हिन्दी पत्रकारिता में समाचार प्रबंधन के पितामह श्री विनोद शुक्ल बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं, वह एक कुशल संगठनकर्ता, योजना निर्माता, संचालनकर्ता के साथ ही गहरी दूरदृष्टि वाले व्यक्ति हैं। उत्तर प्रदेश में हिन्दी समाचार पत्रों को बहुसंस्करणीय रूप देने में उनका योगदान नींव के पत्थर की तरह है। वह एक सम्पूर्ण, आकर्षक और समाज को दिशा देने वाले समाचार पत्र के प्रकाशन का लक्ष्य लेकर निकले थे और यह लक्ष्य उन्होंने पाया भी। नयी पीढ़ी को वह यही उपदेश भी देते हैं- अपने भीतर के पत्रकार को कभी मरने मत देना। वह अपने साथियों और सहकर्मियों के संरक्षक भी हैं- इसी गुण के कारण लोग उन्हें भैय्या का स्नेह आदर भरा संबोधन देते हैं और वे भी हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रहते हैं, गलती पर डांटने से नहीं चूकते तो अच्छा काम करने का पुरस्कार भी मिलता है।
मैने सबसे पहले उन्हें कानपुर में आज का प्रकाशन शुरू होने के समय देखा। 15 अप्रैल 1975 का दिन था। मैं वाराणसी के जनवार्ता में दो-ढ़ाई साल काम कर चुका था। आज में काम करने का मन था। श्री विद्याभास्कर जी, श्री चंद्रकुमार जी से मिलने के बाद मुझसे कहा गया कि कानपुर जाकर श्री विनोद शुक्ल से मिलें। मैं कानपुर पहुंचा। डिप्टी पड़ाव स्थित आज दफ्तर में पहुंचा। कुछ लोग पूर्व परिचित थे जैसे श्री पारस नाथ सिंह जी, (पारस बाबू की प्रेरणा और सहयोग से ही मैं आज में आ सका था) श्री मंगल जायसवाल, राममोहन पाठक आदि। मैं पारस बाबू से मिला, उन्होंने कहा विनोद जी मशीन की तरफ हैं मिले लो। मैं मशीन की तरफ गया, वहां महाप्रबंधक की तरह कोई व्यक्ति नहीं दिखायी दिया, कई लोग मशीन साफ करने में लगे थे, चार दिन बाद आज का प्रकाशन शुरू होना था। मैने संकोच के साथ एक व्यक्ति से पूछा- श्री विनोद शुक्ल जी कहां हैं- उसने मशीन साफ करने में लगे एक सुदर्शन व्यक्ति की तरफ इशारा किया। विनोद भैय्या सफेद हाफ पैंट और सैण्डो बनियाइन पहने मशीन साफ करने में लगे थे। हाथ में मिट्टी के तेल में भीगा टाट का टुकड़ा था, दोनों हाथ कालिख से काले थे। यह भैय्या के प्रयास का ही परिणाम था कि आज अखबार पुरानी जंग लग चुकी मशीन पर बिना एक दिन डमी निकले 19-20 अप्रैल 75 को प्रकाशित हुआ और पहले दिन से ही उसने अपनी उपस्थिति कानपुर में दर्ज करा दी। लेकिन भैय्या के श्रम और सपने को आज के स्वामी नहीं समझ सके, दोनों में मतभेद हुए और चार-पांच साल बाद ही विनोद भैय्या ने आज को त्याग दिया। उनका आज-त्याग भी उत्तर प्रदेश की हिन्दी पत्रकारिता की एक चर्चित घटना है।
पत्र प्रकाशन की कोई ऐसी विद्या नहीं जिसमें विनोद भैय्या निष्णात न हों। कैसी भी समस्या क्यों न हो चुटकियां बजाते ही समाधान उपस्थित। एक बार बनारस से आने वाला साप्ताहिक परिशिष्ट का फ्लांग बाक्स नहीं आया, ट्रेन में कहीं गुम हो गया था। समस्या यह कि बिना साप्ताहिक के रविवार का संस्करण कैसे प्रकाशित होगा। विनोद भैय्या ने हम लोगों को जुटाया, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान से चल सकने वाली सामग्री का चयन किया गया, उसी को चिपका कर, किसी तकनीक से प्लेट बनायी गयी और दूसरे दिन आज के पाठकों ने नये रूप में साप्ताहिक परिशिष्ट पढ़ा। जानने वाले जान गये थे कि कुछ गड़बड़ है लेकिन रविवार को उनको पढ़ने को साप्ताहिक परिशिष्ट तो मिल ही गया।
