कल मैं आफिस के लिए निकल ही रहा था कि दिव्या ने कहा, पापा-- विद्यार्थी अंकल ने एक किताब भेजी है। और उसने आलमारी से निकाल एक पतली सी पुस्तक दी--लौटना कठिन है। वह तब तक उसे उलट-पुलट चुकी थी। यह विद्यार्थी जी की नई पुस्तक है, जो पिछले महीने ही छपी है। जब विद्यार्थी जी ने फोन पर यह जानकारी दी थी, तो मैने, उसे भ्ोजने का आग्रह किया था। अस्व्ास्थ हो जाने से जब वह शीघ्र नहीं भेज पाए तो तीन दिन पहले ही मैने उन्हें याद दिलाया था। यह उनकी डायरी के उन दिनों के अंश हैं जब वह पीलीभीत के नवोदय विद्यालय मे रचनात्मक लेखन की कार्यशाला के सिलसिले में पंद्रह दिन तक वहां बच्चों के बीच रह कर उन्हें लेखन की विविध विधाओं का प्रशिक्षण देते रहे थे। वैसे मै विद्यार्थी जी की कई किताबें पढ़ चुका हूं लेकिन इस किताब को लेकर मेरी जिज्ञासा कुछ अधिक ही थी। इस कार्यशाला के समापन के बाद जब वह बरेली लौटे थे तो मुझसे दैनिक जागरण कार्यालय में मिले थे । वह कार्यशाला के अनुभव बताते हुए आह्लादित थे -- मुझे ऐसा अनुभव पहले कभी नहीं मिला था। बच्चों के साथ कब पंद्रह दिन बीत गए , मुझे पता ही नहीं चला। बच्चे कितने जिज्ञासु,भावुक और रचनात्मक होते हैं, यह अनुभव कर मैं रोमांचित हो जाता हूं। उन्होने मुझे विद्यालय के कन्नड़ शिक्षक लोहित शेट्टी के बारे में एक छोटा सा लेख दिया और आग्रह किया कि इसे पीलीभीत संस्करण में छाप दें। मैने उसे पीलीभीत के समाचार देख रहे साथी को दे दिया और उसे पेज चार पर बाक्स में छापने के लिए कह दिया। लेख के साथ शिक्षक का पासपोर्ट साइज फोटो भी था। लेख छपा, लेकिन फोटो टिकट साइज छपने और शिक्षक के नाम में वर्तनी की गलती हो जाने पर वह खिन्न हो गए थे। इससे मैं उनका उस विद्यालय और शिक्षक के साथ लगाव अनुभव कर सका था। इसके कारण भी मैं उनकी किताब पढ़ने के लिए उत्सुक था।
मैने सोचा आज आफिस के रास्ते पौन घंटे की अपनी बस यात्रा का सदुपयोग कर लूं। संयोग ही था कि बस मे चढ़ते ही सीट मिल गई। आनंद विहार बस अड्डे पहुंचते-पहुंचते मैं 25 पेज पढ़ चुका था। 63 पेज की किताब का शेष दफ्तर में खाली होने पर पढ़ गया। किताब इतनी रोचक थी भी, कि उसे बिना पूरी किए रुका ही नहीं जा सकता था । उसका परिचय(आमुख) संवाद शीर्षक से सुकेश साहनी ने लिखा है जिसमें उन्होने खलील जिब्रान की एक कमाल की लघुकथा का संदर्भ दिया है। वैसे भी खलील जिब्रान लघुकथाओं के बेताज बादशाह तो हैं ही।
शिक्षक और छात्र के बीच कितना गहन अात्मिक संबंध हो सकता है, यह जानना हो तो इस किताब को पढ़ना जरूरी है। कितने शिक्षक हैं जो बच्चों में छिपी रचनात्मकता को समझ, उसे सही दिशा दे पाते हैं, शायद कम। और जो ऐसा कर पाते हैं , उनसे छात्रों का भावनात्मक अटूट रिश्ता कायम हो जाता है। पंद्रह दिन के भीतर ही उस कार्यशाला के पैंतीस बच्चों से विद्यार्थी जी का जो रिश्ता कायम हुआ, वह उन्हे लिखे बच्चों के पत्रों से जाहिर होता है। यह पारस्परिक आत्मिकता का ही परिणाम था कि कार्यशाला के दौरान एक दिन विद्यार्थी जी के जीवन के पुत्र विछोह जैसे निजी प्रसंगों को सुन बच्चे सिसकियां भरने लगते हैं और खुद उन्हें लगता हैं कि उनसे कैसे यह अपराध हो गया । कार्यशाला के समापन पर लौटते समय वह बच्चों से अपने को मानसिक रूप से अलग करने में असमर्थ पाते हैं, तभी तो वह कहते हैं ----लेकिन मैं भी तो उसी स्थान पर खड़ा हूं अब तक-- अपने प्रिय बच्चों के बीच बतियाता और हंसता हुआ--बीते पखवाड़े के हर रोज की तरह।--- क्या लौटना बहुत कठिन नहीं है मेरे लिए। वह बच्चों को कुछ देने गए थे और उनकी स्वीकारोक्ति है कि वह बच्चों से बहुत कुछ लेकर लौटे हैं। वे ही क्यों बच्चों ने भी पंद्रह दिनों में जो सीखा और अनुभव किया वह उनके अब तक के स्कूली जीवन में कभी नहीं मिला था--ऐसा उन्होने अपने पत्रों में खुद लिखा है।
लौटना कठिन है--- में कोई अघ्याय विभाजन नहीं है। 7 से 22 नवंबर 2009 के बीच उन पंद्रह दिनों के डायरी के अंश अलग- अलग शीर्षकों से हैं। बीच- बीच में छात्रों और विद्यार्थी जी के बीच हुए संवादों का विवरण और छात्रों द्वारा उन्हें लिखे पत्रों का मजमुन है। कुछ पत्रों से लगता है कि ये बच्चे लेखक बनें या न बनें उनमें लेखन की नैसर्गिक प्रतिभा है, जिसे विद्यार्थी जी की कार्यशाला ने व्यक्त करने का मौका दिया। मुझे तो लगता है कि ऐसी कार्यशालाएं हर विद्यालय को करानी चाहिए। लेखन की डायरी विधा का अनुपम नमूना है ::लौटना कठिन है।
(11 अक्टूबर 2010 को जागरण जंक्शन में प्रकाशित)
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भाई साहब,
ReplyDeleteसादर नमस्ते, आज यह रिश्ता धीरे धीरे खत्म होता जा रहा है । हाँ, सरस्वती शिशु व् विद्या मंदिरों में अभी यह आत्मिक सम्बंध बरकरार है ।
वास्तव में,, आपके 'देखा-सुना' से लौटना कठिन है। जो बातें दिल से लिखी जाती हैं वे दिल में उतर जाती हैं, और यह कला कोई आपसे सीखे।
ReplyDeleteद्विवेदी सर,लौटना कठिन है..पढ़ने का सौभाग्य मुझे बरेली में पंकज मिश्र जी के यहां मिला था। रचनात्मक लेखन कोई उनसे सीखे। आज आपने इस पुस्तक का स्मरण कराया,इसके लिए आभार।
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