Wednesday, 26 October 2016

पत्रकारिता में आना --2

पराड़कर भवन में मेरी तरह कुल40लोग प्रशिक्षुु पत्रकार बनने आए थे। हमें वहां के आगे के हाल में बैठाया गया। एक पेपर दिया गया जिसमें एक अंंग्रेजी से हिंदी और एक हिंदी सेे अंग्रेजी अनुुवाद,कुछ सामान्‍य ज्ञान केे सवाल और एक टुकड़ा हिंंदी में अपनेे विचार इस विषय पर लिखने के लिए कि आप पत्रकार क्‍यों बनना चाहते हैं।समय डेढ़ घंटे का था और कठिन अंग्रेजी शब्‍दों के लिए शब्‍दकोश भी दिया गया। मैनेे तय सीमा केे पहले ही कापी जमा कर दी। चूुंकि मैने विज्ञान (बायोलॉजी)से बीएससी किया था और उस समय विज्ञान की कितााबें हिंदी में नहीं होती थीं,इसिलए इंटर से ही अंग्रेजी में साइंंस पढ़ने से अंग्रेजी बहुत अच्‍छी नहीं तो खराब भी नहीं थी।मेरी शादी हो चुकी थी और शादी में मुुझे दहेज में अन्‍य सामान के अलावा बुश कंपनी का एक ट्राजिस्‍टर मिला था। मेरी आदत बीबीसी सुुनने की हो गई थी।रात साढ़े सात बजे वाले कार्यक्रम में दो दिन पहले ही उसपर पत्रकारिता के महत्‍व पर एक वार्ता प्रसारित हुई थी। मुझे उसकी बातें याद थीं जो उस दिन की परीक्षा में काम आई। बीबीसी सुनने की आदत ने सामान्‍य ज्ञान केे सवाल हल करने में मदद की। उस दिन पहली बार मैने जाना कि देश-दुनिया के बारे में जाानकारी रखना कितना उपयोगी होता है। बाद में समझ में आया कि पत्रकार के लिए अपना ज्ञान बढ़ाते रहना,उसकी सफलता का पहला मंत्र है।
लिखित परीक्षा लेने के बाद वहीं इंटरव्‍यू भी हुुआ।उसमें सर्वश्री ईश्‍वरदेव मिश्र,श्‍यामा प्रसाद शुक्‍ल प्रदीप,हनुमान प्रसाद शर्मा मनुु, ईश्‍वरचंद्र सिन्‍हा और जनवार्ता मालिक बाबू भ्‍ूूलन सिंह भी थे। इंटरव्‍यू केे लिए अकार आदि से नाम बुलाए गए। मेरा नाम र से थाा,इसलिए मेेरा नंबर बाद में आया।जैसा सभी इंटरव्‍यू में होता है, जो भी बााहर निकलता उससे पूछे गए सवालों के बारे में पूछा जाता।जब मेरा नंबर आया तो मुुझसे आधा घ्‍ांटा से अधिक बात की गई-पढ़ाई केे बारे में,परिवार केे बारेे में,शादीके बारे में,सौ रुपये में कैसे खर्च चलेगा अाादि आदि---वह हमें साैै रुपये महीने देने वाले थे और छह महीने बाद इसे दो सौ रुपये करने का वादा किया गया था--जो पूरा नहीं हुआ।छह महीने बाद सिर्फ 25 रुपये बढ़े थे। खैर,इंटरव्‍यू में मनु शर्मा ने एक रोचक सवाल पूछा--कहते हैं कि इंसान का पूर्वज बंदर हैै,इसपर आपका क्‍या कहना हैै।मैने जो उत्‍तर दिया वह आज भी याद है।
मैने कहा--
वैज्ञानिक यह तो नहीं कहते कि इंसान का पूर्वज बंदर हैै। लेकिन डार्विन नामक वैज्ञानिक ने दुनिया के जीवजंतुओं के अध्‍ययन केे बाद विकासवाद का जो सिद्धांंत प्रतिपादित किया,उसके अनुसार धरती पर जितने भी जीव हैं,उनमें शारीरिक संरचना में मनुष्‍य के सबसे निकट जो प्राणी लगता है,वह एप है जो वानरों कीएक उन्‍नत प्रजाति है।इससे उनका अनुमान था कि बहुत मुमकिन है,यही एप विकास की प्रक्रिया में आगे चलकर मानव हो गए होंं।लेकिन यह प्रक्रिया लाखों साल में हुई होगी क्‍योंकि मेरे दादाजी लगभग सौ साल केे ,पिता जी50साल के और 25साल का मैं हूं---और इनमें से किसी ने किसी बंदर को आदमी होते नहीं देखा हैै।
