Monday, 8 August 2016

नई कोपलौं के नाम

कल मैं आफिस के लिए निकल ही रहा था कि दिव्‍या ने कहा, पापा-- विद्यार्थी अंकल ने एक किताब भेजी है। और उसने आलमारी से निकाल एक पतली सी पुस्‍तक दी--लौटना कठिन है। वह तब तक उसे उलट-पुलट चुकी थी। यह विद्यार्थी जी की नई पुस्‍तक है, जो पिछले महीने ही छपी है। जब विद्यार्थी जी ने फोन पर यह जानकारी दी थी, तो मैने, उसे भ्‍ोजने का आग्रह किया था। अस्‍व्‍ास्‍थ हो जाने से जब वह शीघ्र नहीं भेज पाए तो तीन दिन पहले ही मैने उन्‍हें याद दिलाया था। यह उनकी डायरी के उन दिनों के अंश हैं जब वह पीलीभीत के नवोदय विद्यालय मे रचनात्‍मक लेखन की कार्यशाला के सिलसिले में पंद्रह दिन तक वहां बच्‍चों के बीच रह कर उन्‍हें लेखन की विविध विधाओं  का प्रशिक्षण देते रहे थे। वैसे मै विद्यार्थी जी की कई किताबें पढ़ चुका हूं लेकिन इस किताब को लेकर मेरी जिज्ञासा कुछ अधिक ही थी। इस कार्यशाला के समापन के बाद जब वह बरेली लौटे थे तो मुझसे दैनिक जागरण कार्यालय में मिले थे । वह कार्यशाला के अनुभव बताते हुए आह्लादित थे --  मुझे ऐसा अनुभव पहले कभी नहीं मिला था। बच्‍चों के साथ कब पंद्रह दिन बीत गए , मुझे पता ही नहीं चला। बच्‍चे कितने जिज्ञासु,भावुक और रचनात्‍मक होते हैं, यह अनुभव कर मैं  रोमांचित हो जाता हूं। उन्‍होने मुझे विद्यालय के कन्‍नड़ शिक्षक लोहित शेट्टी के बारे में एक छोटा सा लेख दिया और आग्रह किया कि इसे पीलीभीत संस्‍करण में छाप दें। मैने उसे पीलीभीत के समाचार देख रहे साथी को दे दिया और उसे पेज चार पर बाक्‍स में छापने के लिए कह दिया। लेख के साथ शिक्षक का पासपोर्ट साइज फोटो भी था। लेख छपा, लेकिन फोटो टिकट साइज  छपने और शिक्षक के नाम में वर्तनी की गलती हो जाने पर वह खिन्‍न हो गए थे। इससे मैं उनका उस विद्यालय और शिक्षक के साथ लगाव अनुभव कर सका था। इसके कारण भी मैं उनकी किताब पढ़ने के लिए उत्‍सुक था।

मैने सोचा आज आफिस के रास्‍ते पौन घंटे की अपनी बस यात्रा का सदुपयोग कर लूं। संयोग ही था कि बस मे चढ़ते ही सीट मिल गई। आनंद विहार बस अड्डे पहुंचते-पहुंचते मैं 25 पेज पढ़ चुका था। 63 पेज की किताब का शेष दफ्तर में खाली होने पर पढ़ गया। किताब इतनी रोचक थी भी, कि उसे बिना पूरी किए रुका ही नहीं जा सकता था । उसका परिचय(आमुख) संवाद शीर्षक से सुकेश साहनी ने लिखा है जिसमें उन्‍होने खलील जिब्रान की एक कमाल की लघुकथा का संदर्भ दिया है। वैसे भी खलील जिब्रान लघुकथाओं के बेताज बादशाह तो हैं ही।

शिक्षक और छात्र के बीच कितना गहन अ‍ात्मिक संबंध हो सकता है, यह जानना हो तो इस किताब को पढ़ना जरूरी है। कितने शिक्षक हैं जो बच्‍चों में छिपी रचनात्‍मकता को समझ, उसे सही दिशा दे पाते हैं, शायद कम। और जो ऐसा कर पाते हैं , उनसे छात्रों का भावनात्‍मक  अटूट रिश्‍ता कायम हो जाता है। पंद्रह दिन के भीतर ही उस कार्यशाला के पैंतीस बच्‍चों से विद्यार्थी जी का जो रिश्‍ता कायम हुआ, वह उन्‍हे लिखे बच्‍चों के पत्रों से जाहिर होता है। यह पारस्‍परिक आत्मिकता का ही परिणाम था कि कार्यशाला के दौरान एक दिन विद्यार्थी जी के जीवन के पुत्र विछोह जैसे निजी प्रसंगों को सुन बच्‍चे सिसकियां भरने लगते हैं  और खुद उन्‍हें लगता हैं कि उनसे कैसे यह अपराध हो गया । कार्यशाला के समापन पर लौटते समय वह बच्‍चों से अपने को मानसिक रूप से अलग करने में असमर्थ पाते हैं, तभी तो वह कहते हैं ----लेकिन मैं भी तो उसी  स्‍थान पर खड़ा हूं अब तक-- अपने प्रिय बच्‍चों के बीच बतियाता और हंसता हुआ--बीते पखवाड़े के हर रोज की तरह।--- क्‍या लौटना बहुत कठिन नहीं है मेरे लिए। वह बच्‍चों को कुछ देने गए थे और उनकी स्‍वीकारोक्ति है कि  वह बच्‍चों से बहुत कुछ लेकर लौटे हैं। वे ही क्‍यों बच्‍चों ने भी पंद्रह दिनों में जो सीखा और अनुभव किया वह उनके अब तक के स्‍कूली जीवन में कभी नहीं मिला था--ऐसा उन्‍होने अपने पत्रों में खुद लिखा है।
लौटना कठिन है--- में कोई अघ्‍याय विभाजन नहीं है। 7 से 22 नवंबर 2009 के बीच उन पंद्रह दिनों के डायरी के अंश अलग- अलग शीर्षकों से हैं। बीच- बीच में छात्रों और विद्यार्थी जी के बीच हुए संवादों का विवरण  और छात्रों द्वारा उन्‍हें लिखे पत्रों का मजमुन है। कुछ पत्रों से लगता है कि ये बच्‍चे लेखक बनें या न बनें उनमें लेखन की नैसर्गिक  प्रतिभा है, जिसे विद्यार्थी जी की कार्यशाला ने  व्‍यक्‍त करने का मौका  दिया। मुझे तो लगता है कि ऐसी कार्यशालाएं हर विद्यालय को करानी चाहिए। लेखन की  डायरी विधा का अनुपम नमूना है ::लौटना कठिन है।