वह कमाल के संगठनकर्ता हैं और टीम को साथ लेकर चलने का उनमें नैसर्गिक गुण है। कई घटनाएं याद आती हैं, विस्तार भय से सबका उल्लेख नहीं करूंगा लेकिन वे सब घटनाए लोगों की भैय्या के साथ अटूट रूप से जोड़ती गयीं। उनके एक संकेत पर काम होता क्यों कि हर काम में उनकी उपस्थिति किसी न किसी रूप में जरूर रहती। वह काम में इतना खो जाते कि घर जाना, खाना- खाना भूल जाते, भाभी की नाराजगी झेलनी पड़ती लेकिन हंस कर टाल जाते है कहते- मेरा परिवार तो यही है, मैं परिवार में ही तो हूं। सचमुच वह पूरे परिवार का ख्याल रखते-खिलाते-पिलाते और काम लेते। किसी का चेहरा गिरा देखते तुरन्त पूछते क्या बात है सुस्त क्यों हो।
आज ज्वाइन करने के दो महीने बाद ही इमर्जेसी लग गयी। 25 जून 75 की शाम को दो पन्ने की टुकड़ी निकाली गयी और भैय्या के साथ ही सभी लोगों ने कानपुर में उसे बेचा। प्रचार का यह एक अच्छा मौका था। आपातकाल के दौरान अखबारों पर इतना अंकुश लग गया कि छापने लायक कुछ बचा ही नहीं पत्र की बिक्री कम होने लगी तो हिन्दी पत्रों में फीचर पृष्ठ देना शुरू किया, ताकि पाठकों को कुछ अतिरिक्त मिले पढ़ने के लिए। पहले हफ्ते में एक दिन, फिर दो दिन। आगे चलकर यह दैनिक फीचर पृष्ठ में बदल गये। विनोद भैय्या ने भी यह प्रयोग किया और सफलता मिली। जितनी बहुविध अध्ययन की प्रवृत्ति भैय्या की है, उतनी कम देखने को मिलती है, न्यूज सेंस तो उनका कमाल का है। आज पत्रकारों में पढ़ने की प्रवृत्ति, फीड बैक लेने की प्रवृत्ति नहीं है। अपनी बीट के अलावा कुछ नहीं जानना चाहते, अपना ही अखबार पूरा नहीं पढ़ते लोग। भैय्या इसके सख्त विरोधी हैं, खुद पढ़ते हैं, दूसरों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। हिन्दी अखबारों में न्यूज वीक और टाइम्स जैसी अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं से स्टोरी लिफ्ट करने की शुरूआत उन्होंने करायी। वह कहा करते हैं कि पाठकों की क्षुधा शांत करना ही पत्रकार का दायित्व है। प्राय: खुद ही रिपोर्टरों के साथ निकल जाते, नये-नये एंगिल बताते और रिपोर्ट फाइल करने पर पहले खुद पढ़ते।
एक घटना याद आती है। आपातकाल उठ गया था, चुनाव की घोषणा हो गयी थी, अखबारों ने दो साल की घुटन के बाद ताजी सांस लेना शुरू की थी और आपातकाल की ज्यादतियों की खबरों से वे पटे रहते थे। कानपुर का आज भी पीछे नहीं था। भैय्या ने हम लोगों को खुली छूट दे रखी थी लिखने की। प्रतिदिन दिल्ली के अखबारों से स्टोरी लिफ्ट की जाती। पाठक संख्या बढ़ रही थी। काम में खूब मजा। आता इसी बीच तत्कालीन सूचना मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने लखनऊ में सम्पादकों की बैठक बुलायी और परोक्ष रूप से आपातकालीन खबरों के प्रकाशन पर आपत्ति जतायी- कहा कि हम दोस्त, दुश्मन की पहचान कर रहे हैं, चुनाव के बाद एक-एक को देखा जायेगा। लखनऊ से लौटने के बाद भैय्या ने हम लोगों की बैठक की और सब बातें बताकर राय जाननी चाही। सबने एक स्वर में कहा- आज तो छापने का मौका है, छापते हैं कल देखा जायेगा। सबकी राय जान भैय्या ने कहा-चलो खूब छापो या तो इस पार या उस पार!
