थोड़ी देर हो जाती तो वे लंबी लंबी लाठी लिए रास्ते में भैस चराते मिल जाते।कक्षा नौ का एक लड़का पास के अकोढ़ी गांव का था। सांवलेे रंग काा वह लड़का पढ़ने तेज था। वह कई बार टेढ़े मेेढेे सवाल पूूछता।लंबे शब्दों की स्पेलिंग पूछता।ग्रामरके नियम पूछता।उसने अपने पिता से मेरी चर्चा की होगी।स्कू्ल बंद होने के पहले गांव केे कुुछ लोग स्कूल में आ जाते, गप्प लड़ाते और कभी कभी भांग भी घोटी जाती। कुुछ लोग तो नियमित भांग को सेवन करते। स्कुूल में एक कुआं था।उसके आसपास बड़ीी बड़ी पटिया से बैैठने की बेंचनुमा व्यवस्था थी। इन्हीें में किसी का उपयोग भांग घोंटने के लिए भी किया जाता।ऐसी पटिया घिसकर सिल का रूप ले लेती। मिर्जापुर में विंध्य की पहाडि़यों में ऐसी पटियां आसानी से मिल जातीं,इसलिए लोग उनका कई तरह से इस्तेमाल करते।जिस भोजनालय में मैं खाना खाता,वहां बैठने और मेज के रूप में भी इसी पटिया का इस्तेमाल किया जाता।मिर्जापुुर का कोई घर शायद ही मिलेगा जिसमें इस पटिया का इसतेमाल न किया गया हो। तो एक दिन शाम को उसी छात्र के पिता अपने देा कुुछ मित्रों के साथ आए।डन्होंने प्रधानाचार्य जी से मेरे बाारेंमे पूछा।फिर मुझे बुलाया। वह लंबी कदकाठी केे थे और बड़ी बड़ी मूंछें रखे हुुए थे।मुझे लगा कि कहीं वे उसीलड़के के पिता तो नहीं जिसकी मैने पिटाई की थी।लेकिन शीघ्र ही मेरा भ्रम दूर हो गया। उन्होने कहा --मेरे बेटे ने आपकी बड़ी तारीफ की हैै। आप भी ब्रााह्मण हैं, मैं भी।मेरा आग्रह है कि आप मेेरे बेटे को पढ़ा दिया करें।हम किसान हैं।पैसा तो नहीं दे पाएंगे,आप हमारे घर में रह सकते हैं और जो हम लोेग खाएंगे,वह अाापको भी मिल जाएगा।सहमत हों तो बताएं। मुुझे लगा कि प्रस्ता्व तो ठीक है।रहना खाना फ्री हो जाएगा और वेतन पूूरा बच जाएगा। मैैने उनसे कहा कि सोच कर बताऊ्रगा। मुझे बताने की नौबत ही नहीं आई।दूसरे दिन ही पंडित जी से उनके पड़ोसी की फौजदारी हो गई और दोनों तरफ के कई लोगों को पुलिस ने पकड़ लिया। जब दूूसरे दिन मैने कक्षा में उस लड़के को नहीं देखा तो अन्य लड़कों से पूूछा तो बात पता चली।और कुुछ दिन बाद ही मैने स्कूल भी छोड़ दिया। इस घटना के कई साल बाद मैने एक बार उधर से गुुजरते समय देखा कि वह स्कूल अब इंटर कालेज हो गया है।
,न सास को और न ही मेरी पत्नी को। मै सीधेे मिर्जापुुर से बनारस पहुंचा। रात दस बजे मेरे पहुंचने पर अचानक लोग चौंक गए थे।सबने सोचा कि कुछ गड़बड़ हो गई। लगताा है कि ससुर दाामाद में नहीं पटी। असलियत यह थी कि मेरा मन वहां नहीं लग रहा था और मैं श्वसुर जी से एडजस्ट भी नहीं कर पा रहा था।एक दिन सुुसराल में रहने के बाद मैं दूसरे दिन गांव आ गया।वहां भी लोग आश्चर्य में पड़ गए कि मैं मास्टरी छोड़ कर क्यों चला आया। अक्टूबर का महीना रहा होगा। मैं पूूरी तरह खेती में रमने की तैयारी करने लगा।