Monday, 1 August 2016

विश्‍व को जीवन देता है उत्‍तरायण सूर्य


अभी तीन दिन पहले हमने मकर संक्रांति मनाई, मकर संक्रांति को खिचड़ी कहते हैं हमारे पूरब में। खिचड़ी यानी सूर्य के उत्‍तरायण होने का दिन, गंगा स्‍नान का दिन, नए वस्‍त्र पहनने का दिन, दान का दिन, नए चावल,उडद,हरी मटर की खिचड़ी खाने का दिन, तिल के लड्डू खाने का दिन, रेवड़ी खाने का दिन और ठंड से धीरे-धीरे विदाई का दिन---आधे माघे कामर कांधे--- का दिन। और मांगलिक कार्य शुरू होने का दिन। तो इतना महत्‍वपूर्ण क्‍यों है यह दिन----

इस दिन हमारे आकाश में एक न‍क्षत्रीय घटना होती है। सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। इसके पहले तक वह लगभग एक महीने धनु राशि में रहता है। मकर राशि में सूर्य का प्रवेश ही मकर संक्रांति कही जाती है-- संक्रांति यानी संक्रमण-- संचार-- जाना- गमन। सूर्य हर महीने एक राशि मे रहता है। इस तरह वह बारह महीने में पूरे भचक्र--राशि मंडल -- की यात्रा कर लेता है और एक वर्ष की अवधि पूरी हो जाती है। यही हमारे सौर मास की गणना का आधार भी है। अर्थात वह हर महीने एक राशि से दूसरी राशि में  जाता है। यह राशि वास या राशि परिवर्तन कोई वास्‍तविक घटना नहीं होती। हम पृथ्‍वी के सापेक्ष ऐसा होते देखते हैं, इसलिए मान लेते हैं कि ऐसा हो रहा है। इससे हमारी ज्‍योतिषीय ओर अन्‍य गणनाएं होती हैं । किसी भी गणना के लिए किसी आधार - प्रस्‍थान विंदु की जरूरत होती है, वह सूर्य की इस गति( आभासी) से प्राप्‍त होती है। सूर्य उस तरह की गति नहीं करता जैसी हम उसे करते देखते हैं-- वास्‍तव में गति तो पृथ्‍वी कर रही है, हम उसपर स्थित हैं इसलिए उसके साथ हम भी अंतरिक्ष में चलते हैं तो अन्‍य पिंड भी चलते लगते हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे हम ट्रेन में बैठे आगे बढ़ंते हैं और अगल-बगल के पेड़, घर पीछे जाते लगते हैं। चलायमान हम हैं लगता है कि पेड़ और घर चल रहे हैं।  दुनिया को य‍ह बात हमारे मनीषियों ने ही सबसे पहले बताई थी।कुछ विषयांतर हो रहा है। मकर संक्रांति पर आते हैं--
तो जनवरी में सूर्य मकर राशि में प्रवेश करते है। भारतीय मनीषा ने इसकी कई तरह से व्‍याख्‍या की है। यह सूर्य का उत्‍तरायण होना है। आकाश में इस दिन से सूर्य पूर्व में थोड़ा उत्‍तर की ओर खिसकते से लगते हैं, दिन बड़े होने लगते हैं, ठंड धीरे- धीरे कम होने लगती है, जीवन में गति आने लगती है, प्रमाद खत्‍म होने लगता है, सर्वत्र जीवनी शक्ति का प्रभाव दिखाई देने लगता है। इसी से सूर्य के उत्‍तरायण होने को जीवनदाता, अमरत्‍वदाता कहा गया है--- एक सकारात्‍मक ऊर्जा का सर्वत्र प्रसार ही सूर्य के उत्‍तरायण होने का वास्‍तविक अर्थ हैं। वर्षा और शीत ऋतु में सूर्य मेघों से, कोहरे से ढंके रहते है। उनकी ऊर्जा का पूर्ण प्रवाह  पृथ्‍वी तक नहीं हो पाता । जीवन में सर्वत्र शैथिल्‍य दिखता है। उत्‍तरायण होते ही यह स्थिति दूर हो जाती है। हमें सूर्य उर्जा भरपूर मिलने लगती है। जीवन का संगीत चारों ओर सुनाई देने लगता है। संपूर्ण जीव-जगत, चर- अचर में प्राण संचरित हो उठता है।