विनोद भैय्या अखबार का बेहद सूक्ष्म अध्ययन करते हैं, छोटी से छोटी गलती की तरफ ध्यान जाता है और जिसने भी खबर लिखी है या जिसने शीर्षक लगाया है, उसे टोकने से चूकते नहीं। गुरू शिष्य परम्परा के अनुपम उदाहरण हैं भैय्या। यही कारण है कि जो लोग उनसे जुड़ते हैं, वे उनके ही हो जाते हैं। कई उदाहरण हैं जब विनोद भैय्या के एक संकेत पर दर्जनों लोगों ने एक अखबार छोड़ दूसरे को ज्वाइन कर लिया। यही कारण हैं कि वह अपनी टीम का बेहद ख्याल रखते हैं, सभी के योग क्षेम का उनको ध्यान रहता है। उनसे सीखे लोग आज कई जगहों पर शीर्ष पदों पर हैं, और वे यह स्वीकारते हैं कि उनके निर्माण में भैय्या का अनुपम योगदान है।
एक बार आज में हड़ताल हो गयी, प्रेस के लोग हड़ताल पर थे, विनोद भैय्या ने अपने प्रबन्धकीय कौशल से अखबार निकाला, हड़ताल सफल नहीं होने दी, न जाने क्यों मुझे आज में अस्थिरता के संकेत मिले। उन्हीं दिनों इलाहाबाद से अमृत प्रभात का प्रकाशन शुरू होने की चर्चा सुनी, आवेदन किया, साक्षात्कार के बाद नियुक्ति हो गयी। यह नवम्बर 77 का महीना था। भैय्या ने सुना, उन्होंने रोकने की कोशिश की। उन दिनों उपसम्पादकों को जो वार्षिक वेतन वृद्धि होती थी, मुझे उसका दोगुना दिया, लेकिन तब भी मुझे अमृत प्रभात से मिलने वाले वेतन से यहां की राशि कम थी। मैंने बताया तो उनका जवाब था- मैं तो तुम्हें अपने साथ रखना चाहता था, लेकिन पत्रिका बड़ा ग्रुप है, मैं उतना वेतन नहीं दे पाऊंगा, तुम जाओ लेकिन जब भी संकट पड़े मुझे याद करना। मैं इलाहाबाद चला गया। पत्रिका बहुत अच्छा संस्थान था, वहां का वेतन, सेवा-शर्ते, सुविधाएं, काम का माहौल इतना अच्छा था कि लोग केन्द्रीय सरकार की नौकरी छोड़कर वहां ज्वाइन करते। दिसम्बर 77 से 91 तक तो ठीक चला लेकिन फिर आर्थिक संकट आने लगा। प्रेस में अघोषित बंदी हो गयी। ऐसी स्थिति दो बार आयी। डेढ़-डेढ़ साल के लिए। मैं इलाहाबाद जाने के बाद भैय्या के सम्पर्क में नहीं रहा। लेकिन विनोद भैय्या ने मुझे हमेशा याद रखा। लखनऊ के मित्र बताते है कि विनोद भैय्या आपकी बेहद तारीफ करते हैं-बहुत चाहते हैं। मैने बचपना की- उनके सम्पर्क में नहीं रहा, लेकिन वह बड़े भाई की भूमिका से स्खलित नहीं हुए। दोनों बंदियों में उन्होंने लखनऊ आकर दैनिक जागरण ज्वाइन करने को कहा लेकिन इसी बीच पत्रिका खुल गयी और मै नहीं आ पाया। अमृत प्रभात पुन: शुरू हो जाने की सूचना उन्हें दी तो उन्होंने संतोष की सांस ली। अमृत-प्रभात जब बेहद आर्थिक संकट में चला गया तो मैने उसे छोड़ने का निर्णय लिया और अमर उजाला लखनऊ ब्यूरो ज्वाइन किया, लेकिन उसे भी एक साल बाद छोड़ना पड़ा। मैं भविष्य के बारे में कोई निर्णय ले पाता इसके पहले मेरे मित्र शिवशंकर गोस्वामी ने भैय्या का फोन मिला कर थमा दिया-लीजिए बात कर लीजिए, वह आपको बहुत चाहते हैं कोई न कोई रास्ता निकाल देंगे। मैं संकोच कर रहा था, बीस साल से भैय्या के सम्पर्क में नहीं था, एक साल लखनऊ में रहा तो भी उनसे नहीं मिला- किस मुंह से बात करूं। लेकिन जब वह लाइन पर आये-मैने प्रणाम कर परिचय दिया तो उनका पहला प्रश्न था कहां हो? क्या कर रहे हो? दफ्तर आओं वहीं विस्तार से बात होगी। दैनिक जागरण