खेेती केे गुुर सीखने की कोशिश करने लगा। मेरे दादा जी जिनका नाम सिरताज दूबे था लेकिन दाहिनेे हाथ में अंगूठे के पास एक अतिरिक्त अंगुली होने के कारण लोग उन्हें छांगुर दुबे कहते,तब जीवित थे।उस समय उनकी उम्र सौ साल के आसपास रही होगी,और उन्हें खेती की हर विधा में दक्षता प्राप्त थी।वे किसानी के मेरे पहले गुरू थे। एक साल पहले कानपुर से गांव आने पर मैने उनसे ही खेती का ककहरा सीखा था। खरीफ का सीजन खत्म हो गया था और रबी की तैयारी शुरू हो गई थी।मैं भी उसमें लग ही रहा था कि नवंंबर के आखीर में बनारस से मेरी पत्नी के फूफा जी का पत्र आया। वह मुझे बहुत अधिक चाहते थे। उन्होंने लिखा कि मैंने तुम्हारी रुचि की नौकरी की पृष्ठभूमि तैयार कर दी हैै। यहां से एक नया अखबार निकलता है-जनवार्ता,उसमें प्रशिक्षु उपसंपादक की भर्ती होनी है। मैने तुम्हारी ओर से आवेदन कर दिया हैै। उसमें एक लिखित परीक्षा होगी, उसके बाद नियुक्ति होगी।तब तक मैं अखबार के नाम पर कानपुर से निकलने वाले दैनिक जागरण और बनारस के आज को ही जानताा था। अंग्रेजी में सिर्फ नेशनल हेराल्ड का ही नाम सुना था।वह भी इसलिए क्योंकि उसमें ही उन दिनों यूपी बोर्ड का रेजल्ट छपता।
मैं उनके पत्रसे न तो उत्साहित हुआ और न ही निराश, क्योंकि तब तक मैं जानता ही नहीं था कि उपसंपादक क्या होता हैै और उसे क्या काम करना होता हैै। लेकिन फुफा जी केे इस पत्र ने ही मेरेे पत्रकार होने की नींव तैयार की तब तक मैं कुछ तुुकबंदी करने की कोशिश करता था,और उपन्याास- कहानी पढ़ने में रुचि लेता था।उन्हें लगा होगा कि इसकी शायद लिखने पढ़ने में रुचि हैै---मैैने अपने इंटर की पढ़ाई के दिनों में जासूसी उपन्यास लिखने की कोशिश की थी, जो 15-20 पेजों के अागे नहीं बढ़ पाया।----।
अचानक एक दिन जनवरी 1973 के शुरू में फूूफा जी का पत्र आया कि तुम्हें कोई सूूचना गई कि नहीं। यहां 18 जनवरी को परीक्षा है।शायद यह पत्र 18 जनवरी के कुुछ समय पहले ही मिला था और मैं 18 की सुबह बनारस पहुंच गया।फूूफाजी मूुझे लेकर जनवार्ता के कार्यालय काशीपुरा गए। जब हम लोग उसकी सीढि़यां चढ़ रहे थे तो लोग ऊपर सेे नीचे आते मिले।उन्होंने आने का मकसद पुूूछा तो हमारे बताने पर उन्होंने पराड़कर भवन जाने के लिए कहा। हम लोग वहां पहुंचे। मुझेे बनारस के भूगोल की कोई जानकारी नहीं थी। फूफा जी ही मुुझेे लेकर पराड़कर भवन पहुंचे जो काशी पत्रकार संघ का दफ्तर था। बाद में पता चला कि जो दो लोग मुुझेे जनवार्ता की सीढि़यों से उतरते मिले थे,उनमें एक श्री ईश्वरदेव मिश्र और दूसरे श्री हनुमान प्रसाद शर्मा मनु थे, जिन्हें लोग मनुु शर्मा के नामसे जाानते थे।