(11 अक्टूबर 2010 को जागरण जंक्शन में प्रकाशित)
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Monday, 1 August 2016

पत्रकारिता के मेरे पहले गुरु श्यामा प्रसाद शुक्ल प्रदीपजी

सामान्‍य सा कद, पका गेहुंआं रंग,सिरपर थोड़े से बचे रूखे बाल,खादी का धोती-कुर्ता,पैरों में साधारण सी चप्‍पल,कभी-कभी कंधेपर खादी का थैला जिसमें कुछ किताबें,मैगजीन आदि। मैने ऐसा ही देखा था प्रदीप जी को। पूरा नाम श्‍यामा प्रसाद शुक्‍ल। प्रदीप उनका उपनाम था और इसी नाम से वह पूरे बनारस में ही नहीं पत्रकारिता जगत में भी जाने जाते थे। अपना परिचय देते समय वह शुक्‍ल नहीं लगाते और लेखों के साथ भी लेखक के रूप में भी उनके नाम के साथ शुक्‍ल नहीं लगता। प्रदीप जी जैसा प्रखर पत्रकार मैने नहीं देखा।  आचार- विचार से पूरी तरह गांधीवादी,चिंतन-व्‍यवहार मे विशुद्ध भारतीय मूल्‍यों के पोषक । पत्रकार के रूपमे वैसे स्‍पष्‍टवादी,निर्भीक और पीडि़त के साथ खड़ा होने वाले बिरले ही होते हैं। नौकरी ठेंगेपर रखते थे, जरा सी बात मन के अनुरूप नहीं हुई कि चट इस्‍तीफा। इधर नौकरी छोड़ी उधर दूसरे अखबार का प्रस्‍ताव तैयार। सिद्धांतों से समझौता कभी नहीं किया उन्‍होने। इसी से कभी टिक कर किसी अखबार मे काम नहीं किया। विश्‍वमित्र, आज, संसार, सैनिक,भारत,जनवार्ता, सन्‍मार्ग,प्रतिपक्ष,एवरीमैन, तरूण भारत कुल 32 अखबारों में (उनके पुत्र अधीर प्रदीप के अनुसार) काम किया, लेकिन प्राय: सबमें बस कुछेक साल ही रहे, कभी-कभी तो बस कुछ महीने। मैं उनके सानिध्‍य में 1973 में जनवार्ता में पत्रकारिता के अपने शुरूआती दिनों में आया और जिन कुछ लोगों को उनका विशेष स्‍नेह मिला उनमें मैं भी हूं। मैं उनका नाम नहीं लेता था, उन्‍हें काका कहता था। इसकी भी एक कहानी है। जब मैं जनवार्ता में प्रशिक्षु के रूप में काम सीख रहा था तो एकदिन मैने उनसे कहा- आप मेरे पिता की उम्र के हैं और मेरे गुरु की भूमिका निभा रहे हैं, अत: मैं आपका नाम नहीं लेना चाहता, आप बतायें मैं आप को और कौन सा संबोधन दूं। वह इस बात से अंदर से बहुत खुश हुए और किंचित रुक कर बोले- मेरा बेटा मुझे काका कहता है, तुम भी मुझे काका कहा करो। और उस दिन से वह मेरे काका हो गये। बातचीत और पत्र व्‍यवहार मे यही संबोधन हम लोगों के बीच चलता।