मेरे आखिरी वाक्‍य पर जोर की हंंसी हुई। मनु शर्मा ने कहा--क्‍या बात कही।भूलन सिंह शायद काफी देर से बैठे रहने से ऊब रहे थे।डन्‍हानें जल्‍द फैसला लेने के लिए कहा जिसपर प्रदीप जी ने कहा-- कल काशीपुरा दफ्तर में सुबह साढ़े दस बजे मिलिए।ईश्‍वरदेव जी ने कहा--वहीं जहां सुबह मिले थे।मैं सबसे नमस्‍ते कर बाहर आ गया।बाहर कुुछ और प्रत्‍यशी बैठे थे।मेेरा इंंटरव्‍यू लंबा चला था।फूूफा जी भी बाहर इंतजार कर रहे थे।मैं उनके साथ ससुराल चला गया।उनसे इंटरव्‍यूू की बात बताई तो उन्होंने कहा कि तुम्‍हारा सेलेक्‍शन हो गया,नहीं तो कल दफ्तर में न बुलाते।मेरे मन को भी ऐसा ही लगा। काफी बाद में समझ में आया कि जब इंटरव्‍यू में बाद में सूचना देने को या पत्र ( आजकल ईमेल करने) से सूचित करने को कहा जाए तो समझना चाहिए कि मामला ठीक नहीं हैै,और बात नहीं बनी।
कुछ दिनों बाद पता चला कि तीन लोगों का चुनाव हुआ था लेेकिन केवल मुझे ही पहले दिन बुलाया गया था। कुछ महीने बाद राजन गांधाी को ज्‍वाइन कराया गया और बाद में वशिष्‍ठ मुनि ओझा को। राजन ने बाद में नवभारत टाइम्‍स में ट्रेनी के रूप में ज्‍वाइन किया और धर्मयूग में खेल संपादक हुुए। बाद में कुछ सााल बाद उसका कैंसर से देहांत हो गया।
दूसरे दिन 19 जनवरी 1973 को मैं सुबह दस बजे जनवार्ता केे काशीपुरा स्थित कार्यालय पहुंचा। फूफा जी मुुझे पहुंचा कर शाम को आने के लिए कह कर अपने दफ्तर चले गए। वह नगर निगम के शिक्षा विभाग में शिक्षा अ‍धीक्षक थे।
मैं ईश्‍वरदेव जी से मिला तो वह मुझे लेकर एक संकरे किंतु लंबे कमरे में गए जिसमें कुछ लोग बैठे हुए थे। उन्‍होंने एक बुजुर्ग से व्‍यक्ति को मेरा नाम बताते हुुए कहा कि इन्‍होंने आज संपादकीय विभाग में प्रशिक्षुु केे रूप में ज्‍वाइन किया है। इन्‍हें प्रशिक्षण दीजिए। वह महेंद्रनाथ वर्माजी थे जो मेरे पहले पत्रकारिता गुरु हुए।उन्‍होंनेे भी एक लंबा इंटरव्‍यू लिया-- क्‍यों यह नौकरी कर रहे हो, यहां पैसा नहीं हेैै,इस उम्र में मैं ढाई सौ की नौौकरी कर रहा हूं, कुछ और कर सको तो कर लो आदि आदि। बााद में समझ में आया कि यह कुंठा हर उस पत्रकार को होती है जो ईमानदारी और मेहनत से पत्रकारिता करना चाहता हैै। अब तो पत्रकारों का वेतन काफी हैै लेकिन आज भी दूसरे पेशे केे लोगोंं की तुलना में काफी कम है और उसमें जीना मुश्किल है। वहीं पहली बार श्री त्रिलोचन शास्‍त्री जी के भी दर्शन हुुए। जब वर्माजी मुझेे हतोत्साहित कर रहे थे तो शास्‍त्री जी ने उन्‍हें टोका भी कि क्‍यों बच्‍चे का मन तोड़ रहे हैं।