मैं इस विद्यालय में लगभग एक महीने रहा।लेकिन अचानक मन उचटा और बिना वेतन लिए चला आया। मैं जिस विद्यालयमें पढ़ाता था,वहां केे लड़के स्कूल बंद होने पर भैंस चराने केलिए निकल पड़तेे। यदि स्कूल में थोड़ी देर हो जाती तो वे लंबी लंबी लाठी लिए रास्ते में भैस चराते मिल जाते।कक्षा नौ का एक लड़का पास के अकोढ़ी गांव का था। सांवलेे रंग काा वह लड़का पढ़ने तेज था। वह कई बार टेढ़े मेेढेे सवाल पूूछता।लंबे शब्दों की स्पेलिंग पूछता।ग्रामरके नियम पूछता।उसने अपने पिता से मेरी चर्चा की होगी।स्कू्ल बंद होने के पहले गांव केे कुुछ लोग स्कूल में आ जाते, गप्प लड़ाते और कभी कभी भांग भी घोटी जाती। कुुछ लोग तो नियमित भांग को सेवन करते। स्कुूल में एक कुआं था।उसके आसपास बड़ीी बड़ी पटिया से बैैठने की बेंचनुमा व्यवस्था थी। इन्हीें में किसी का उपयोग भांग घोंटने के लिए भी किया जाता।ऐसी पटिया घिसकर सिल का रूप ले लेती। मिर्जापुर में विंध्य की पहाडि़यों में ऐसी पटियां आसानी से मिल जातीं,इसलिए लोग उनका कई तरह से इस्तेमाल करते।जिस भोजनालय में मैं खाना खाता,वहां बैठने और मेज के रूप में भी इसी पटिया का इस्तेमाल किया जाता।मिर्जापुुर का कोई घर शायद ही मिलेगा जिसमें इस पटिया का इसतेमाल न किया गया हो। तो एक दिन शाम को उसी छात्र के पिता अपने देा कुुछ मित्रों के साथ आए।डन्होंने प्रधानाचार्य जी से मेरे बाारेंमे पूछा।फिर मुझे बुलाया। वह लंबी कदकाठी केे थे और बड़ी बड़ी मूंछें रखे हुुए थे।मुझे लगा कि कहीं वे उसीलड़के के पिता तो नहीं जिसकी मैने पिटाई की थी।लेकिन शीघ्र ही मेरा भ्रम दूर हो गया। उन्होने कहा --मेरे बेटे ने आपकी बड़ी तारीफ की हैै। आप भी ब्रााह्मण हैं, मैं भी।मेरा आग्रह है कि आप मेेरे बेटे को पढ़ा दिया करें।हम किसान हैं।पैसा तो नहीं दे पाएंगे,आप हमारे घर में रह सकते हैं और जो हम लोेग खाएंगे,वह अाापको भी मिल जाएगा।सहमत हों तो बताएं। मुुझे लगा कि प्रस्ता्व तो ठीक है।रहना खाना फ्री हो जाएगा और वेतन पूूरा बच जाएगा। मैैने उनसे कहा कि सोच कर बताऊ्रगा। मुझे बताने की नौबत ही नहीं आई।दूसरे दिन ही पंडित जी से उनके पड़ोसी की फौजदारी हो गई और दोनों तरफ के कई लोगों को पुलिस ने पकड़ लिया। जब दूूसरे दिन मैने कक्षा में उस लड़के को नहीं देखा तो अन्य लड़कों से पूूछा तो बात पता चली।और कुुछ दिन बाद ही मैने स्कूल भी छोड़ दिया। इस घटना के कई साल बाद मैने एक बार उधर से गुुजरते समय देखा कि वह स्कूल अब इंटर कालेज हो गया है।
मैने इस स्कूल के पहले भी दो जगह पढ़ाया था। कानपुर के रावतपुुर गांव के दो स्कूलों में पहले छह महीने आदर्श विद्यामंदिर जूनियर हाईस्कूूल में फिर रावतपुरके ही श्री रामलला उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में थोड़े दिनों के लिए।इनके अनुभव फिर कभी बताऊंगा।
जब मैने मिर्जापुुर केे स्कूल को छोडने का फैसला लिया तो किसी काेे अच्छा नहीं लगा, न मेेरे श्वसुर जी को,न सास को और न ही मेरी पत्नी को। मै सीधेे मिर्जापुुर से बनारस पहुंचा। रात दस बजे मेरे पहुंचने पर अचानक लोग चौंक गए थे।सबने सोचा कि कुछ गड़बड़ हो गई। लगताा है कि ससुर दाामाद में नहीं पटी। असलियत यह थी कि मेरा मन वहां नहीं लग रहा था और मैं श्वसुर जी से एडजस्ट भी नहीं कर पा रहा था।