                                        यह सन् 73 की जनवरी थी। जनवार्ता ने प्रशिक्षु पत्रकारों की भर्ती के लिए विज्ञापन निकाला था और मैने भी आवेदन किया था। 18 जनवरी को लिखित परीक्षा हुई, उसी दिन साक्षात्‍कार भी। कुल चालीस लोग परीक्षा में बैठे थे। प्रदीप जी को वहीं मैने पहली बार देखा था। जब जनवार्ता में काम शुरू किया तो उनसे धीरे-धीरे निकटता होने लगी। ईश्‍वरदेव जी जनवार्ता के प्रबंध संपादक थे और प्रदीप जी संपादक। वह अग्रलेख लिखते, संपादकीय पेज की सामग्री तय करते और बीच- बीच में खबरों पर भी नजर डाल लेते। हम लोग कोई समस्‍या लेकर जाते तो पूरी रुचि लेकर उसका समाधान करते। समझ में नहीं आ रहा है कोई खबर कैसे लिखी जाय,इंट्रो में क्‍या लिया जाय, हेडिंग क्‍या दी जाय प्रदीप जी के पास जाने पर तत्‍काल उसका समाधान। बताते -बताते वह पूरी क्‍लास सी लगा देते । कभी- कभी पूरा मैटर देख -जान कर खुद नयी खबर लिख देते और कहते - लो तुम्‍हारी जान बचा दी। अनेक बार ऐसा भी हुआ कि किसी प्रेस कांफ्रेंस में गये और वहां खबर लायक कुछ नहीं मिला। जब उनसे पूछा कि क्‍या खबर लिखूं तो पूरी जानकारी लेने के बाद कह देते - प्रेस कांफ्रेंस में जाने का मतलब यह तो होता नहीं कि प्रेस कांफ्रेंस करने वाला जो भी ऊल-जलूल बोले उसकी खबर बनानी ही है। यह निर्णय तुम्‍हें करना है कि उसकी बात खबर लायक है भी कि नहीं । कुछ मत लिखो। मुझे याद है, 1974 का समय था। उन दिनो देश में अकाल जैसी स्थिति थी। बाजार में गेहूं नहीं मिल रहा था। राशन की दूकानों पर पी एल 480 के तहत आया लाल- लाल अमेरिकी गेहूं ही मिलता था। राशन के गेहूं से सभी परिवारों का काम चलता था। संकट की यह स्थिति थी कि कई राज्‍यों में ट्रक और ट्रेन रोककर लोग अनाज लूटने लगे थे। फखरुद्दीन अली अहमद उन दिनो केंद्रीय खाद्य मंत्री थे और बनारस आए हुए थे।‍ सर्किट हाउस में उनकी प्रेस कांफ्रेंस थी। जब उनसे खाद्यान्‍न संकट के बारे में पूछा गया तो उन्‍होने कहा - देश में कोई खाद्यान्‍न संकट नहीं है,पर्यात अनाज है बाजार में। जब यह बात प्रदीप जी को बताई गयी तो उन्‍होने कहा- हम किसी मंत्री के झूठ को छापने के लिए बाघ्‍य नहीं हैं। और जो खबर लिखी गयी उसमें इंट्रो  के साथ ही कोष्‍ठक में य‍ह भी लिखा गया कि मंत्री महोदय का कथन कितना सच है यह विसेसर गंज की मंडी जाने से पता चल जाएगा जहां किसी भी दुकान पर गेहूं देखने को नहीं मिलेगा।