इस वर्ष मकर संक्रांति 15 जनवरी को मनाई गई। परंपरागत रूप से अभी तक 14 जनवरी को ही मकर संक्रांति होती थी। लेकिन पृथ्‍वी की गतियों के कारण---- धूर्णन गति (अपनी धुरी पर घूमना) और परिभ्रमण गति ( सूर्य के चारों ओर चक्‍कर लगाना) के कारण इस बार सूर्य विलंब से रात लगभग 12 बजे मकर राशि में प्रवेश किए। इसलिए मकर संक्रांति 15 जनवरी को पड़ी। अब यह हर वर्ष 15 जनवरी को ही पड़ेगी।  एक दिन का यह अंतर लगभग 72 वर्ष बाद आता है। 72 वर्ष पहले मकर संक्रांति 13 जनवरी को पड़ती थी। किसी व्‍यक्‍ति के जीवन में यह घटना एक या दो बार ही देखने को मिलती है। यदि बचपन में उसने 14 जनवरी को मकर संक्राति मनाई है तो वृद्धावस्‍था में अगली तारीख को मनाएगा।
मुझे बचपन की खिचड़ी याद आती है। तब मैं चार या पांच वर्ष का था और पढ़ाई के लिए शहर (कानपुर) नहीं गया था। खिचड़ी के दिन नहाना सबसे महत्‍वपूर्ण घटना होती थी। चाहे नदियों में नहाया जाए या घर पर ही। बच्‍चों क्‍या, बड़ों के लिए भी यह साहस का काम माना जाता था। मेरे गांव मे एक विद्वान पंडित रहते थे। पद में वह मेरे भाई थे लेकिन उम्र में पिता की उम्र के थे। वह थे तो पंडित लेकिन नहाने से जी चुराते थे। आम दिनों मे एक गगरा पानी से ही नहा लेते थे। उनके बारे मे लोग मजाक में कहते कि सुद्धू  पंडित ( यह उनका गांव का नाम था)  साल में एक दिन खिचड़ी के दिन नहाते हैं।  वह इस कथन का खुद बहुत आनंद लेते और कहते कि खिचड़ी भी बहुत जल्‍दी- जल्‍दी हर साल आ जाती है, यार इस दिन तो नहाना ही पड़ता है।खैर--- तो खिचड़ी के दिन मां बड़े पतीले में पानी गर्म करतीं और सूरज निकलने पर धूप में रगड़-रगड़ कर नहलातीं। जिस साल बदली होती,उस साल कौड़ा जलता । गमछे से देह पोंछने के बाद नए कपड़े पहनने को मिलते, किसी साल नेकर-कमीज तो किसी साल सिर्फ नेकर- बनियाइन ही। जिसे कमीज मिलती वह कपड़े पहन कर सबको दिखाता घूमता। नए कपड़े पहन मां पहले से रखी खिचड़ी के सिद्घे को छूने को कहती जो बाद में पुरोहित या किसी ब्राह्मण को दान किया जाता। तो कपड़े पहन कर बड़ों के पैर छूने के बाद कुरुई ( मूंज का हाथ से बनाया गया गहरा प्‍लेट नुमा पात्र, जो आजकल एंटीक हो गया है और गांव में भी शायद ही देखने को मिलता है।) में लाई-चूरा, नया गुड़ या गट्टी और ढुंढा ( गुड़ और लाई या तिल को मिलाकर बना लड्डू) खाने  को मिलता। नहाने और नए कपड़े पहनने का उत्‍साह रहता। घूम-घूम कर दाना खाया जाता, फिर दही मिला गन्‍ने का रस पीने को मिलता, दही-चूड़ा भी। दोपहर को खिचड़ी मिलती--खूब घी डली। फूल की थाली में उस खिचड़ी का स्‍वाद ही अलग होता। अब ये सब बातें बस स्‍मृतियों में ही रह गई हैं। कितने अच्‍छे थे वे दिन--

(18 जनवरी 12011 को जागरण जंक्शन में प्रकाशित)

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