वर्मा जी ने मुझे काफी निरीह भाव से देखने के बाद एक छोटा सा अ्रग्रेजी में टेलीप्रिंटर का तार दिया और उसे हिंंदी में लिखने केे लिए कहा।मैं पत्रकार बनने आया तो था लेकिन पेन ही लाना भूल गया था। जब मैैने उनसे बताया तो उन्‍होंने कहा-जाइए ईश्‍वरदेव जी से पेेन मांग लीजिए। वह शायद ईश्‍वरदेव जी को यह संदेश भी देना चाहते थे कि देेखिए आपने किसे चुना हैै जो बिना पेेन का पत्रकार बनने चला है।वर्मा जी को शायद भविष्‍य के पेनलेस और पेेपरलेस पत्रकारिता का समय आने का अनुमान नहीं था।मैं यह लैपटाप पर लिख रहा हूूं जिसमें न पेन का योगदान हैै और न ही पेपर का। खैर जब ईश्‍वरदेव जी को पता चला कि मैं बिना पेेन लिए आ गया हूं तो वह मुस्‍कराए और अपने सामने से उठाकर एक पेंसिल उन्‍होंनेे दी। मैंने पहले दिन पहली खबर पेंसिल से लिखी। पहले दिन मैने जाना कि खबर में डेटलाइन क्‍या होती हैै,उसे कैसे लिखा जाता है और उसका क्‍या महत्‍व है। पहले दिन मैने पांच खबरें बनाईं,अधिकतर एक पैरे की, दो-एक दो पैरे की।उन दिनों जनवार्ता दस पैसे का बिकता था।दूूसरे दिन मैने तीस पैसे में तीन अखबार खरीदे क्‍यों कि उसमें मेरी लिखी तीन खबरें छपी थीं।
दो-चार दिनों बाद मुझेे चार छह पन्‍ने की एक बुुकलेट दी गई जो वर्तनी से संबंधित थी ।उसमे बताया गया था कि गया,गयी,गये आदि कैैसे लिखे जाएंंगे अौर क्‍यों। इसके अतिरिक्‍त लगभग 50-60शब्‍दों का रूप बताया गया था कि इसे कैैसे लिखा जाना चाहिए। जैसे अंतरराष्‍ट्रीय, धूमपान,परराष्‍ट्रमंत्री (विदेशमंत्री) स्‍वराष्‍ट्रमंत्री (गृहमंत्री) संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ,राष्‍ट्रकुल (कॉमनवेल्‍थ) दीक्षा समारोह और दीक्षांत भाषण,संख्‍या के लिए भारी न लिखकर बड़ी संख्‍या लिखने,काररवाई ( अब यह शब्‍द न लिखकर कार्रवाई लिखा जाता है) और कार्यवाही में अंतर,खुदाई और खोदाई कहां लिखा जाए आदि कारण सहित स्‍पष्‍ट किया गया था। यह वर्तनी और नियम आज ने बनाए थे जिसे बनारस के सभी अखबार पालन करते। आज की वर्तनी की यह नियमावली जनवार्ता ने भी छाप ली थी जो अपने पत्रकारों को उपलब्‍ध कराता था। आज वर्तनी के मानकीकरण के प्रति पत्रकारों का आग्रह नहीं हैै और अलग अलग अखबारों में एक ही शब्‍द के अलग अलग रूप व्‍यवहार में लाए जाते हैं। जिन अखबारों ने अपनी वर्तनी तय की हैै,वे भी इसका कड़ाई से पालन नहीं करते और कराते है। हिंदी अखबारों में अमर उजाला ने ही सबसे पहले वर्तनी पर काम किया हैै और वह अपने यहां निर्धारित वर्तनी को ही व्‍यवहार में लाता हैै। नवभारत टाइम्‍स ने अपने अलग वर्ग के पाठकों को ध्‍यान में रखकर अपनी भाषा को हिंग्‍िलस रूप दिया है जिसमें अंग्रेजी के शब्‍दों का भरपूर होता है। कुुछ वर्षो से दैनिक जाागरण इस दिशा में लगातार काम कर रहा है, यहां काफी कुछ शब्‍दों के मानक रूप तय हो गए हैं और उनका प्रयोग कड़ाई से किया जा रहा है। बडा समूह होने से नए लोग आते -जाते रहते हैं और नए लोग अपनेे मन से शब्‍दों का प्रयेाग करने ल्रगते हैं। ऐसे लोगों को मानक वर्तनी प्रयोग का प्र‍शिक्षण देने का जिम्‍मा संपादकीय प्रभारियों का होना चाहिए।