जनवार्ता के मालिक बाबू भूलन सिंह थे।  बड़े स्‍नेही जीव । कभी लगता ही नहीं कि मालिक हैं। सबका ख्‍याल रखते । जब भी दशाश्‍मेध घाट घूमने जाते कुछ न कुछ खाने की चीजें लेते आते और रिपोर्टिंग के कमरे में आकर मेज पर रखते और कहते - ल खत जा, खूब खा, खूब काम करा। उनके स्‍नेह ने ही सबको बांध रखा था।  छोटी पूंजी से अखबार चला रहे थे। अखबार प्राय: आर्थिक संकट में ही रहता। किसी तरह टुकड़े-टुकड़े मे वेतन मिलता। लेकिन उन्‍होने उस समय के काशी के धुरंधर पत्रकारों को एक मंच पर इकठ्ठा कर रखा था- सर्व श्री ईश्‍वर देव मिश्र जी, प्रदीप जी, त्रिलोचन शास्‍त्री जी,हनुमान प्रसाद शर्मा मनु जी,धर्मशील चतुर्वेदी जी,ईश्‍वर चंद सिनहा जी, महेंद्र नाथ वर्मा जी, विनोद सिनहा जी आदि। बहुत ही सौहार्द पूर्ण माहौल रहता था। ईश्‍वर देव जी ने एक बार बताया था कि प्रदीप जी को जनवार्ता से कैसे जोड़ा गया। अखबार निकलते कई महीने हो गये थे, संपादकीय तेवर की कमी महसूस की जा रही थी। प्रदीप जी पत्रकारिता छोड़कर  अपने गांव (फैजाबाद के  मिल्‍कीपुर थाने के मवई खुर्द) में रह रहे थे। उन्‍हे लाने की योजना (षड्यंत्र) बनी क्‍यों कि यह कह कर बुलाया जाता कि नौकरी करनी है तो शायद वह नहीं आते ।  पूरी योजना के तहत अखबार की प्रति उनके गांव डाक से भेजी जाने लगी । और दस पंद्रह दिन बाद एक दिन प्रदीप जी काशीपुरा स्थित जनवार्ता के दफ्तर में हाजिर। ईश्‍वर देव जी से बोले- भाई ईश्‍वर देव जी बहुत अच्‍छा अखबार निकाल रहे हैं, मैं अपने को रोक नहीं पाया और बधाई देने आया हूं। इस पर ईश्‍वर देव जी ने कहा- कहां अच्‍छा निकल रहा है, अग्रलेखों में जो तेवर होने चाहिए, वह नहीं हो पाते , कोई है नहीं जो लिख सके। आप यदि हम लोगों पर कृपा कर दें तो मनमाफिक अखबार का सपना पूरा हो जाय। प्रदीप जी ने कहा- अरे नहीं भई मैं खेती छोड़कर आया हूं, फंसाओ मत, कपड़े भी नहीं हैं, बस जो पहने हूं वही धोती-कुर्ता है मेरे पास। पूरी बात बाबू भूलन सिंह सुन रहे थे, बोले प्रदीप जी मान भी जाइए, कपडे- लत्‍ते और रहने की व्‍यवस्‍था मैं कर देता हूं न,और चपरासी भेज कर खादी आश्रम से दो धोती-कुर्ता मंगाया गया। प्रदीप जी ने कहा - मैं किसी के घर में नहीं रहूंगा। और उनके रहने की व्‍यवस्‍था पराड़कर भवन (काशी पत्रकार संघ का कार्यालय) में कर दी गयी। इस तरह प्रदीप जी को जनवार्ता से जोड़ा गया। यह घटना बताने के बाद  ईशर देव जी जिस तरह से हंसे थे, वह षड़यंत्र में कामयाब होने की हंसी थी। प्रदीप जी को साथ लेकर चलना बहुत जोखिमभरा  काम होता है, यह सभी लोग जानते थे, लेकिन उनकी कलम में जो ताकत थी,वह अन्‍यों मे दुर्लभ थी। बहुत नाज नखरे उठाने पड़ते थे उनके। आफिस आने जाने का कोई टाइम नहीं । कभी घर से ही अग्रलेख लिख कर भेज देते।  अपने लिखे में किसी का हस्‍तक्षेप पसंद नहीं । ईश्‍वर देव जी ने निभाया भी खूब । हमेसा बड़े भाई जैसा सम्‍मान दिया और इसी के वह भूख्‍ो थे। परिणाम यह हुआ कि जनवार्ता तेजी से बढ़ने लगा।  दैनिक आज के सामने संसाधन के मामले में जनवार्ता कहीं नहीं टिकता था लेकिन कांटेंट में रत्‍तीभर कमजोर नहीं । जनवार्ता की सबसे बड़ी ताकत उसके अग्रलेख होते। विषय चाहे जो हों प्रदीप जी कलम उतनी ही प्रखरता से चलती। उन्‍हीं दिनों लोकनायक जयप्रकाश नारायण का समग्रक्रांति आंदोलन चल रहा था। प्रदीप जी ने न केवल अपने अग्रलेखों में उसका समर्थन किया अपितु सक्रिय भाग भी लिया और आपातकाल में 19 महीने जेल में भी रहे। जेपी प्रदीप जी के इस वैचारिक अवदान से अभिभूत रहते। एक बार बलिया की जनसभा में उन्‍होने कहा- समग्र क्रांति( यह नाम भी प्रदीप जी का दिया हुआ था) क्‍या होती है यह जानना हो तो आप लोग जनवार्ता पढ़ा करें , मैं आज जो सोचता हूं, जनवार्ता दो दिन पहले ही सोच चुका होता है। कभी ऐसे भी मौके आये जब आंदोलन भटकता सा लगा तो प्रदीप जी की सलाह से जेपी ने उसकी दिशा तय की। उन्‍हीं दिनो रामनगर में जेपी की सभा होनी थी। जेपी एक दिन पहले ही आ गये थ‍े और सर्व सेवा संघ में आचार्य राममूर्ति के साथ रुके हुए थे। प्रदीप जी उनसे मिलने गये, साथ में  मैं और कुछ अन्‍य पत्रकार  भी थे । जेपी ने कहा - मैं अखबार वालों से आज कोई बात नहीं करूंगा जो कुछ कहना है कल की सभा में कहूंगा। अंत में इस शर्त पर मिले कि कोई पत्रकार कलम नहीं चलाएगा। बातचात होती रही और इसी बीच प्रदीप जी ने पूछा जेपी आंदोलन का अगला रूप क्‍या ? जेपी ने कहा प्रदीप जी यह आफ द रिकार्ड है,  कोई नोट न करे और छापना भी नहीं है और उन्‍होने अगले चरण की रूपरेखा बता दी। हम लोग आफिस लौटे, प्रदीप जी ने पूरी खबर मुझे बोल कर लिखवाई कि कल की सभामें  जेपी क्‍या घोषणा कर सकते हैं। खबर सूत्रों के अनुसार थी, किसी का हवाला नहीं दिया गया था। मैने कहा भी कि काका जी यह सब तो आफ द रिकार्ड था न। वह बोले- जिस खबर से किसी का अहित नहीं हो रहा हो, बताने वाले को भी कोई नुकसान न हो, किसी की अवमानना न हो और वह जानकारी आम लोगों के हित मे हो वह कुछ भी आफ द रिकार्ड नहीं होती। छापो, कल मैं जेपी को संभाल लूंगा। खबर सिर्फ जनवार्ता में छपी और वह भी लीड के रूप में। दूसरे दिन अखबार पढ़ कर जेपी आपे से बाहर। प्रदीप जी को देखते ही बोले - तुमने तो सब छाप दिया,अब आज मैं क्‍या   कहूं ? प्रदीप जी ने कुछ नये सुझाव दिये और जेपी ने जनसभामें कहा- आंदोलन का अगला चरण बताते हुए कहा कि अगला चरण वही होगा जैसा जनवार्ता ने छापा है।