का दफ्तर पास ही था। थोड़ी देर में मैं पहुंचा। मैने अमर उजाला छोड़ने की जानकारी दी। उन्होंने कई बार कहा- परेशान मत हो मैं हूं! और एक मिनट रूक कर कहा- देहरादून चले जाओ, वहां समाचार सम्पादक की जगह खाली है, मेरे यह कहने पर कि बहुत दूर है, बच्चे छोटे हैं, इलाहाबाद में पढ़ रहे हैं, उन्होंने कहा कि-अच्छा सोचकर बताते हैं, बायोडाटा दे देना-एक हफ्ते बाद मिलना। मैं लखनऊ से इलाहाबाद चला आया और वहीं से बायोडाटा भेज-10 दिन बाद पुन: लखनऊ गया तो उनका निर्देश मिला-बरेली चले जाओ, वहां बच्चन सिंह थे, उन्होंने छोड़ दिया है, मैने वहां के जीएम से तुम्हारे लिए बात कर ली है। और मैं 28 मार्च 1999 को बरेली दैनिक जागरण चला आया।
यह घटना विनोद भैय्या के उस मानवीय स्वरूप का उदाहरण है जो लोगों में नहीं देखने को मिलता है। जागरण में आकर बराबर उनके सम्पर्क में रहने का सौभाग्य मिला और हर मुलाकात में कुछ न कुछ सीखने को। उनका प्रशिक्षण देने का तरीका प्राचीन गुरू-शिष्य परम्परा जैसा है, वह संस्थागत शिक्षा से प्रायोगिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण को बेहतर तरीका मानते हैं। उनका मानना है- पत्रकार कोई एक दिन में नहीं तैयार होता, उसे सतत प्रशिक्षण देने-पाने की जरूरत है। ..किसी को जबरिया पत्रकार नहीं बनाया जा सकता, जिसमें पत्रकारिता के कीड़े होते हैं, वही पत्रकार हो सकता हैं। यह कीड़ा है- संवेदनशीलता और जिज्ञासु प्रवृत्ति। वह पत्रकार की भूमिका शिक्षक के रूप में भी मानते हैं। कहते हैं हम समाज और देश के चौकीदार भी है, शिक्षक भी। गलत शब्दों के प्रयोग को वह अपराध मानते हैं। कहते हैं पत्रकारिता शब्दों का ही तो खेल है- शब्द ब्रह्म स्वरूप होते हैं, इनका ब्रह्म रूप में ही इस्तेमाल करो...। न भाव क्षरण हो न अर्थभ्रम। अच्छे पत्रकार बनना हो तो मस्तिष्क चैतन्य रखो, उसे पूरी खुराक दो, स्वस्थ रहो, अच्छा खाओ, अच्छा पढ़ो अच्छा सोचो, अच्छा लिखो।
सचमुच खाने का मजा तो भैय्या के साथ ही- वह भारतीय मनीषा के इस चिंतन से पूरी तरह सहमत थे कि अन्नमय कोश भरे रहने पर ही प्राणमय कोश और अन्त में ज्ञानमय कोश पुष्ट रहता है। अपने साथियों को खूब खिलाने, भरपेट खिलाने और स्वादिष्ट खिलाने की उनकी आदत थी। आप उनके निकट रहे लोगों से पूछिए-खाने पीने से जुड़े कितने ही संस्मरण सुनने को मिलेंगे।
खांटी बनारसी परिवेश में पले-बढ़े विनोद भैय्या आज भी पूरे बनारसी हैं, पान उनकी पसंद है, मस्ती उनके रोम रोम में है, साथियों में परम उन्मुक्त, न कुछ गोपन, न कुछ बनावटी, सब कुछ पारदर्शी, मस्ती के समय मस्ती काम के समय काम कभी-कभी बाल सुलभ निश्छलता-बाबा विश्वनाथ उन्हें स्वस्थ रखें, शतायु दें- यही कामना है।
(यह लेख मई 2007 में लिखा गया था)
रामधनी द्विवेदी
समाचार सम्पादक, दैनिक जागरण, बरेली
विनोद भैय्या, भैय्या तो भैय्या ही थे। उनके जैसा भैय्या कोई न दूजा। चसनाला...चर्चिल, चार्ली चैप्लिन की चर्चा चिली चिकन के साथ। अयोध्या में मार्क टुली को कारसेवक घेर लें तो छत्र पुरंदर होता था विनोद भैय्या का अभय मुद्दा वाला हाथ। खूब याद दिलाई आपने, आपकी लेखनी को प्रणाम
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