जागरण पहला अखबार है जिसने अपने पाठकों की सुविधा के लिए प्रचलित क्षेत्रीय शब्‍दों के प्रयोग की अनुमति दी है। उसकी वर्तनी का उद्देश्‍य सरल भाषा में समाचार प्रस्‍तुत करना है और उसकी लोकप्रियता का एक यह भी कारण है।
मैने दो तीन महीने वर्मा जी के साथ काम किया। वह जनरल डेेस्‍क की एक शिफ्ट के इंचार्ज थेे।दूसरी शिफ्ट के इंचार्ज गणपति नावड़ जी थे। वर्मा जी दिन की और नावड़ जी रात की शिफ्ट देखते थे। मैने अधिकतर दिन की ही शिफ्ट में काम किया। बाद के दिनों में रात की शिफ्ट में भी काम करने को मिला।
कुछ दिन जनरल शिफ्ट में काम करने के बाद मुझे रिपोटिंग में भेज दिया गया। उन दिनों हरिवंश तिवारी चीफ रिपोर्टर थे।उनके साथ वंशीधर राजू थे। मैं तीसरा रिपोर्टर हो गया। रिपो‍टिंग के शुरू में मुझेे अस्‍पताल की खबरों का जिम्‍मा सौंपा गया।वहां से दुर्घटना,डकैती मारपीट अादि में घायल लोग लाए जाते इसलिए ऐसी दुुर्घटनाओं की खबरें वहीं से मिलतीं। ऐसे मामले में लोग चूुंकि इमरजेंसी में ही भर्ती होते इसलिए पहले वहीं जाना पड़ता।लोगों सेे तरह तरह के सवाल करने पड़ते।लोग दुखी और परेशान होते, तो भी उनसे खोद खोद कर पूूछना होता। पहले संकोच होता,फिर आदत पड़ गई। शुरू में डिटेल न पूछ सकने के कारण हमारी खबर आज से कमजोर होने लगी तो पता चलता कि हमने कहां गलती की और कहां चूक हो गई। वहीं काम के दौरान वरिष्‍ठ साथियों ने पांच डब्‍ल्‍यू और एक एच के बारे में पता चला। किसी खबर के ये शाश्‍वत अंग हैं।इनमें एक की भी कमी खबर को अधूरा बना देती है। मुझेे कभी कभी थानों में भी फोन कर खबरें लेनी होती।पुुलिसवालों से कैसे पूूरी बात निकाली जाए, यह कला भी रिपोर्टर को आनी चाहिए। नहीं तो वह रुटीन की जानकारी ही देेगा।कुछ पत्रकारों का कुछ पुलिसवालों से याराना हो जाता है। वे अपने प्रिय रिपोर्टर को ही खबरें बताते हैं या अतिरिक्‍त जानकारी देते हैं। ऐसे यार पुलिस वाले सूत्रका भी काम करते हैं। उन्‍हेें कहीं भी कोई सूचना मिलती होो,भले ही वह उनके थाने की न हो, वे अपने प्रिय पत्रकार को इसकी सूूचना दे देते हैं और वह उसे डेवलेप कर लेता हैै। कोतवाली,कप्‍तान के दफ्तर में फोन या फैक्‍स या वासरलेस पर रहने वाले पुलिस वालों के पास ऐसी सूचनाएं पहले आती हैं। यह याराना दोनों के लिए फायदेमंद होता है। पुुलिसवाला जहां पत्रकार को खबरें देता हैै,वहीं पत्रकार जरूरत पर उसे अफसरों के कोपभाजन से बचाता हैै या उसके गुडवर्क को हाईलाइट कर उसकेे प्रमोशन का भी मार्ग प्रशस्‍त करता हैै। जनवार्ता चूंकि आज से छोटा अखबार था और उसका प्रसार भी कम था,इसलिए पुलिस वालों का झुकाव भी उसी की तरफ होता। लेकिन जनवार्ता की लोकप्रियता कम नहीं थी। हमें खबरें निकालने के लिए काफी जूझना पड़ता।