  उन्‍ही दिनों जेपी ने भारत बंद का आह्वान किया था। आंदोलन समर्थक बंद करा रहे थे  और कांग्रेसी लोगों से बाजार खोलने के लिए कह रहे थे। प्रदीप जी उस दिन कहीं से गोदौलिया चौराहे की ओर आ रहे थे। पुलिस वाले आंदोलन समर्थकों को तो गिरफ्तार कर रहे थे लेकिन कांग्रेसियों को कुछ नहीं कह रहे थे। प्रदीप जी ने इसका विरोध किया। पुलिस का दरोगा उन्‍हें जानता नहीं था, उसने उन्‍हे गिरफ्तार कर लिया और गाड़ी मे लादकर सबके साथ थाने भेज दिया। मैं तब तक आफिस आ गया था। अचानक दफ्तर में प्रदीप जी का फोन आया और उन्‍होने कहा डी एम से पूछो क्‍या शांति से आंदोलन कर रहे लोगों को भी गिरफ्तार करने के आदेश हैं, मुझे भी गिरफ्तार कर लिया गया है। प्रदीप जी की गिरफ्तारी की खबर तब तक शहर में फैल चुकी थी। जब जिलाधिकारी ( शायद महेश प्रसाद) को यह खबर मिली तो उन्‍ंहोने तुरत उन्‍हें रिहा करने का आदेश दे दिया। लेकिन प्रदीप जी रिहा होने के लिए तैयार नहीं थे। उनका तर्क था जिस आरोप में मैं गिरफ्तार हुआ हूं, उसी में अन्‍य लोग हैं। जब तक उन्‍हे  भी रिहा नहीं किया जाता मैं रिहा नहीं होऊंगा। प्रशासन ने उन्‍हें मनाने की बहुत कोशिश की लेकिन वह तैयार नहीं हुए और सबके साथ जेल भेज दिए गए। पूरा बनारस खलबला उठा था। प्रदीप जी की गिरफ्तारी अपने आप में एक परिघटना थी। सभी पत्रकार लामबंद हो गये। दूसरे दिन काशी पत्रकार संघ की आम सभा बुलाई गयी। वह स्‍मरणीय बैठक थी। अधिकांश लोग गिरफ्तारी के विरुद्घ् थे और चाहते थे कि प्रदीप जी की जमानत न ली जाय अपितु  वह बिना शर्त रिहा किये जांय। कुछ पत्रकार ऐसे भी थे जो कांग्रेस समर्थक भी थे, कुछ प्रदीप जी को कम पसंद करते थे। एक ने व्‍यवस्‍था का प्रश्‍न उठा दिया कि हम यह आंदोलन क्‍यो कर रहे ?क्‍या प्रदीप जी की गिरफ्तारी एक पत्रकार के रूप में हुई है या आंदोलन समर्थक के रूप में । यदि उन्‍हें रिपोर्टिंग के लिए एसाइन किया गया था तो उनकी गिरफ्तारी पत्रकार के रूप में मानी जाय, अन्‍यथा नहीं। इस पर उस सभा में मौजूद श्री ईश्‍वर चंद सिनहा ने कहा- पत्रकार के रूप में कोई भी व्‍यक्‍ति चौबीसो घंटे एसाइनमेंट पर रहता है। मान लीजिए कोई व्‍यक्ति  बाजार गया है या वह गंगा नहाने गया है और कोई घटना हो जाती है  तो क्‍या वह अपने संपादक से पूछेगा कि वह रिपोर्ट करे कि नहीं। यदि वह ऐसा प्रश्‍न करता है तो वह पत्रकार नहीं है और उसे पत्रकारिता छोड़ देनी चाहिए। प्रदीप जी ने एक पत्रकार की सही भूमिका निभायी है। और पत्र के प्रधान संपादक के रूप में मैं कहता हूं कि उन्‍हें एसाइनमेंट पर भेजा गया था। इस पर सवाल उठाने वालों की बोलती बंद हो गयी और सर्वसम्‍मति से प्रस्‍ताव पारित हुआ कि प्रदीप जी की गिरफ्तारी प्रेस पर हमला माना जाय और इसका डटकर विरोध किया जाय। अंत में पत्रकारों के दबाव में प्रदीप जी को रिहा किया गया और साथ में अन्‍य सभी गिरफ्तार लोग भी। हम लोग जेल में मिलने गये थे। रिहाई के बाद बनारस ने प्रदीप जी का जो स्‍वागत किया वह अविस्‍मरणीय घटना है।