एक दिन सुुसराल में रहने के बाद मैं दूसरे दिन गांव आ गया।वहां भी लोग आश्चर्य में पड़ गए कि मैं मास्टरी छोड़ कर क्यों चला आया। अक्टूबर का महीना रहा होगा। मैं पूूरी तरह खेती में रमने की तैयारी करने लगा।खेेती केे गुुर सीखने की कोशिश करने लगा। मेरे दादा जी जिनका नाम सिरताज दूबे था लेकिन दाहिनेे हाथ में अंगूठे के पास एक अतिरिक्त अंगुली होने के कारण लोग उन्हें छांगुर दुबे कहते,तब जीवित थे।उस समय उनकी उम्र सौ साल के आसपास रही होगी,और उन्हें खेती की हर विधा में दक्षता प्राप्त थी।वे किसानी के मेरे पहले गुरू थे। एक साल पहले कानपुर से गांव आने पर मैने उनसे ही खेती का ककहरा सीखा था। खरीफ का सीजन खत्म हो गया था और रबी की तैयारी शुरू हो गई थी।मैं भी उसमें लग ही रहा था कि नवंंबर के आखीर में बनारस से मेरी पत्नी के फूफा जी का पत्र आया। वह मुझे बहुत अधिक चाहते थे। उन्होंने लिखा कि मैंने तुम्हारी रुचि की नौकरी की पृष्ठभूमि तैयार कर दी हैै। यहां से एक नया अखबार निकलता है-जनवार्ता,उसमें प्रशिक्षु उपसंपादक की भर्ती होनी है। मैने तुम्हारी ओर से आवेदन कर दिया हैै। उसमें एक लिखित परीक्षा होगी, उसके बाद नियुक्ति होगी।तब तक मैं अखबार के नाम पर कानपुर से निकलने वाले दैनिक जागरण और बनारस के आज को ही जानताा था। अंग्रेजी में सिर्फ नेशनल हेराल्ड का ही नाम सुना था।वह भी इसलिए क्योंकि उसमें ही उन दिनों यूपी बोर्ड का रेजल्ट छपता।
मैं उनके पत्रसे न तो उत्साहित हुआ और न ही निराश, क्योंकि तब तक मैं जानता ही नहीं था कि उपसंपादक क्या होता हैै और उसे क्या काम करना होता हैै। लेकिन फुफा जी केे इस पत्र ने ही मेरेे पत्रकार होने की नींव तैयार की तब तक मैं कुछ तुुकबंदी करने की कोशिश करता था,और उपन्याास- कहानी पढ़ने में रुचि लेता था।उन्हें लगा होगा कि इसकी शायद लिखने पढ़ने में रुचि हैै---मैैने अपने इंटर की पढ़ाई के दिनों में जासूसी उपन्यास लिखने की कोशिश की थी, जो 15-20 पेजों के अागे नहीं बढ़ पाया।----।
अचानक एक दिन जनवरी 1973 के शुरू में फूूफा जी का पत्र आया कि तुम्हें कोई सूूचना गई कि नहीं। यहां 18 जनवरी को परीक्षा है।शायद यह पत्र 18 जनवरी के कुुछ समय पहले ही मिला था और मैं 18 की सुबह बनारस पहुंच गया।फूूफाजी मूुझे लेकर जनवार्ता के कार्यालय काशीपुरा गए। जब हम लोग उसकी सीढि़यां चढ़ रहे थे तो लोग ऊपर सेे नीचे आते मिले।उन्होंने आने का मकसद पुूूछा तो हमारे बताने पर उन्होंने पराड़कर भवन जाने के लिए कहा। हम लोग वहां पहुंचे। मुझेे बनारस के भूगोल की कोई जानकारी नहीं थी। फूफा जी ही मुुझेे लेकर पराड़कर भवन पहुंचे जो काशी पत्रकार संघ का दफ्तर था। बाद में पता चला कि जो दो लोग मुुझेे जनवार्ता की सीढि़यों से उतरते मिले थे,उनमें एक श्री ईश्वरदेव मिश्र और दूसरे श्री हनुमान प्रसाद शर्मा मनु थे, जिन्हें लोग मनुु शर्मा के नामसे जाानते थे।
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