एक प्रकरण याद आता है। उत्‍तर प्रदेश की सपा सरकार में वर्तमान में स्‍वास्‍थ्‍य मंत्री अहमद हसन उन दिनों सीआ प्रथम थे।उन्‍हें शहर कोतवाल कहा जाता।वह कोतवाली में ही बैठते थे। उनकी आज के चीफ रिपोर्टर राजेंद्र गुप्‍त से अच्‍छी पटती थी और वह खबरें पहले उन्‍हें ही बताते थे। एक दिन वह कोई महत्वपूर्ण खबर उन्‍हें बता रहे थे। जनवार्ता से हरिवंश जी भी उन्‍हें फोन मिला रहे थे। उन दिनों आज की तरह स्‍मार्ट फोन नहीं होते थे। बड़े आकार के काले रंग के फोन होते जिनमें डायल पर दस गोल छेद बने होते थे,जिनके नीचे नंबर लिखे होते।उनमें उंगली डाल कर पूरा चक्‍कर घुमाना पड़ता था। पांच डिजिट के नंबर होतेे थे। अर्थात किसी को फोन मिलाने के लिए पांच बार उंगली डाल कर डायल घुमाना पड़ता। ऐसेे में फोन प्राय: किसी न किसी नंबर से उलझ जाते।यह बड़ी रोचक स्थिति होती।दोनो ओर को दोनों की बात सुनाई देती। जब फोन उलझ जाता तो बहत चाहने पर भी न सुलझता।क्रे‍डिल पर चोंगा रख देने पर भी कनेेक्‍शन नहीं कटता। तो उस दिन भी कोतवाल साहब से हरिवंश जी का नंबर उलझ गया। जब उन्‍हें पता चला कि वह किसी से बात कर रहे हैं तो वह बात सुुनने लगे। राजेंद्र गुुपत ने उनसे कहा कि यह खबर किसी अखबार को न बताइएगा,जनवार्ता को कतई नहीं।अहमद हसन ने कहा नहीं, अब इस समय उनका फोन भी न आएगा और आएगा भी तो नहीं बताऊंगा।वह छोटा अखबार हैै,बस यह खबर आज में छप जाए। खैर,उस समय तो हरिवंश जी ने फेान रख दिया। थोड़ी देर बाद जब दोबारा मिलाया तो कोतवाल साहब ने फेान नहीं उठाया और वह खबर जो शायद कोई शासनादेश था,केवल आज में ही छपा। राजेंद्र गुप्‍त आज में हमेशा रात की ड्यूटी करते।वह रात साढ़ेे आठ बजे दफ्तर आते और खबरे या तो अपडेेट करते या देर रात की खबरों को देखते। तब खबरोंं की इतनी मारा मारी भी नहीं थी। हरिवंंश जी ने अहमद हसन की बात दिल पर ले ली और रोज एक खबर कोतवाली पुलिस के खिलाफ,उसकी लापरवाही और कानून व्‍यवस्‍था पर छपने लगी। हर खबर में यह बात लिखी होती कि देर रात कोतवाल का फोन नहीं उठा। एक हफ्तेे बाद एक दिन शाम को हम लोग आफिस में बैठे थे कि कोतवाल साहब की जीप कैंपस में रुकी और अहमद हसन सीधे संपादक जी केे कमरे में गए। चाय पीने के साथ ही उन्‍होेने उन खबरों की चर्चा की। संपादकजी ने हरिवंंश जी को बुलाया और दोनों की अामने सामने बात कराई, तब तब ईश्‍वरदेव जी को यह प्रकरण नहीं मालुम था। अहमद हसन ने बात बनाने की कोशिश की और कहा कि भाई आप और आज दोनों मेरे लिए समान हैंं। आप जब चाहें मुझसे बात कर सकते हैं,मिल सकते हैं। और इस तरह तनाव-शैथिल्‍य हुआ।(क्रमश:)

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