मुझे याद आता है सारनाथ मे बौद्ध संगीति का आयोजन था। बर्मा(म्‍यामार) के प्रधान मंत्री ऊ नू उस कार्यक्रम में विशेष अतिथि के रूप में शामिल थे। पहले दिन जनवार्ता में  प्रदीप जी ने सम्‍पादकीय लिखा। प्रवाह मे वह नाप से दो लाइन ज्‍यादा हो गया। प्रदीप जी मस्‍त मौला किस्‍म के पत्रकार थे लिखने के बाद बुलानाले पर बैठकबाजी करने चले गये थे। उनका लिखा पढ़ने और  कम्‍पोज करने वाला बनारस मे एक ही व्‍यक्ति था। प्रदीप जी जहां जहां नौकरी करते वह वहां-वहां जाता।प्रदीप जी की लिखावट विचित्र थी,जैसे चींटी को स्‍याही में डुबो कर कागज पर छोडं दिया गया हो,‍लेकिन वह जिस स्‍पीड से लिखते वह कमाल की थी। मनो‍विज्ञानियों का कहना है जब व्‍यक्ति सोचता तेज है और उस स्‍पीड से लिख नहीं पाता तो उसकी लिखावट बिगड़ जाती है। प्रदीप जी के बारे मे यह बिल्‍कुल सच है। उनके लिखे एकाघ पत्र मेरे पास हैं और मेरा दावा है कि सभी लोग उसे पढ़ नहीं पाएंगे। जब फोरमैन ने सम्‍पादक  ईश्‍वर देव मिश्र को बताया कि सम्‍पादकीय दो लाइन बढ़ रहा है तो किसी की उसे काट कर कम करने की हिम्‍मत नहीं पड़ी और प्रदीप जी को उनके अड्डों पर ढ़ुढ़वाया गया जब वह नहीं मिले तो ईश्‍वरदेव जी ने उसे काट कर दो लाइन छोटा कर दिया। दूसरे दिन सुबह जब प्रदीप जी ने  वे शब्‍द नहीं देखे जो उन्होने भगवान बुद्ध के लिए विशेषण के रूप में प्रयुक्‍त किये थे तो उनका पारा चढ़ गया। दफ्तर पहुचकर उन्‍होने खूब हल्‍ला काटा। प्रदीप जी का कहना था रात भर बौद्ध साहित्‍य पढ़कर मैने यह सम्‍पादकीय लिखा था,उसमे बुद्ध के लिए ऐसे विशेषण प्रयोग किये गये थे जो बनारस के पत्रकारों के लिए सर्वथा नये होते।  उन्‍हें काटकर मेरे श्रम को नष्‍टकर दिया गया। अपने शब्‍दों के प्रति किसे अब इतना आग्रह। प्रदीप जी के आक्रोश का ईश्‍वरदेव जी ने कोई जवाब नहीं दिया सिर्फ हंसकर बोले -उनका नाराज होना वाजिब है,कई शब्‍द ऐसे थे जिनका अर्थ मुझे भी नहीं मालुम था। मैने उन्‍हें ही काटकर सम्‍पादकीय कम कर दिया।( ईश्‍वरदेवजी ने ये बात भोजपुरी में कही और ठठाकर हंसे थे।) क्‍या सादगी थी। अपनी कमी को सार्व‍जनिक रूप से स्‍वीकार कर उसपर हंसने का साहस भी। ईश्‍वरदेव जी को प्रदीप जी ने लीडर(भारत) के दिनों में सिखाया था और उनके सीनियर थे। जनवार्ता मे ईश्‍वरदेव जी का पद और वेतन प्रदीप जी से ज्‍यादा था, लेकिन प्रदीप जी के प्रति उनका आदरभाव कम न था। उन्‍होने कभी अपने को उनसे वरिष्‍ठ नहीं समझा।

अक्‍टूबर 73  में जब अरब-इजराइल युद्ध हुआ तो प्रदीप जी इजराइल के पक्ष में खुलकर खड़े हो गये। वह कहते थे- अरब देशों की निर्लज्‍जता देखो, छोटे से देशपर चारो तरफ से हमलाकर दिया है। वह इसे कमजोरपर हमले के रूप में देखते और और इजराइल के पक्ष में संपादकीय लिखते। वह ऐसा किसी राजनीतिक विचारों से प्रेरित होकर नहीं अपितु सिर्फ इसलिए कर रहे थे कि इजराइल अपने अस्तित्‍व के लिए संघर्ष कर रहा है और उसे कमजोर समझकर अरब देशों ने चारो तरफ से हमला कर दिया है। पत्रकार को हमेशा कमजोर का साथ देना चाहिए। इस युद्ध में अमेरिका अपने स्‍वाभाविक मित्र इजराइल के साथ था।  यह युद्ध दस दिन चला और प्रदीप जी ने दसों दिन इजराइल के पक्ष में संपादकीय लिखा। कूटनीतिक कारणों से भारत इस युद्ध में अरब देशों के साथ था। भारत के अन्‍य अखबार या तो मौन थे या अरब देशों का समर्थन कर रहे थे। अकेला जनवार्ता इजराइल के साथ था। कहा जाता है कि प्रदीप जी के अग्रलेखों का हिब्‍्रयू में अनुवाद करके समूचे इजराइल में बंटवाया गया था कि भारत का एक अखबार हमारे साथ है, हालांकि जनवार्ता इतना छोटा अखबार था कि उसके समर्थन या विरोध का कोई मतलब नहीं था।

प्रदीप जी जितनी गति हिंदी में थी,उतनी ही अंग्रेजी में। हिंदी के कम ही  पत्रकारों में यह दक्षता होती है। वह एवरीमैन और इंडियन एक्‍सप्रेस के लिए भी डिस्‍पैच भेजते हफ्ते में एकाध बार। चूंकि उनकी हैंड राइटिंग खराब थी, इसलिए मुझसे बोल कर लिखवाते। क्‍या अंग्रेजी थी उनकी। एक- एक पैरे का एक वाक्‍य। मुझे इसी बहाने उनका सांनिध्‍य मिलता और कुछ सीखने को भी। जब डिस्‍पैच पूरा हो जाता तो समोसा चाय पराड़कर भवन के नीचे सरदार (यादव) की दूकान से मंगवाते। लगता था कि सरदार का पूर्व जन्‍म का कोई कर्ज था प्रदीप जी पर जो वह उनसे वसूल रहा था। प्रदीप जी आने जाने वालों को समोसा चाय खिलाते- पिलाते और तनख्‍वाह मिलने पर आधी सरदार को दे देते। महीना खत्‍म होने के पहले ही वेतन खत्‍म। फिर मित्रों साथियों से उधार शुरू, लेकिन वेतन मिलते ही सबका एक-एक पैसा चुकता। वेहद स्‍वाभिमानी थे प्रदीप जी। किसी का एहसान नहीं ले सकते थे। और न ही परिचय का लाभ उठाना चाहते थे। इतने प्रभावशाली लोगों से परिचय था लेकिन कभी निजी लाभ नहीं उठाया। घर और परिवार के लिए कभी चिंता नहीं की। चाहते तो आज उनके बच्‍चे अच्‍छे पदों पर होते लेकिन वह किसी से उनकी सिफारिश नहीं कर सकते थे। 1978 से 84 तक विधान परिषद के सदस्‍य रहे,1989 मे राज्‍य सूचना नीति निर्धारण समिति के उपाध्‍यक्ष ,कई समितियों के सदस्‍य थे, चाहते तो बहुत कुछ कर सकते थे । लोकनायक जयप्रकाश के अलावा चौधरी चरण सिंह और पं नारायण दत्‍त तिवारी से उनकी अति निकटता थी। चाहते तो क्‍या नहीं कर सककते थे लेकिन यदि वह ऐसा करते तो शायद श्‍यामा प्रसाद प्रदीप न होते। वह अमेरिका के प्रसिद्ध पत्रकार जान कोकरिल का कथन प्राय: उद्धृत करते- ए जर्नलिस्‍ट शुड हैव नो फ्रेंड,फो एण्‍ड फेमिली अर्थात पत्रकार को राग- द्वेष से मुक्‍त रहना चाहिए।  पत्रकार और पूर्व सांसद राजनाथ सिंह सूर्य उन्‍हें दुराग्रह की सीमा तक आग्रही कहते हैं। यही तो वह चीज थी जो प्रदीप जी को दूसरों से अलग करती थी।
     उनमें सेंस आफ ह्यूमर भी खूब था। वह जब हल्‍के मूड में होते तो मुझसे कहते - तुम बंदर हो, भगवान राम की सेना में द्विविद नाम का कपि था, उसी के वंशज द्विवेदी कहलाए। कहते- दु वेदी। मुझपर उनका विशेष अनुग्रह था। वह कहा करते थे- मैं किसी से अपने लिए नौकरी नहीं मांग सकता लेकिन तुम कभी संकट में पड़ना तो मुझे याद करना। जिसने अपने बेटों के लिए नौकरी नहीं मांगी वह मेरे लिए क्‍यो मांगते,कह नहीं सकता। शायद मुझमें हिम्‍मत बढ़ाने के लिए ऐसा कहते, खैर इसकी कभी जरूरत नहीं पड़ी। आपातकाल के बाद जब लखनऊ का तरुण भारत फिर शुरू होने की बात  हुई तो उन्‍हें संपादक बनाया गया। उन दिनों मैं कानपुर से निकल रहे आज में काम कर रहा था। उन्‍होने मेरे पास संदेश भिजवाया-तुरत लखनऊ आकर मिलो। मैं दूसरे दिन ही लखनऊ रायल होटल के कमरे मे ( नंबर याद नहीं लेकिन यह कमरा उनके परम मित्र विधायक श्री रवींद्र तिवारी जी का था और मेरी भेंट के समय वह भी मौजूद थे) मिला। उन्‍होने बताया -मैं तरुण भारत का संपादक हो रहा हूं,तुम भी आ जाओ। मेरे बाद तुम्‍हारा ही नंबर रहेगा। मैने कहा - कहां आप, कहां तरुण भारत। यह पूर्व और पश्चिम का मेल कैसे चलेगा। प्रदीप जी ने कहा- नहीं, तरुण भारत वालों ने अपनी नीति बदल दी है, इस पर मेरी स्‍पष्‍ट बात हो गयी है, कोई समस्‍या नहीं आएगी। रायल होटल से हम लोग आज के प्रतिनिधि राजनाथ सिंह जी के यहां गये। वहां एक अग्रवाल जी मिले। उनके साथ हम लोग दो रिक्‍शों पर तरुण भारत के दफ्तर गये। जिस रिक्‍शे पर मैं था, उसी पर अग्रवाल जी भी थे-धोती कुर्ता पहने हुए। मुझे बताया गया था कि वह तरुण भारत के मैनेजर हैं। जब हम लोग प्रेस के पास पहुचे  जो आपातकाल में सील हो गया था और हाल में ही खुला था और उसकी साफ- सफाई हो रही थी, तो मैनेजर साहब रिक्‍शे वाले से चवन्‍नी के लिए उलझ गये। वह किराये के डेढ़ रुपये मांग रहा था और अग्रवाल जी बीस आना देना चाहते थे। मुझे अटपटा लगा। जब मैने यह बात प्रदीप जी से बतायी और कहा कि जो आदमी रिक्‍शे वाले को चार आना नहीं दे  रहा है,वह हम लोगों को वेतन कैसे देगा। प्रदीप जी ने हंसते हुए आश्‍वस्‍त किया,चिंता मत करो।   मैं कुछ दिन पहले ही इलाहाबाद के अमृत प्रभात में इंटरव्‍यू देकर लौटा था और वहां बात लगभग पक्‍की हो गयी थी। तरुण भारत की नौकरी अमृत प्रभात के आगे कुछ नहीं थी। वह ऐसा ग्रुप था,जहां नौकरी पाने को लोग सौभाग्‍य मानते थे। मैं बाल-बच्‍चे वाला था। प्रदीप जी को मना नहीं कर सकता था। अनिर्णय के साथ ही घोर धर्मसंकट भी था। किससे राय लूं, समझ नहीं पा रहा था। मेरे एक और गुरु और संरक्षक थे बाबू पारस नाथ सिंह जी।(वह आज भी 95 साल की अवस्‍था मे सक्रिय और चैतन्‍य हैं, ईश्‍वर उन्‍हें दीर्घायु दे।) वह ही मुझे आज में ले गये थे और उन दिनों पारिवारिक कारणों से बनारस चले गये थे। मैने उन्‍हें पत्र लिखा और राय मांगी। वह प्रदीप जी के पुराने सहकर्मी रह चुके थे और उनके बारे में मुझसे से अधिक जानते थे।
उनका जवाब आया- उस वृक्ष की छाया में रहना चाहिए जो सघन होने के साथ ही मजबूत भी हो। प्रदीप जी मनमौजी हैं। नहीं पटी तो दूकान समेटते देरी नहीं लगेगी क्‍यों कि असल में उनकी कोई दुकान ही नहीं है। तुम बाल- बच्‍चे वाले हो, इसलिए अमृत प्रभात ज्‍वाइन करो, वह बड़ा अखबार है। मुझे रास्‍ता मिल गया। इसी बीच  आज के मेरे एक साथी भी तरुण भारत के लिए प्रयासरत थे। वह पहले भी वहां काम कर चुके थे और लखनऊ के ही रहने वाले भी थे  और वैचारिक स्‍तरपर भी उसकी राति- नीति के समर्थक थे। मैनेजमेंट भी उन्‍हे चाहता था। एक दिन उन्‍होने वहां के उन्‍हीं मैनेजर साहब का पत्र लाकर दिया जिसमें कहा गया था कि आपको बाद में सूचित किया जाएगा। मैं उसका आशय समझ गया और मैने उस पत्र का हवाला देते हुए प्रदीप जी को पत्र लिखा कि मेरा अमृत प्रभात में भी चयन हो गया है अब बताइए मैं क्‍या करूं। प्रदीप जी ने एकदम बुरा नहीं माना और मुझसे कहा कि ठीक है अमृत प्रभात चले जाओ। और मैं दिसम्‍बर 1977 मे इलाहाबाद चला आया। प्रदीप जी ने कुछ महीने बाद ही तरुण भारत छोड़ दिया और लखनऊ से विंध्‍याचल जाते हुए अमृत प्रभात के दफ्तर आये। मैं नहीं मिला तो एक पत्र लिख कर अपने तरुण भारत छोड़ने की सूचना दी। मैने राहत महसूस की कि चलो पारस बाबू ने सही राय दी थी नहीं तो मैं कहां जाता।

प्रदीप जी की रुझान आघ्‍यात्‍म की ओर भी थी। वह योग करते, तंत्र का भी ज्ञान था। कभी - कभी दोनो हाथ की कई उंगलियों में  ग्रहों से जुड़ी अंगूठी पहने दिख जाते। फिर अचानक सब उतार देते। वह बौद्ध साधना- विपश्‍यना का भी अभ्‍यास करते। एक बार व्रिटिश पत्रकार ग्राहम ग्रैम्‍बी बनारस आये हुए थे। वह उन दिनों आध्‍यात्‍म-दर्शन विशेषकर बौद्ध दर्शन का अध्‍ययन कर रहे थे। रोडवेज के पास तिब्‍बत शोध संस्‍थान में उनका व्‍याख्‍यान था। प्रदीप जी के साथ मैं भी गया था। वह विपश्‍यना साधना पर कुछ बोलने वाले थे। प्रदीप जी ने उनका मुझसे परिचय कराया। यह ग्राहम ग्रैम्‍बी हैं, गार्डियन के संवाददाता रह चुके हैं और प्रोफ्यूमो कांड की रिपोर्टिंग कर चुके हैं। तब मैं इन कांडों के बारे में नहीं जानता था। प्रदीप जी ने ही बाद में इन कांडों के बारे में बताया। ग्राहम ग्रैम्‍बी के पहले प्रदीप जी को विपश्‍यना पर कुछ कहने के लिए कहा गया। तब मैंने पहली बार जाना कि प्रदीप जी सिर्फ हिंदी में ही नहीं अंग्रेजी में भी निष्‍णात हैं। जो धाराप्रवाह अंग्रेजी उन्‍होने बोली वह किसी हिंदी के पत्रकार से वह भी ग्रामीण परिवेश के व्‍यक्ति से तो अपेक्षा ही  नहीं की जा सकती थी। अंग्रेजी लिखने और बोलने दोनों में वह पारंगत थे। प्रदीप जी का जन्‍म बर्मा में हुआ था। उनके पिता जी बर्मा में (अब म्‍यामार)  रेलवे में नौकरी करते थें ।   उनके बचपन के कुछ वर्ष वहां बीते थे, लेकिन  बचपन में जो बर्मी भाषा सीखी थी, वह अब तक याद थी। एक बार बनारस में मुनि महेंद्र कुमार (प्रथम) आये थे। वह जैन मुनि थे और शतावधान क्रिया में निष्‍णात थे अर्थात वह एक बार में सौ चीजें याद कर सकते थे। नागरी नाटक मंडली के प्रेक्षागार में उनका कार्यक्रम रखा गया था। उन्‍होने कहा कि कोई ऐसा व्‍यक्ति आये जो उस भाषा में एक वाक्‍य बोले जो मैं न जानता हूं। प्रदीप जी ने बर्मी भाषा में एक लम्‍बा वाक्‍य कहा। मुनि जी ने उसे एक बार सुनकर ही याद कर लिया और आधा घंटा बाद उसे ज्‍यों का त्‍यो सुना दिया। मुनि जी बताना चाहते थे कि मानव की स्‍मृति अपार है,उसे अभ्‍यास से किसी भी सीमा तक पहुंचाया जा सकता है। 

(जून 2010 में जागरण जंक्शन में तीन किश्तों में प्रकाशित)